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कस्तूरी मृग

हिमवंत क्षेत्र के इस मृग का नाम 'कस्तूरी मृग' इसलिए पड़ा कि इसकी नाभी से कस्तूरी निकलती है। कस्तूरी अपनी सुगंध के लिए प्रसिद्ध है तथा दवाइयों में प्रयुक्त होती है। कस्तूरी प्राप्त करने के लिए सदियों से इसका अनियंत्रित वध हुआ है।

अन्य मृगों की भांति कस्तूरी मृग के सींग नहीं होते हैं, लेकिन प्रकृति ने उन्हें अपने बचाव के लिए सींग की जगह दो लम्बे दाँत दिए हैं। नर के ऊपरी जबड़े से दो दाँत बाहर निकले होते हैं। उसकी ऊँचाई आधा मीटर से अधिक होती है, और वह मृग की भाँति नहीं दिखता है। लम्बे समय तक वैज्ञानिक उसे मृग-वंश का नहीं मानते थे। कस्तूरी मृग का रंग भूरा और पेट तथा निचला भाग सफ़ेद होता है।


कस्तूरी मृग हिमालय में पच्चीस सौ से छत्तीस सौ मीटर की ऊँचाई पर पाया जाता है, दिन के समय वह झाड़ियों तथा चट्टानों की आड़ में विश्राम करता है, लेकिन अँधेरा होते ही भोजन की खोज में निकल पड़ता है। शीतकाल में भी वह अपना निवास-स्थान नहीं बदलता है। कस्तूरी मृग एकान्त-प्रिय पशु है। केवल भोजन के लिए विश्राम-स्थल से बाहर निकलता है।

एक समय कस्तूरी मृग हिमालय में बड़ी संख्या में पाया जाता था, लेकिन उन्नीसवीं सदी में कस्तूरी की इतनी माँग बढ़ी कि बड़ी संख्या में उसका वध हुआ। शंकित होने पर वह बड़ी-बड़ी छलांगे मारकर भागता है, लेकिन बार-बार पीछे मुड़कर देखता है। इस बुरे स्वाभाव के कारण वह सरलता से शिकारी का निशाना बन जाता है। कभी-कभी उसकी छलाँगे पन्द्रह मीटर से लेकर अठ्ठारह मीटर तक ऊँची होती हैं।

अल्प आयु भोगी मृग मादा जिसकी अवस्था केवल तीन वर्ष की होती है, एक वर्ष की उम्र से ही बच्चे देने लगती है। प्रतिवर्ष इसके एक या दो बच्चे होते हैं। यदि मृगी के दो बच्चे हों, तो वह उन्हें एक ही स्थान पर नहीं वरन अलग-अलग स्थानों पर रखती है। बच्चों के शरीर पर हिरन के बच्चों की तरह धब्बे होते हैं। ये प्राय: पहाड़ी दरारों या झाड़ियों के नीचे खड्डों में रहते हैं।

१ मई २००३


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(यह लेखमाला श्रीचरण काला की पुस्तक भारतीय वन्य पशु पर आधारित है)
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