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पर्यटन

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अजगैबीनाथ मंदिर और
बैद्यनाथ यात्रा
- सुबोध कुमार नन्दन


भागलपुर से २६ किलोमीटर पश्चिम सुल्तानगंज में उत्तरायणी गंगा के मघ्य ग्रेनटिक पत्थर की विशाल चट्टान पर अजगैबीनाथ महादेव का मंदिर अवस्थित है। यह दूर से देखने पर काफी आकर्षक लगता है। बाढ़ के दिनों में पानी में तैरते हुए एक जहाज के सदृश्य मालूम पड़ता है। मंदिर के पहाड़ में उत्कृष्ट आकृतियाँ हैं। सावन महीने में यहाँ देश-विदेश से लाखों की संख्या में लोग यहाँ आते हैं। ये शिव भक्त यहाँ से जल लेकर देवघर (बैद्यनाथ धाम) जल चढ़ाने काँवर लेकर १०५ किलोमीटर की पदयात्रा शुरू करते हैं।

आनंद रामायण के अनुसार इस प्राचीन पहाड़ी पर पहले ‘विल्वेश्वर महादेव’ का पवित्र धाम था। अयोध्या के राजा राम अपने राज्याभिषेक के बाद अपनी धर्म पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण सहित पुष्पक विमान से तीर्थाटन करने यहाँ पहुँचे थे। इतिहासकारों की मानें तो संभवतः बौद्ध धर्म के उत्कर्ष काल में बिल्वेश्वर शिवलिंग का अस्तित्व समाप्त हो गया।

मंदिर के पूर्व मुरली पहाड़ पर एक प्राचीन मस्जिद है। मुरली पहाड़ी भी पौराणिक स्थल है। यहाँ बौद्ध तथा ब्राह्मण कलाएँ उत्कीर्ण हैं। पहाड़ी पर ध्यानस्थ मुद्रा में भगवान बुद्ध की लगभग सात फीट ऊँची प्रस्तर प्रतिमा है। इसके अलावा कई हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। जहाँ मंदिर से हर-हर महादेव और मस्जिद से अजान की आवाज टकराती है तो एक अजीब सी कशिश पैदा होती है। यहाँ की सामाजिक समरसता देखते बनती है। इस तरह का संयोग कम ही देखने को मिलता है।

कहा जाता है कि प्राचीन काल में इसी स्थान पर महर्षि जह्नु ने आश्रम बनाया था। उन्हीं के नाम पर इस पहाड़ी का नाम जुहुगिरि पड़ा। कालांतर में यह ‘जहाँगीरा’ कहलाने लगा। संत महात्माओं का तो यह आराधना स्थल बन गया। आज भी यहाँ हमेशा साधु-संतों का जमघट लगा रहता है। विदेशी पर्यटक इस पहाड़ी को ‘जहाँगीर रॉक ’ कहकर पुकारने लगे।

इस प्राचीन मंदिर के निर्माण साँधी कुछ दंतकथाएँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि लगभग चार सौ वर्ष पूर्व सुल्तानगंज में हरिनाथ भारती और केदार भारती नामक दो संन्यासी रहते थे। दोनों गुरुभाई थे। महात्मा हरिनाथ भारती प्रतिदिन गंगा स्नान कर वैद्यनाथ की पूजा-अर्चना करने देवघर जाते थे।

एक दिन गंगा जल लेकर जा वे सुल्तानगंज से देवघर चले तो रास्ते में एक ब्राह्मण से मुलाकात हुई। संन्यासी के हाथ में जल देखकर प्यासे ब्राह्मण ने जल पिला देने का अनुरोध किया। संन्यासी प्यासे ब्राह्मण के अनुरोध से द्रवित हो गए और ज्यों ही जल पिलाने को तैयार हुए कि शिव स्वयं प्रकट हो गए और बोले, मैं तुम्हारे मृगचर्म के नीचे शिवलिंग के रूप में मिलूँगा। और, भक्तों के लिए भगवान शिव खुद सुल्तानगंज उत्तरवाहिनी गंगा के पास आ गए। जहाँ आए, वहीं पर अजगैबीनाथ का मंदिर बना। हरिनाथ इसके पहले महंत बने। शिवलिंग प्रकट हुआ और जल लेकर देवघर जाने से पहले काँवरियों के लिए अजगैबीनाथ शिवलिंग की पूजा-अर्चना एक महत्वपूर्ण विधान बन गया। यही कारण है कि हर काँवरिया बैद्यनाथ पर जल चढ़ाने के लिए जल सुल्तानगंज के अगजगैबीनाथ मंदिर के पास ही बह रही गंगा से लेते हैं और उसके बाद चल पड़ते हैं बाबा धाम की ओर। अतः यह स्थान काशी की तरह पवित्र और आराधना के योग्य है।

एक कथा के अनुसार आदि काल में मंदिर के कोई महंत अजगैबीनाथ मंदिर से देवघर मंदिर को जोड़ने वाले भूगर्भीय मार्ग (भूतल) से प्रतिदिन जल चढ़ाने आया करते थे। उस रास्ते का पता लगाने की कोशिश आधुनिक इंजीनियरों ने बहुत प्रयास की, लेकिन सफल नहीं हो सके। भूगर्भीय मार्ग का मंदिर के पास ही खुलने वाला दरवाजा आज भी मौजूद है। कालक्रम में इस मंदिर की उत्कीर्ण नक्काशियों का अदभुत सौंदर्य हमारा ध्यान सबसे पहले चौथी सदी की ओर ले जाता है। इनमें प्रमुख है शेषशय्या पर विश्राम की मुद्रा में भगवान विष्णु। पुरातत्वेत्ताओं की नजर में यह अतिविशिष्ट कोटि की कला है। अन्य उत्कीर्ण आकृतियों में गंगा माँ जाह्नवी ऋषि की आकृतियाँ भी अति विशिष्ट हैं।

एक किंवदंती के अनुसार भगीरथ अपनी तपस्या के बल पर गंगा को इस धरती पर लाए। भगीरथ के रथ के पीछे दौड़ती गंगा सुल्तानगंज पहुँची तो पहाड़ी पर स्थित जह्नु मुनी के आश्रम को बहाकर ले जाने पर अड़ गई। इससे मुनि क्रोधित हो गए और अपने तपो बल से गंगा को चुल्लू में उठाकर पी गए। अंततः भगीरथ के बहुत आग्रह करने पर मुनि कुछ नरम पड़े और अपनी जंघा चीरकर गंगा को बाहर निकाल दिया। मुनि के जंघा से प्रकट होने से गंगा का एक नाम ‘जाह्नवी’ भी पड़ा।

उत्तरवाहिनी गंगा और इस पहाड़ी के कारण सुल्तानगंज इतना आकर्षक प्रतीत हुआ कि यहाँ बौद्धों ने भी प्राचीन काल में स्तूप बनवाए। इस तरह सुल्तानगंज कभी बौद्धों का तीर्थ स्थान रहा है। अजगैबीनाथ पहाड़ी पर अनेक हिन्दू देवी-देवताओं की प्रस्तर प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं। ईंट के बने प्राचीन मंदिर के भग्नावशेष, शिवलिंग और शिलालेख भी मिले हैं।

यह पहाड़ी वास्तव में निराली है। इसके दर्शन के लिए कुछ साल पहले तक यात्रियों को नाव का सहारा लेना पड़ता था लेकिन अब एक छोटी सी पुलिया बना दी गई है। यह स्थान न केवल पूरे सावन-भादों माह में देशी-विदेशी यात्रियों और श्रद्धालुओं से गुलजार रहता है, बल्कि हर पूर्णिमा, संक्राति आदि के अवसर पर भी शिव भक्तों का हुजूम लगा रहता है।

 

 १ सितंबर २०१५

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