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पर्यटन

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  माँझीवन का सौंदर्य
- प्रो. हरिमोहन
 


मध्य हिमालय सैलानियों के लिए स्वर्ग है और मध्य हिमालय की गोद में बसा गढ़वाल अपने तीर्थों के कारण यों भी दूसरा स्वर्ग कहा जाता है। अनेक अनुपम सौंदर्यपूर्ण पर्यटक स्थल, हिमाच्छादित पर्वत-श्रृंखलाएँ, हरीतिमा और फूलों से भरे आँगन सैलानियों को सदैव आमंत्रित करते रहते हैं। इसी प्राकृतिक परिवेश में खूबसूरत तस्वीर-सा जड़ा एक नया पर्यटक स्थल धीरे-धीरे अपनी पहचान बनाकर उभरा है, जिसका नाम है- ‘माँझीवन’। ‘माँझी’ यानि मध्य और ‘वन’- हरे-भरे मुलायम घास वाले चारागाह (बुग्याल) एवं सघन जंगलवाला इलाका। गढ़वाल तथा हिमालय प्रदेश की सीमा के बीच में होने से ही यह ‘माँझी’ है।

दुर्योधन के मंदिरों का क्षेत्र-

‘हर की दून’ पर्यटन के नक्शे पर है। माँझीवन इसी के निकट है। ‘हर की दून’ प्रायः उत्साही सैलानियों, विशेष रूप से पथारोहियों (ट्रेकर्स) के लिए परिचित हो चुकी है। माँझीवन और हर की दून के लिए यात्रा-पथ एक ही है। आप सबसे पहले देहरादून पहुँचें। देहरादून से १४६ कि.मी. पुरोला। वहाँ से मोरी, नैटवाड़ होकर साँकरी ५२ कि.मी.। बस यहीं तक सड़क मार्ग है। यों तो साँकरी से कुछ आगे पंचगाई घाटी में जखोल गाँव तक भी सड़क बन चुकी है, लेकिन अभी तक वाहन नहीं चल रहे थे, जब हम गये तो यही माना जाए कि आप सुविधापूर्वक देहरादून से साँकरी तक लगभग २०० कि.मी. की यात्रा अपने वाहन अथवा बस से कर सकते हैं।

कौरव पाँडव का कसबा-

दुर्योधन मंदिरअगस्त का महीना था। बीच-बीच में हल्की-भारी वर्षा हो जाती, तो मौसम खुशनुमा बन जाता। लेकिन मन में भय तन जाता कि कहीं सड़क न टूट गयी हो आगे। पुरोला एक अच्छा-सा कस्बा है। यमुना घाटी से रवाँई क्षेत्र का एक समृद्ध इलाका। यहाँ के निवासी आज भी कौरव-पांडव गुटों में बँटे हैं। पंचगाई घाटी के लोग, कौरव-पक्ष के हैं और वे कौरव-कुलदीपक दुर्योधन की पूजा करते हैं। इस इलाके में दुर्योधन के अनेक मंदिर हैं। सामने फतेपर्वत के तले रूपिन घाटी है, जिसके निवासी पांडव-पूजक हैं। उनका सबसे अच्छा मंदिर हनोल का महासू मंदिर है। दोनों क्षेत्रों के निवासियों में यदि कभी लड़ाई-झगड़ा हो जाता है, तो यह लड़ाई एक तरह से कौरव बनाम पांडव की लड़ाई बन जाती है।

रूपिन-सूपिन नदी के संगम पर बसा है नैटवाड़ गाँव, जहाँ ‘पोखू देवता’ का मंदिर है। यह देवता कभी नरभक्षी रहा है, और कभी इसे प्रसन्न करने के लिए नर-बलि दी जाती थी, ऐसा कहते हैं, किंतु आज यह पशु-बलि से ही मान जाता है। हम लोग नैटवाड़ गाँव से लौटकर ऊपर आये। पुनः दायीं ओर की ऊँचाई पर चढ़े। हरे-भरे धान के खेतों के बीच से निकलकर हमने छोटा-सा पथ पकड़ा, जिसने छोटे-छोटे दो-तीन गाँव पार कर उस गाँव में पहुँचा दिया, जहाँ कर्ण का मंदिर है। थोड़ी देर हम मंदिर में रुके। वैसा ही लकड़ी का बना प्राचीन मंदिर, जैसा पोखू देवता का मंदिर था। अब हम पैदल पथ से नीचे उतरते हुए लगभग १४ किमी. चलकर साँकरी आ पहुँचे और एक रैस्ट हाउस में ठहरने का प्रबंध कर लिया।

प्रातः छह बजे के आस-पास हल्का-सा नाश्ता लेकर हम माँझीवन के रास्ते पर उतर आये। प्रथम विश्राम जखोल गाँव में हुआ। इस गाँव में भी दुर्योधन का एक बड़ा मंदिर है, जो पैगोडा शैली में निर्मित है। जखोल गाँव से धारा गाँव तक एक किमी. का रास्ता पार करते ही घना जंगल शुरू हो गया था। यहाँ से २ किमी. की तीखी ढलान के उपरांत कामटी मैदान दिखायी दिया। यहाँ भी दुर्योधन का एक ऐतिहासिक मंदिर है। कामटी मैदान से पुनः ३ किमी. की खड़ी चढ़ाई तय करने के बाद फिताड़ी (ऊँचाई ८००० फुट) गाँव है। यहाँ काष्ठ निर्मित बड़े-बड़े मकान और दुर्योधन का ही एक भव्य मंदिर देखने को मिला। यहाँ के मकानों का शिल्प प्रायः हिमाचल के मकानों के शिल्प से मिलता है। यहाँ हमने थोड़ी देर विश्राम किया।

बुग्याल- हरे-भरे घास के चारागाह-

इसके बाद हम लोग डोडा घाटी में प्रवेश करने लगे। कुछ दूर चलकर इस घाटी का अंतिम गाँव मिला। इस गाँव का नाम है- लेवाड़ी (समुद्रतल से ऊँचाई १०,००० फुट)। यहाँ के निवासी ‘डंकवाण’ या ‘लेव’ कहलाते हैं और ये दुर्योधन देवता के ‘खूंद’ (रक्षक) हैं। यहाँ से पुनः पंचगाई को पारकर हम ५ किमी. चलने के बाद सुराला जंगल में आ गये। यह सघन जंगल ‘बुग्यालों’ (हरे-भरे घास के मैदानों या चारागाहों) के लिए विख्यात है। सुराला से आगे चले। कठिन-सी एक संक्षिप्त चढ़ाई के बाद हमारी यात्रा का अंतिम बिंदु भराड़सर (ताल) और माँझीवन का सौंदर्य लोक। कुमारटाधार से एक किमी. आगे हिमरेखा पर चलते हुए कुकुरडांडी चोटी (२१,००० फुट) के नीचे भराड़सर ताल (१६,१६० फुट) है, जिसकी परिधि १५०० मीटर होगी। एकदम स्वच्छ नीलाभ जल। इस इलाके के लोग इसे देवताओं का सर अथवा इंद्रपुरी कहते हैं। लोक विश्वास है कि यहाँ अनेक देवी-देवता निवास करते हैं।

बुग्याल माँझीवन-

भराड़सर ताल से आगे बढ़ने पर सुरम्य बुग्याल माँझीवन आ गया। मीलों लंबा हरा रंग जैसे कोमलता के साथ बिछा दिया गया हो। ढालू मैदान और नवयौवना-सी सितंबरी मखमली घाटी, जिसमें सैकड़ों-हजारों नन्हें-नन्हें, रंग-बिरंगे फूल अपनी निष्कलुष मुस्कान में जड़े थे। मैदान की धूल और धुएँ से बेखबर। देर तक और दूर तक हमारी दृष्टि बँधी रही, जैसे किसी जादू में बँध गयी हो। ब्रह्मकमल, फेनकमल, लेसर, जयाण, विषकंडारा और न जाने क्या-क्या तो नाम बताये मित्रों ने उन औषधीय पादपों के, जिनके दुर्लभ फूल वहाँ की हवा में अपनी सुगंध घोल रहे थे। लगा उनके रंग उनकी सुगंध की तरह ही अपूर्व हैं। अनेक प्रकार की जड़ी-बूटियाँ, जो औषधियों के रूप में हजारों वर्षों से काम आती रही हैं, इधर-उधर अपना अस्तित्व बनाये हुए थीं, जैसे- गुग्गल, जटामासी, आर्चा, सालमपंजा, सालम मिश्री, अतीस, भूतकेशी, केटकी आदि। देखकर ऐसा लगा कि इन जड़ी-बूटियों का अपार भंडार है यहाँ।

एक भेड़चारक युवक फतेसिंह हमें मिला। उसने हमें इनमें से कुछ जड़ी-बूटियों की पहचान और उनका उपयोग बताया। आश्चर्य, बलवर्द्धन से लेकर एक हफ्ते तक कुछ भी खाने की आवश्यकता नहीं ऐसी-ऐसी जड़ी-बूटियाँ वहाँ थीं। फतेसिंह ने किसी वृक्ष का बड़ा-सा पत्ता तोड़ा। उसका गिलास बनाया और हमारे सामने ही बकरी का दूध उसमें डाला। कुछ ही देर में वह दूध सुस्वाद दही बन चुका था। देर तक हम इस अद्भुत सौंदर्य के सान्निध्य में बैठे रहे, घूमते रहे, आनंदित होते रहे। लेकिन लौटना तो था ही। मायामुक्त हम कितने समय तक रह सकते हैं। स्वर्ग-लोक से जुड़े माँझीवन की स्मृतियों को लिये अपनी पुरानी दुनिया में लौट पड़े।

 

 २३ फरवरी २०१५

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