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नाव 

— शंभुदयाल सक्सेना
१ जनवरी २००२

  नैया मेरी बड़ी मज़े की
लहरों पर झूला करती
कागज़ की वह बनी हुई है
फूलों का बोझा भरती
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गुड्डे गुड़ियों को ले जा कर
है तालाब दिखा लाती
परवा उसे न पतवारों की
बिन माझी आती जाती
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आहा कितनी हल्की वह है
जल में है डूबती नहीं
कभी किसी ने देखी है क्या
ऐसी सुन्दर नाव कहीं ?
 
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