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पर्व परिचय


रंग भरी एकादशी

- संकलित


फाल्गुन शुक्ल माह की एकादशी को रंगभरी एकादशी कहा जाता है। एकादशी के व्रत वैसे भी महत्वपूर्ण समझे जाते हैं। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर छब्बीस हो जाती है। रंग भरी एकादशी अनेक कारणों से महत्वपूर्ण है। सामाजिक सद्भावना, शिव के काशी आगमन और पार्वती के काशी में स्वागत की परंपरा, आँवले के वृक्ष के पूजन तथा खाटू श्याम की भक्ति का यह विशेष पर्व है।

रंगभरी एकादशी के दिन परिवार या समाज में पूरे वर्ष के शोक उठाए जाते हैं. यानी इस दिन शोकाकुल परिवारों में सभी शुभ कार्य शुरू किये जाते हैं। लोक परंपरा है कि जिस परिवार में किसी का स्वर्गवास हो जाता है या अन्य किसी प्रकार का शोक होता है। उस परिवार में वर्ष भर तक कोई शुभ कार्य नहीं किये जाते जैसे संगीत के कार्यक्रम नहीं होते, ढोलक आदि नहीं बजती, रोशनी नहीं की जाती, मुंडन आदि संस्कार नहीं होते, नये कपड़े नहीं खरीदे जाते और अन्य कई प्रकार के शुभ कार्य रोक दिये जाते हैं। यह समय दुख से उबरने में लगाया जाता है। लेकिन रंग एकादशी पर शोक उठाए जाने के बाद परिवार में शुभ कार्य शुरू हो जाते हैं। इस दिन रिश्तेदार व नातेदार शोकाकुल परिवार के यहाँ पहुँचते हैं और सबको गुलाल लगाते हैं। इस तरह उस परिवार के सिर से शोक का साया उठ जाता है। इसके बाद शोकाकुल परिवार में पकवान व मिठाइयाँ बननी शुरू हो जाती हैं। परिवार में शुभ और मांगलिक कार्य शुरू कर दिये जाते हैं। इस प्रकार यह दिन सामाजिक सद्भावना और पारिवारिक प्रेम, मंगल और उत्साह का प्रतीक है।

यह एकादशी महाशिवरात्रि और होली के बीच में आती है। शिव पुराण के अनुसार इस दिन भगवान शिव माँ पार्वती के साथ विवाह कर काशी आए थे। काशी वासियों ने इसी खुशी में एक-दूसरे को अबीर गुलाल लगाकर खुशी मनाई थी। काशी में आज भी इस दिन बाबा विश्वनाथ का भव्य शृंगार किया जाता है। प्रातःकालीन पूजा के बाद इस शुभ अवसर पर शिव परिवार की चल प्रतिमायें काशी विश्वनाथ मंदिर में लाई जाती हैं। फिर बाबा श्री काशी विश्वनाथ, मंगल वाद्य-यंत्रों की ध्वनि के साथ अपने काशी क्षेत्र के भ्रमण पर अपनी जनता, भक्त, श्रद्धालुओं को आशीर्वाद देने सपरिवार निकलते हैं। शिवगण उन की प्रतिमाओं पर व समस्त जनता पर रंग अबीर गुलाल उड़ाते, खुशियाँ मनाते चलते हैं। काशी की सभी गलियाँ रंग अबीर से सराबोर हो जाती हैं और हर हर महादेव का उद्घोष सभी दिशाओं में गुंजायमान हो जाता है। मानो समस्त काशी एक बार खुशी और उत्साह से भर उठता है। इसके बाद श्री महाकाल को सपरिवार मंदिर गर्भ स्थान में ले जाकर श्रृंगार कर अबीर, रंग, गुलाल आदि चढ़ाया जाता है। इस दिन से वाराणसी में रंग खेलने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है और वह लगातार छह दिन तक चलता है। हर दिन उत्सव का माहौल होता है। सभी आपस में मिलकर खुशियाँ मनाते एवं भगवान शिव एवं माता पार्वती का आशीर्वाद लेने आते हैं।

ब्रज के बाद यदि कहीं की पौराणिक और परंपरागत होली प्रसिद्ध है तो वह है भगवान काशी की। यहाँ रंगभरी ग्यारस का उत्सव सर्वाधिक प्रचलित त्योहारों में से एक है। इस प्रकार यह पर्व ससुराल में माँ पार्वती के प्रथम स्वागत का सूचक भी है।
रंगभरी एकादशी को आमलकी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। आमलकी का अर्थ है आँवला। भारत का सनातन धर्म पर्यावरण के प्रति सचेत धर्मों में सबसे अधिक जाग्रत है। यही कारण है कि इसके प्रत्येक पर्व के साथ किसी न किसी वृक्ष के संरक्षण के कुछ नियम जुड़े हुए हैं। आमलकी एकादशी के साथ आँवले जैसे उपयोगी वृक्ष के संरक्षण की परंपरा है। ऐसी मान्यता है कि आँवले के वृक्ष के नीचे श्रीहरि यानि श्रीविष्णु का वास है। इसी कारण इस दिन भगवान विष्णु को प्रिय आँवले के पेड़ की पूजा भी होती है। आमलकी यानी आँवले को शास्त्रों में उसी प्रकार श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है जैसा नदियों में गंगा को प्राप्त है और देवों में भगवान विष्णु को। पद्मपुराण के अनुसार विष्णु जी ने जब सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा को जन्म दिया उसी समय उन्होंने आँवले के वृक्ष को भी जन्म दिया। आँवले को भगवान विष्णु ने आदि-वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया है। इस दिन विष्णु भक्त एकादशी का व्रत रखते हैं एवं मोक्ष की प्राप्ति हेतु पूर्वाभिमुख होकर भगवान विष्णु और आँवले के वृक्ष की पूजा अर्चना करते हैं। धार्मिक परम्परा के अनुसार आँवले के वृक्ष के पूजन में पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि अर्पित करने के पश्चात वृक्ष की आरती करके परिक्रमा की जाती है। आँवले के फल का दान करना भी सौभाग्य में वृद्धि करता है। स्वास्थ्य के लिये तो आँवला उपयोगी है ही।

एक मान्यता के अनुसार फाल्गुन शुक्ल माह की एकादशी को श्याम बाबा का शीश पहली बार राजस्थान राज्य के सीकर जिले के खाटू ग्राम में श्याम कुंड में प्रकट हुआ था। खाटू श्याम जी को भगवान कृष्ण का एक अवतार माना गया है। इसलिए इस दिन लाखों श्याम भक्त श्याम दर्शन हेतु खाटू जाते हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार शुक्ल मास के ग्यारहवें दिन कुंड के पास एक मंदिर में खाटू बाबा को विराजमान किया गया। १७२० ईस्वी में दीवान अभयसिंह ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण कराया और तब से आज तक उस मंदिर की चमक यथावत है। श्याम कुंड की मान्यता देश-विदेश में है। ऐसा माना जाता है कि जो श्रद्धालु इस कुंड में स्नान करता है उसकी हर मनोकामना पूर्ण होती है।

मेले के दौरान लाखों श्रद्धालु श्री श्याम प्रभु को अपनी विनयांजलि देने के लिए एकत्र होते हैं। भक्तों के बड़े-बड़े दल पदयात्रा करते और श्री श्याम प्रभु के गीत व जयकारे लगाते खाटू की ओर उमड़े आते हैं। इस यात्रा को ‘निशान यात्रा’ भी कहा जाता है। मेले के दौरान लाखों भक्त श्री श्याम को निशान (ध्वज) अर्पित करते हैं। कहा जाता है कि श्री श्याम को निशान अर्पित करने से श्याम हमारी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं। भक्त श्री श्याम के उपनामों के उल्लेख से उनकी महिमा का वर्णन व उनके प्रति अपनी आस्था व्यक्त करते चलते हैं। मेले के समय श्रद्धालु श्याम कुण्ड में डुबकी भी लगाते हैं। श्याम कुण्ड वही स्थान है, जहाँ श्री श्याम का शालिग्राम विग्रह प्राप्त हुआ था। कहते हैं कि श्याम कुण्ड के जल में आरोग्य कारक और पापों का नाश कर देने की शक्ति है। इसलिए इसे बहुत पवित्र माना जाता है। यह मेला समाज में न केवल धार्मिक एकता का प्रतीक है, बल्कि यह समाज में शक्ति, एकता वह उत्साह को भी प्रदर्शित करता है।

१ मार्च २०१९

 
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