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पर्यटन


भरतपुर और अजेय दुर्ग लोहागढ़
-सोहन शर्मा


आज हम भरतपुर के उस अजेय दुर्ग के बारे में चर्चा कर रहे हैं, जो अपनी फौलादी दृढ़ता के नाम से लोहागढ़ के नाम से इतिहास में अमर हैं। दिल्ली–मुंबई रेलमार्ग पर मथुरा से कोई 3० किलोमीटर दूर वह ऐतिहासिक स्थान है, जो राजस्थान का पूर्व सिंहद्वार भरतपुर कहलाता है। भरतपुर जाट राजाओं की रियासत थी। जाट लोग अपनी अक्खड़ता और जिद्द के लिये प्रसिद्ध हैं।

भरतपुर राजाओं ने दिल्ली को भी लूटा और दिल्ली से अपनी विजय के उपहार स्वरूप अष्टधातु के उस दरवाजे को उखाड़ कर लाये, जिसे अलाउद्दीन खिलजी पद्मिनी के चित्तौड़ से छीन कर लाया था। भरतपुर के चारों ओर पानी से भरी हुई खाई है और उस खाई के बाहर बना हुआ है मिट्टी का वह किला, जिसके अद्म्य साहस और बहादुरी के गीत प्रसिद्ध इतिहासकार जीम्सटाड ने भी गाए हैं। मिट्टी के इस किले की यह एक विशेषता रही है कि उसे आजतक कोई भी हरा नहीं सका है। इसलिये यह किला आज भी अजेय दुर्ग लोहागढ़ के नाम से विख्यात है। भरतपुर का पुराना नाम भी लोहागढ़ रहा है। ये कहावते भरतपुर के जाटों की वीरता को और लोहागढ़ के चरित्र को प्रकट करती हैं . . .आठ फिरंगी नौ लड़ै जाट के दो छोरा तथा भरतपुर गढ़ बाँको गोरा हटजा।

अंग्रेजी सेनाओं से लड़ते–लड़ते होल्कर नरेश जशवंतराव भागकर भरतपुर आ गए थे। जाट राजा रणजीत सिंह ने उन्हें वचन दिया था कि आपको बचाने के लिये हम सब कुछ कुर्बान कर देंगे। अंग्रेजों की सेना के कमांडर इन चीफ लार्ड लेक ने भरतपुर के जाट राजा रणजीत सिंह को खबर भेजी कि या तो वह जसवंतराव होल्कर अंग्रेजों के हवाले कर दे अन्यथा वह खुद को मौत के हवाले समझे। यह धमकी जाट राजा के स्वभाव के सर्वथा खिलाफ थी। जाट राजा अपनी आन–बान और शान के लिये मशहूर रहे हैं। जाट राजा रणजीत सिंह का खून खौल उठा और उन्होंने लार्ड लेक को संदेश भिजवाया कि वह अपने हौंसले आजामा ले। हमने लड़ना सीखा है, झुकना नहीं। अंग्रेजी सेना के कमांडर लार्ड लेक को यह बहुत
बुरा लगा और उसने तत्काल भारी सेना लेकर भरतपुर पर आक्रमण कर दिया।

जाट सेनाएँ निर्भिकता से डटी रहीं। अंग्रेजी सेना तोप से गोले उगलती जा रही थी और वह गोले भरतपुर की मिट्टी के उस किले के पेट में समाते जा रहे थे। तोप के गोलों के घमासान हमले के बाद भी जब भरतपुर का किला ज्यों का त्यों डटा रहा तो अंग्रेजी सेना में आश्चर्य और सनसनी फैल गयी। लार्ड लेक स्वयं विस्मित हो कर इस किले की अद्भुत क्षमता को देखते और आँकते रहे। संधि का संदेश फिर दोहराया गया और राजा रणजीत सिंह ने अंग्रेजी सेना को एक बार फिर ललकार दिया। अंग्रेजों की फौज को लगातार रसद और गोला बारूद आते जा रहे थे और वह अपना आक्रमण निरंतर जारी रखती रही। परन्तु वाह रे! भरतपुर के किले, और जाट सेनाएँ, जो अडिग होकर अंग्रेजों के हमलों को झेलती रही और मुस्कुराती रही। इतिहासकारों का कहना है कि लार्ड लेक के नेतृत्व में अंग्रेजी सेनाओं ने १३ बार इस किले में हमला किया और हमेशा उसे मुँह की खानी पड़ी। अँग्रेजी सेनाओं को वापस लौटना पड़ा।

भरतपुर का किला यद्यपि इतना विशाल नहीं है, जितना कि चित्तौड़ का किला, परन्तु भरतपुर का किला अजेय माना जाता है। यह इतनी कारीगरी से बनाया गया है कि आसानी से इसे जीता नहीं जा सकता। किले के चारों ओर मिट्टी के गारे की मोटी दीवार है और इसके बाहर पानी से भरी हुई खाई है। दुश्मन की तोप से निकले हुए गोले गारे की दीवार में धस जाते और उनकी आग शांत हो जाती। ऐसी असंख्य गोलों को अपनी उदर में समा लेने वाले इस किले की पत्थर की दीवार ज्यों की त्यों सुरक्षित बनी रही है और इसीलिये दुश्मन इस किले में कभी अंदर नहीं घुस पाया। अंग्रेजों की सेना जब हताश हो कर बाहर भाग गई, तब महाराजा रणजीत सिंह ने होल्कर नरेश को बिदाई दी। होल्कर नरेश ने रुँधे गले से कहा कि होल्कर भरतपुर का सदा कृतज्ञ रहेगा, हमारी यह मित्रता अमर रहेगी और इस मित्रता का चश्मदीद गवाह रहेगा, भरतपुर का ऐतिहासिक किला, जिसमें रक्षा करने वाले ८ भाग हैं और अनेक बुर्ज भी। इस किले के दोनों दरवाजों को जाट महाराज जवाहर सिंह दिल्ली से लाए थे।

भरतपुर का ऐतिहासिक नगर महाराजा सूरजमल सिंह ने १८वी शताब्दी में बसाया था। किवदंती हैं कि भगवान राम के छोटे भाई भरत के नाम पर इस नगर का नाम "भरतपुर" पड़ा, परन्तु इतिहासकारों का कहना यह है कि यहाँ की जमीन बहुत नीची थी और उस पर मिट्टी का भरत भरा गया था, इसी कारण इसका नाम "भरतपुर" पड़ा। किले के एक कोने पर जवाहर बुर्ज है, जिसे जाट महाराज द्वारा दिल्ली पर किये गए हमले और उसकी विजय की स्मारक स्वरूप सन् १७६५ में बनाया गया था। दूसरे कोने पर एक बुर्ज है –– फतह बुर्ज जो सन् १८०५ में अंग्रेजी के सेना के छक्के छुड़ाने और परास्त करने की यादगार है।

भरतपुर नगर राजस्थान का पूर्वी सिंहद्वार कहलाता है, क्योंकि पूर्व दिशा में यहीं से राजस्थान में प्रवेश किया जाता है। राजस्थान का इतिहास जितना वैभव और गौरवशाली रहा है, उतना ही गौरवशाली माना जाता है "भरतपुर का ऐतिहासिक किला" जो अजेय होने का कारण कहलाता है "लौहगढ़"।

भरतपुर के इस दुर्ग का महत्व यहाँ स्थित राजकीय संग्रहालय के कारण बढ़ जाता है। लोहागढ़ के केन्द्र में स्थित इस संग्रहालय में समीपस्थ जगहों और भरतपुर राज्य से संग्रह किये गए पुरातत्व का बहुमूल्य संकलन है। कचहरी कलाँ नाम के विशाल शाही भवन को, जो किसी समय में भरतपुर राज्य का प्रशासनिक कार्यालय था १९४४ में संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया था। बाद में दूसरी मंजिल पर स्थित कमरा खास को भी इस संग्रहालय में शामिल कर लिया गया।

स्थापत्य में प्राचीन गाँवों नोह, मल्लाह, बरेह, बयाना आदि के कुषाण काल (पहली शताब्दी) से लेकर १९वीं शती तक की मू
र्तियाँ तथा मध्यकाल में जाट राजाओं द्वारा प्रयोग किये गए अस्त्र–शस्त्र, कलाकृतियाँ, अभिलेख, जीवाश्म स्थानीय शिल्प व कला को प्रदर्शित किया गया है।

इस नगरी में कई प्रसिद्ध मंदिर है, जिसमें गंगा मंदिर, लक्ष्मण मंदिर तथा बिहारीजी का मंदिर अत्यंत लोकप्रिय और ख्यातिप्राप्त है। शहर के बीच में एक बड़ी जामा मस्जिद भी है। ये मंदिर और मस्जिद पूर्ण रूप से लाल पत्थर के बने हैं। इन मंदिरों और मस्जिद के बारे में एक अजीब कहानी प्रचलित है। बड़े–बूढ़े लोगों का कहना है कि भरतपुर रियासत में जब महाराजा किसी व्यक्ति को नौकरी पर रखते थे तो उस व्यक्ति के साथ यह शर्त रखी जाती थी कि हर महीने उसकी तनख्वाह में से १ पैसा धर्म के खाते काट लिया जाएगा। हर नौकर को यह शर्त मंजूर थी।

रियासत के हर कर्मचारी के वेतन से १ पैसा हर महीने धर्म के खाते में जमा होता था। इस धर्म के भी दो खाते थे –– हिन्दू कर्मचारियों का पैसा हिन्दू धर्म के खाते में जमा होता था और मुस्लिम कर्मचारियों का पैसा इस्लाम धर्म के खाते में इकठ्ठा किया जाता था। कर्मचारियों के मासिक कटौती से इन खातों में जो भारी रकम जमा हो गई, उसका उपयोग धार्मिक प्रतिष्ठानों के उपयोग में किया गया। हिन्दुओं के धर्म खाते से लक्ष्मण मंदिर और गंगा मंदिर बनाए गए, जबकि मुसलमानों के धर्म खाते से शहर की बीचों बीच बहुत बड़ी मस्जिद का निर्माण किया गया। भरतपुर के शासकों ने हिन्दू और मुसलमानों की सहयोग और सामंजस्य की भावना को प्रश्रय दिया। धर्म निरपेक्षता के ऐसे उदाहरण बिरले ही होंगे। कभी भरतपुर जाना हो तो मंदिर और मस्जिद को देखना न भूलें, जो पत्थर की वस्तुकला और पच्चीकारी में अद्भुत नमूने हैं।

जब भरतपुर की चर्चा होती हैं तो भरतपुर के राष्ट्रीय पक्षी स्थल केवलादेव घने की चर्चा करना भी समीचीन होगा। शहर के बाहर शहर से लगभग ५ किलोमीटर दूर पक्षियों का वह केन्द्र स्थित है, जो भारत में ही नहीं बल्कि विश्व में भी राष्ट्रीय उद्यान के रूप में जाना जाता है। वास्तव में यह स्थान घने जंगलों का स्थान है, इसलिये इसे "घना" कहते हैं। इस घने जंगल के बीच में स्थित है केवलादेव और महादेव का मंदिर जिसके कारण यह स्थान केबलादेव का घना कहलाता है। गणेश चतुर्थी और बसंत पंचमी के पर्व पर जब बच्चे स्कूल जाना शुरू करते हैं तो आज भी वे यह गीत जरूर गाते हैं –– "अब तुम चलो केवलादेव, झाड़ी में बैठे महादेव" इस घने में एक झील है, जिसको बाँधकर अजान बाँध का नाम दिया गया है। इस घने में कुछ नकली झीलें भी बनाई गई हैं, जहाँ कृत्रिम पेड़ लगाकर पक्षियों के रहने और आराम करने की व्यवस्था की गई है। दूरदराज से सैकड़ों प्रकार के पक्षी इस केन्द्र में मिलते हैं। हजारों मील लंबी यात्रा करके यह पक्षी भरतपुर के इस केन्द्र पर आते हैं।

रंग–बिरंगे और विभिन्न आकार–प्रकार के पक्षियों को देखने के लिये लाखों देशी और विदेशी पर्यटक यहाँ आते हैं। अनेक अँग्रेजी और रूसी चिड़िया तो यहाँ दिखती ही है, परन्तु बतख और जल कौआ यहाँ के विशेष आकर्षण हैं। अब इस स्थान पर शिकार करना शासन द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया है, परन्तु पहले तो यह स्थान भरतपुर के राजाओं और उनके अतिथियों के लिये शिकारगाह था। पपीहा, जलकौआ, गौरया, बुलबुल, सारस, तीतर, बटेर, बगुला, शतुरमुर्ग, बाज, गरुड़, हंस और मुर्गे यहाँ जाने–पहचाने पक्षी हैं, परन्तु इनके अलावा कुछ और पक्षी यहाँ रहते हैं, जिन्हें चकवा–चकवी के नाम से जानते हैं। प्रिन्टेड स्टार्क, ओपिन बिल स्टार, रोजी पेस्टर, वुड कॉक और बाग टेल नाम के विदेशी पक्षी भी भरतपुर के इस केन्द्र में काफी संख्या में आते हैं। इन पक्षियों की के–कें और चें–चें कलरव और उनकी गतिविधियों को देखकर सबका मन आनंदित होता है।

विश्व विख्यात पक्षी विशेषज्ञ डॉ. सालिम अली के निर्देशन में यहाँ पक्षियों के जीवन और उनकी गतिविधियों पर देशी विदेशी विद्वानों द्वारा अध्ययन करने हेतु एक विशेष संस्थान की स्थापना की गई थी, जो आज भी कार्यरत है। अनेक वैज्ञानिक इन तथ्यों का अध्ययन करते हैं कि कोई पक्षी कितनी लंबी दूरी की यात्रा करते समय किस–किस जलवायु से होकर गुजरता है और विभिन्न जलवायु का उन पर क्या प्रभाव पड़ता है? पक्षियों को पकड़ कर उनके गले में एक छल्ला डालते हैं, जिस पर एक क्रमांक अंकित होता है, जिसके अनुसार यह अंकित किया जाता है कि अमुक क्रमांक के छल्ले वाला पक्षी भरतपुर में किस रंग का, कितने वजन का तथा कितना लंबा–चौड़ा था? और जब वह पक्षी कहीं दूर विदेश में पकड़ा जाता है तब उसका अध्ययन किया जाता है कि कितनी यात्रा करने के पश्चात् उसके आकार, प्रकार और स्वाभाव में कितना अंतर आया है। यह अध्ययन अनेक वैज्ञानिकों को सूक्ष्म परीक्षण और अन्वेषण करने में सहायक होता है।

२४ जनवरी २००३

 
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