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पर्यटन

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पातालकोट-धरती पर एक अजूबा

गोवर्धन यादव


छिंदवाड़ा ज़िले में स्थित पातालकोट क्षेत्र प्राकृतिक संरचना का एक अजूबा है. सतपुड़ा पर्वत श्रेणियों की गोद में बसा यह क्षेत्र भूमि से एक हज़ार से 1700 फुट तक गहराई में बसा हुआ है. इस क्षेत्र में 40 से ज़्यादा मार्ग लोगों की पहुँच से दुर्लभ हैं और वर्षा के मौसम में यह क्षेत्र दुनिया से कट जाता है।

गगनचुंबी इमारतों, सडकों पर फ़र्राटे भरती रंग-बिरंगी-चमचमाती लक्जरी कारों, मोटरगाड़ियों और न जाने कितने ही कल-कारखानों, पलक झपकते ही आसमान में उड़जाने वाले वायुयानों, समुद्र की गहराइयों में तैरती पनडुब्बियों, बड़े-बड़े स्टीमरों-जहाजों आदि को देख कर किसी के मन में तनिक भी कौतुहल नहीं होता। होना भी नहीं चाहिये, क्योंकि हम उन्हें रोज देख रहे होते हैं, उनमे सफ़र कर रहे होते हैं। यदि आपसे यह कहा जाय कि इस धरती ने नीचे भी यदि कोई मानव बस्ती है, जहाँ के आदिवासीजन हजारों-हजार साल से अपनी आदिम संस्कृति और रीत-रिवाज को लेकर जी रह रहे हैं, जहाँ चारों ओर बीहड जंगल हैं, जहाँ आवागमन के कोई साधन नहीं हैं, जहाँ विषैले जीव जन्तु, हिंसक पशु खुले रुप में विचरण कर रहे हैं, जहाँ दोपहर होने पर ही सूरज की किरणें अंदर झाँक पाती हैं, जहाँ हमेशा धुंध सी छाई रहती है, चरती भैंसों को देखने पर ऐसा प्रतीत है, जैसे कोई काला सा धब्बा चलता-फिरता दिखाई देता हो, सच मानिए ऐसी जगह पर मानव-बस्ती का होना एक गहरा आश्चर्य पैदा करता है।
 
जी हाँ, भारत का हृदय कहलाने वाले मध्यप्रदेश के छिन्दवाड़ा जिले से 62 किमी। तथा तामिया विकास खंड से महज 23 किमी. की दूरी पर स्थित “पातालकोट” को देखकर ऊपर लिखी सारी बातें देखी जा सकती है। समुद्र सतह से 3250 फुट ऊँचाई पर तथा भूतल से 1000 से 1700 फुट गराई में यह कोट यानि “पातालकोट” स्थित है। हमारे पुरा आख्यानों में “पातालकोट” का जिक्र बार-बार आया है।”पाताल” कहते ही हमारे मस्तिष्क-पटल पर, एक दृष्य तेजी से उभरता है। लंका नरेश रावण का एक भाई, जिसे अहिरावण के नाम से जाना जाता था, के बारे में पढ़ चुके हैं कि वह पाताल में रहता था। राम-रावण युद्ध के समय उसने राम और लक्ष्मण को सोता हुआ उठाकर पाताललोक ले गया था, और उनकी बलि चढाना चाहता था, ताकि युद्ध हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो जाए। इस बात का पता जैसे ही वीर हनुमान को लगता है वे पाताललोक जा पहुँचते हैं। दोनों के बीच भयंकर युद्ध होता है और अहिरावण मारा जाता है। उसके मारे जाने पर हनुमान उन्हें पुनः युद्धभूमि पर ले आते हैं।

पाताल अर्थात अनन्त गहराई वाला स्थान। वैसे तो हमारे धरती के नीचे सात तलों की कल्पना की गई है-अतल, वितल, सतल, रसातल, तलातल, महातल तथा महातल के नीचे पाताल। शब्दकोश में कोट के भी कई अर्थ मिलते हैं- जैसे- दुर्ग, गढ़, प्राचीर, रंगमहल और अँग्रेजी ढँग का एक लिबास जिसे हम कोट कहते है। यहाँ कोट का अर्थ है- चट्टानी दीवारों, दीवारे भी इतनी ऊँची, कि आदमी का दर्प चूर-चूर हो जाए। कोट का एक अर्थ होता है-कनात। यदि आप पहाडी की तलहटी में खड़े हैं, तो लगता है जैसे कनातें से घिर गए हैं। कनात की मुड़ेर पर उगे पेड-पौधे, हवा मे हिचकोले खाती डालियाँ... हाथ हिला-हिला कर कहती हैं कि हम कितने ऊपर है। यह कनात कहीं-कहीं एक हजार दो सौ फुट, कहीं एक हजार सात सौ पचास फुट, तो कहीं खाइयों के अंतस्थल से तीन हजार सात सौ फुट ऊँची है। उत्तर-पूर्व में बहती नदी की ओर यह कनात नीची होती चली जाती है। कभी-कभी तो यह गाय के खुर की आकृति में दिखाई देती है।

पातालकोट का अंतःक्षेत्र शिखरों और वादियों से आवृत है। पातालकोट में, प्रकृति के इन उपादानों ने, इसे अद्वितीय बना दिया है। दक्षिण में पर्वतीय शिखर इतने ऊँचे होते चले गए हैं कि इनकी ऊँचाई उत्तर-पश्चिम में फैलकर इसकी सीमा बन जाती है। दूसरी ओर घाटियाँ इतनी नीची होती चली गई है कि उसमें झाँककर देखना मुश्किल होता है। यहाँ का अद्भुत नजारा देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो शिखरों और वादियों के बीच होड़ सी लग गई हो। कौन कितने गौरव के साथ ऊँचा हो जाता है और कौन कितनी विनम्रता के साथ झुकता चला जाता है। इस बात के साक्षी हैं यहाँ पर उगे पेड़-पौधे,जो तलहटियों के गर्भ से, शिखरों की फ़ुनगियों तक बिना किसी भेदभाव के फैले हुए हैं। पातालकोट की झुकी हुई चट्टानों से निरंतर पानी का रिसाव होता रहता है। यह पानी रिसता हुआ ऊँचे-ऊँचे आम के वृक्षों के माथे पर टपकता है और फिर छितरते हुए बूँदों के रुप में खोह के आँगन में गिरता रहता है। बारहमासी बरसात में भीगकर तन और मन पुलकित हो उठते है।

अपने इष्ट, देवों के देव महादेव, इनके आराध्य देव हैं। इनके अलावा और भी कई देव हैं जैसे-मढुआदेव, हरदुललाला, पघिर, ग्रामदेवी, खेडापति, भंसासर, चंडीमाई, खेडामाई, घुरलापाट, भीमसेनी, जोगनी, बाघदेवी, मेठोदेवी आदि को पूजते हुए अपनी आस्था की लौ जलाए रहते हैं, वहीं अपनी आदिम संस्कृति, परम्पराओं, संस्कृति, रीत-रिवाजों, तीज-त्योहारों मे गहरी आस्था लिए शान से अपना जीवन यापन करते हैं। ऐसा नहीं है कि यहाँ अभाव नहीं है। अभाव ही अभाव है, लेकिन वे अपना रोना लेकर किसी के पास नहीं जाते और न ही किसी से शिकवा-शिकायत ही करते हैं। बित्ते भर पेट के गढ्ढे को भरने के लिए वनोपज ही इनका मुख्य आधार होता है। पारंपरिक खेती कर ये कोदो- कुटकी, -बाजरा उगा लेते हैं। महुआ इनका प्रिय भोजन है। महुआ के सीजन में ये उसे बीनकर सुखाकर रख लेते हैं और इसकी बनी रोटी बड़े चाव से खाते हैं। महुआ से बनी शराब इन्हें जंगल में टिके रहने का जज्बा बनाए रखती है। यदि बीमार पड गए तो तो भुमका-पड़िहार ही इनका डाक्टर होता है। यादि कोई बाहरी बाधा है तो गंडा-ताबीज बाँधकर इलाज हो जाता है।

शहरी चकाचौंध से कोसों दूर आज भी वे सादगी के साथ जीवन यापन करते हैं। कमर के इर्द-गिर्द कपडा लपेटे, सिर पर फड़िया बाँधे, हाथ में कुल्हाड़ी अथवा दराती लिए। होठों पर मंद-मंद मुस्कान ओढे ये आज भी देखे जा सकते हैं। विकास के नाम पर करोड़ों-अरबों का खर्चा किया गया, वह रकम कहाँ से आकर , चली जाती है, इन्हें पता नहीं चलता और न ही ये किसी के पास शिकायत-शिकवा लेकर जाते हैं। विकास के नाम पर केवल कोट में उतरने के लिए सीढ़ियों बना दी गयी है, लेकिन आज भी ये इसका उपयोग न करते हुए अपने बने–बनाए रास्ते-पगडंडियों पर चलते नजर आते हैं। सीढ़ियों पर चलते हुए आप थोडी दूर ही जा पाएँगे, लेकिन ये अपने तरीके से चलते हुए सैकड़ों फुट नीचे उतर जाते हैं। हाट-बाजार के दिन ही ये ऊपर आते हैं और इकठ्ठा किया गया वनोपज बेचकर, मिट्टी का तेल तथा नमक आदि लेना नहीं भूलते। जो चीजें जंगल में पैदा नहीं होती, यही उनकी न्यूनतम आवश्यकता है। एक खोज के अनुसार पातालकोट की तलहटी में करीब 20 गाँव साँस लेते थे, लेकिन प्राकृतक प्रकोप के चलते वर्तमान समय में अब केवल 12 गाँव ही शेष बचे हैं। एक गाँव में 4-5 अथवा सात-आठ से ज्यादा घर नहीं होते। जिन बारह गाँव में ये रहते हैं, उनके नाम इस प्रकार है-रातेड, चमटीपुर, गुंजाडोंगरी, सहरा, पचगोल, हरकिछार, सूखाभांड, घुरनीमालनी, झिरनपलानी, गैलडुब्बा, घटनलिंग, गुढीछातरी तथा घाना। सभी गाँव के नाम संस्कृति से जुड़े-बसे हैं। भारियाओ के शबदकोष में इनके अर्थ धरातलीय संरचना, सामाजिक प्रतिष्ठा, उत्पादन विशिष्टता इत्यादि को अपनी संपूर्णता में समेटे हुए है।

ये आदिवासीजन अपने रहने के लिए मिट्टी तथा घास-फूस की झोपड़ियाँ बनाते है। दिवारों पर खड़िया तथा गेरू से पतीक चिह्न उकेरे जाते हैं। हॉसिया-कुल्हाडी तथा लाठी इनके पारंपरिक औजार है। ये मिट्टी के बतधनों का ही उपयोग करते हैं। ये अपनी धरती को माँ का दर्जा देते हैं। अतः उसके सीने में हल नहीं चलाते। बीज को छिड़ककर ही फसल उगाई जाती है...वनोपज ही उनके जीवन का मुख्य आधार होता है। पातालकोट में उतरने के और चढ़ने के लिए कई रास्ते हैं। रातेड-नचमटीपुर और कारेआम के रास्ते ठीक हैं। रातेड का मागध सबसे सरल मागध है, जहाँ आसानी से पहुँचा जा सकता है। फिर भी सँभलकर चलना होता है। जरा-सी भी लापरवाही किसी बड़ी दुर्धटना को आमंत्रित कर सकती है। पातालकोट के दर्शनीय स्थल में, रातेड, कारेआम, नचमटीपुर, दूधी तथा गायनी नदी का उद्गम स्थल और राजाखोह प्रमुख है। आम के झुरमुट, पर्यटकों का मन मोह लेते हैं। आम के झुरमुट में शोर मचाता- कलकल के स्वर निनादित कर बहता सुन्हदर सा झरना, कारेआम का खास आकर्षण है।

रातेड के ऊपरी हिस्से से कारेआम को देखने पर यह ऊँट की कूबड सा दिखाई देता है। राजाखोह पातालकोट का सबसे आकर्षक और दर्शनीय स्थल है। विशाल कटोरे में स्थित, एक विशाल चट्टान के नीचे 100 फुट लंबी तथा 25 फुट चौडी कोत (गुफ़ा) में कम से कम दो सौ लोग आराम से बैठ सकते हैं। विशाल कोटरनुमा चट्टान, बड़े-बड़े गगनचुंबी आम-बरगद के पेड़ों, जंगली लताओं तथा जडी-बूटियों से यह ढँकी हुई है। कल-कल के स्वर निनादित कर बहते झरनों, गायनी नदी का बहता निर्मल, शीतल जल, पक्षियों की चहचाहट, हर्र-बहेडा-आँवला, आचार-ककई एवं छायादार तथा फलदार वृक्षों की सघनता, धुंध और हरीतिमा के बीच धूप-छाँव की आँख मिचौनी, राजाखोह की सुंदरता में चार चाँद लगा देते है, और उसे एक पर्यटन स्थल विशेष का दर्जा दिलाते हैं।

नागपुर के राजा रघुजी ने अँगरेजों की दमनकारी नीतियों से तंग आकर मोर्चा खोल दिया था, लेकिन विपरीत परिस्थितियाँ देखकर उन्होंने इस गुफ़ा को अपनी शरण-स्थली बनाया था, तभी से इस खोह का नाम “राजाखोह” पडा। राजाखोह के समीप गायनी नदी अपने पूरे वेग के साथ चट्टानों को काटती हुई बहती है। नदी के शीतल तथा निर्मल जल में स्नान कर व तैरकर सैलानी अपनी थकान भूल जाते हैं। पातालकोट का जलप्रवाह उत्तर से पूर्व की ओर चलता है। पतालकोट की जीवन-रेखा दूधी नदी है, जो रातेड नामक गाँव के दक्षिणी पहाड़ों से निकलकर घाटी में बहती हुई उत्तर दिशा की ओर प्रवाहित होती हुई पुनः पूर्व की ओर मुड़ जाती है। तहसील की सीमा से सटकर कुछ दूर तक बहने के, पुनः उत्तर की ओर बहने लगती है और अंत में नरनसोहपुर जिले में मिधदा नदी में मिल जाती है।

पातालकोट का आदिम- सौंदर्य जो भी एक बार देख लेता है, वह उसे जीवन पर्यंत नहीं भूल सकता। पातालकोट में रहने वाली जनजाति की मानवीय धड़कनों का अपना एक अद्भुत संसार है, जो उनकी आदिम परंपराओ, संस्कृति, सांस्कृतिक-रिवाज, खान-पान, नृत्य-संगीत में निहित है। यह सामान्यजनों के क्रियाकलापों से मेल नहीं खाते। आज भी वे उसी निश्छलता, सरलता तथा सादगी में जी रहे हैं।

यहाँ प्राकृतिक दृश्यों की भरमार है। यहाँ की मिट्टी में एक जादुई खुशबू है, पेड़-पौधों के अपने निराले अंदाज है, नदी-नालों में निबार्ध उमंग है, पशु-पक्षियों मे आनंदिता है, खेत- खलिहानों मे श्रम का संगीत है, चारो तरफ़ सुगंध ही सुगंध है, ऐसे मनभावन वातावरण में दुख भला कहाँ सालता है?कठिन से कठिन परिस्थितियाँ भी यहाँ आकर नतमस्तक हो जाती है सूरज के प्रकाश में नहाता-पुनर्नवा होता- खिलखिलाता-मुस्कुराता- खुशी से झूमता- हवा के संग हिचकोले खाता- जंगली जानवरों की गर्जना में काँपता- कभी अनमना तो कभी झूमकर नाचता जंगल, खूबसूरत पेड़-पौधे, रंग-बिरंगे फूलों से लदी-फ़दी डालियाँ, शीतलता और मंद हास बिखेरते, कलकल के गीत सुनाते, आकर्षक झरने, नदी का किसी रूपसी की तरह इठलाकर- बल खाकर, मचलकर चलना देखकर, भला कौन मोहित नहीं होगा ?

 जैसे–जैसे साँझ गहराने लगती है, और अन्धकार अपने पैर फैलाने लगता है, तब अन्धकार में डूबे वृक्ष किसी दैत्य की तरह नजर आने लगते है और वह अपने जंगलीपन पर उतर आते हैं। हिंसक पशु-पक्षी अप्नी-अपनी माँद से निकल पडते हैं, अपने शिकार की तलाश में। सूरज की रौशनी में, कभी नीले तो कभी काले कलूटे दिखने वाले, अनोखी छटा बिखेरते पहाड़ों की शृंखला, किसी विशालकाय राक्षस से कम दिखलाई नहीं पड़ती। खूबसूरत जंगल, जो अब से ठीक पहले, हमे अपने सम्मोहन में समेट रहा होता था, अब डरावना दिखलाई देने लगता है। एक अज्ञातभय, मन के किसी कोने में आकर सिमट जाता है। इस बदलते परिवेश में पर्यटक, वहाँ रात गुजारने की बजाय, अपने-अपने होटलों में आकर दुबकने लगता है, जबकि जंगल में रहने वाली जनजाति के लोग, बेखौफ़ अपनी झोपड़ियों में रात काटते हैं। वे अपने जंगल का, जंगली जानवरों का साथ छोड़कर नही भागते। जंगल से बाहर निकलने की वह सपने में भी सोच नहीं बना पाते। “जीना यहाँ-मरना यहाँ” की तर्ज पर ये जनजातियाँ बड़े सुकून के साथ अलमस्त होकर अपने जंगल से खूबसूरत रिश्ते की डोर से बाँधे रहते हैं।

अपनी माटी के प्रति अनन्य लगाव, और उनके अटूट प्रेम को देखकर एक सूक्ति याद हो आती है-” जननी-जन्मभूमिश्च स्वर्गादपिगरीयसी।”  जननी और जन्म भूमि स्वर्ग से भी महान होती है” इस बात को फलितार्थ और चरितार्थ होते हुए यहाँ देखा जा सकता है। यदि इस अर्थ की गहराइयों तक कोई पहुँच पाया है, तो वह यहाँ का वह आदिवासी है, जिसे हम केवल जंगली कहकर इतिश्री कर लेते है। लेकिन सही मायने में वह “धरतीपुत्र” है, जो आज भी उपेक्षित है।

 

१ अक्तूबर २०१२

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