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प्रकृति और पर्यावरण


अभावों का ऋणजल
प्रभात कुमार


अकाल में पैदो ले चार ही वंश
सासी, कुत्ता, गिद्ध और सरपंच।

लोकरचित उपरोक्त कहावत सूखे या अकाल से उत्पन्न स्थिति की भयावहता और साधनों की कमी के चलते होने वाले कलह को अच्छी तरह बयान करती है। भारतीय उपमहाद्वीप के समान दुनिया के उन हिस्सों में जहाँ जीवन की लय–ताल मौनसून की साँसों पर बजती है, वर्षा का देर से आगमन ही बहुतों के लिए अस्वाभाविक अकाल मृत्यु का कारण बनता है। भारत में काफी समय पूर्व ही चंद्रगुप्त साम्राज्य में ३१०–२९८ इ.स. पूर्व में लगातार १२ वर्षों तक सूखा पड़ने का उल्लेख कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलता है। १९१७–१८ के वर्षों में उत्तरी भारत में अनावृष्टि का इतना असर हुआ कि कश्मीर से बहनेवाली झेलम नदी ही पुरी तरह सूख गयी थी।

किसी ऐसे क्षेत्र में, जहाँ आमतौर पर वर्षा की अपेक्षा की जाती है, असामान्य रूप से कम वर्षा या वर्षा के असमान वितरण से उत्पन्न असंतुलन की स्थिति सूखा कही जाती है। यह एक जलवैज्ञानिक दुष्परिणाम तथा प्र्राकृतिक आपदा की स्थिति है जो छोटे से लेकर काफी बड़े भूभाग पर थोडे या लंबे समय के लिए हो सकती है। सभी ऐसे क्षेत्रों में, जहाँ वर्षा पर कृषि की निर्भरता है, सूखा अपनी जाल फैला सकता है, किंतु पृथ्वी पर शुष्क जलवायु क्षेत्रों से सटे भागों में सूखा पड़ने की संभावना ज्यादा होती है। उष्णकटिबंधीय भाग से बहने वाली हवाएँ स्थायी रूप से शुष्क क्षेत्र में आने पर गर्म एवं शुष्क हो जाती हैं। पछुआ पवनों के ध्रुवीय क्षेत्रों में मुड़ने पर शुष्क क्षेत्र की उच्च दाब वाली प्रतिचक्रवातीय अवस्था निम्न दाब क्षेत्र को प्रभावित करती है और सूखा पड़ने की संभावना बन जाती है। यह एक निरंतर फैलने वाली घटना है जो मुख्य रूप से वर्षा की कमी के कारण होती है, किंतु उच्च तापमान की अवस्था, तेज हवाएँ या निम्न आर्द्रता की स्थिति भी सूखे का कारक तत्व हो सकता है।

२० वीं शताब्दी में अब तक का सबसे खतरनाक सूखा सहारा मरूस्थल के दक्षिणी छोर पर अफ्रीका के साहिल क्षेत्र में पड़ा है जिसकी अवधि १५ वर्ष तक रही। पश्चिमी अफ्रीका के कई देश जैसे– मौरितानिया, माली, नाइजर, चाड, बुरकीनाफासो आदि सबसे ज्यादा प्रभावित रहे। पिछले २०० वर्षों में भारत में ४४ से अधिक बार व्यापक सूखे का असर महसूस किया जा चुका है। एक अंतर्राष्ट्रीय आपदा डाटाबेस के अनुसार पिछली शताब्दी में भारत में प्राकृतिक रूप से आई १० शीर्ष आपदाओं में ५ सूखा है जिनमें अब तक ४२.५ लाख मौतें हो चुकी है। अत्यधिक लंबे समय के लिए सूखे की स्थिति या सूखा का व्यापक रूप मरूस्थल कहलाता है। किसी भाग में २५० मिलीमीटर से कम औसत वार्षिक वर्षा या उच्च तापमान के चलते होनेवाली वाष्पीकरण की दर वर्षा की दर से ज्यादा होने पर, सूखे की स्थाई प्रवृति उस भू–भाग को रेगिस्तान में बदल देती है।

सूखे के प्रकार :–
अपनी मित्र–मंडली में बैठकर आपने कहीं सूखे का जिक्र कर दिया तो लोग तुरंत समझ बैठेंगे कि आप किसी अभाव से ग्रस्त हैं। ज्यादातर सरकारी दफ़्तरों में 'बाहरी आय' की चाह रखनेवालों के लिए सूखा का मतलब कुछ और ही होता है। वैज्ञानिकों की मंडली में जिस सूखे की चर्चा होती है आइए हमलोग उस मतलब पर चर्चा करते हैं।

मौसम विज्ञान संबंधी सूखा :

आम व्यवहार या मौसम संबधी समाचार के लिए निश्चित अवधि में होनेवाली सामान्य औसत वर्षा के प्रतिशत के आधार पर सूखे को समझा जाता है लेकिन वैज्ञानिक तौर पर सूखे को परिभाषित करने के लिए शुष्कता सूचिकांक, पाल्मर सूचिकांक या नमी उपलब्धता सूचिकांक का प्रयोग किया जाता है। मौसमविज्ञान संबंधी सूखा को किसी विशेष क्षेत्र के लिए वर्ष में होनेवाली सामान्य वर्षा से प्रतिशत कमी के रूप मे व्यक्त किया जाता है। वर्षा या तापमान के चलते एक स्थान पर होनेवाली सूखा की स्थिति दूसरे स्थान पर सामान्य भौगिलिक स्थिति हो सकती है इसलिए सूखे को स्थानिक और सामयिक तौर पर ही परिभाषित किया जाता है। किसी खास स्थान पर एक निश्चित समय सीमा के अंदर होनेवाली औसत वर्षा की संभाव्यता के आधार पर "मानकीकृत वर्षण सूचिकांक" की गणना समय के अलग–अलग पैमाने पर की जा सकती है। मा.व.सू. का मान लगातार ऋणात्मक होने तथा मान के –१.० या इससे नीचे जाने पर सूखे की स्थिति कहलाती है जबकि सूचिकांक के धनात्मक मूल्य को सूखे की स्थिति का अंत समझा जाता है। भारत मौसम विभाग सामान्य औसत के ७५ प्रतिशत या इससे कम मौनसूनी वर्षा की स्थिति को सूखे का संकेत मानता है।

कृषि संबंधी सूखा :
 
किसी स्थानीय क्षेत्र में उगनेवाले फसल या पौधे की प्रकृति के अनुसार वर्षा की कमी, भूगर्भीय जल की निम्न–अवस्था या मृदा में नमी की कमी से फसल उत्पादन पर पड़ने वाले असर को कृषि संबंधी सूखा रूप में परिभाषित किया जाता है। प्रमुख फसल उत्पादक क्षेत्र में छोटी अवधि के लिए सूखे का आकलन "शस्य नमी सूचिकांक" के द्वारा किया जाता है। इसके निर्धारण हेतु औसत साप्ताहिक वर्षा एवं तापमान तथा पिछले सप्ताह के सूचिकांक के मान का प्रयोग होता है। भारत में देश के विभिन्न कृषि जलवायु के २१० केंद्रो से प्राप्त आंकड़ो के आधार पर भारत मौसम विभाग 'शुष्कता विसंगति सूचिकांक' (Aridity Anomaly Index) की गणना कर पाक्षिक आधार पर मानचित्र तैयार करता है। रबी तथा खरीफ फसलों के लिए कुल विभव वाष्पीकरण–उत्स्वेदन ( Potential Evapo-transpiration, PET)  एवं वास्तविक वाष्पीकरण–उत्स्वेदन (Potentioal Evapo-transpiration, AET) के आधार पर सूचिकांक की गणना इस प्रकार की जाती है-


शुष्कता विसंगति सूचिकांक-

जलवैज्ञानिक सूखा :
किसी नदी बेसिन या अपवाह क्षेत्र में होने वाली वर्षण अवधि में कमी से उत्पन्न सतही या अधो–सतही जल के आपूर्ति में अंतर जलवैज्ञानिक सूखे को परिभाषित करता है। किसी समांगी क्षेत्र में जल–संतुलन समीकरण के मांग–पूर्ति की संकल्पना के आधार पर "पाल्मर सूचिकांक" की गणना की जाती है। किसी स्थान पर होनेवाली वर्षा की मात्रा, तापमान तथा मृदा में नमी की उपलब्धता के आधार पर निकाला गया पाल्मर सूखा सूचिकांक के विभिन्न मानों (–४.० से ४.० के बीच) के लिए सूखे की स्थिति को अत्यधिक सूखा से अत्यधिक आर्द्र स्थिति के बीच बाँटकर समझा जाता है। सूखे की स्थिति की निगरानी एवं राहत कार्यो को चलाने हेतु ६० के दशक में सुझाया गया पाल्मर सूचिकांक शासकों और नीति–निर्धारकों के बीच लोकप्रिय रहा है।

सामाजिक–आर्थिक सूखा :
किसी स्थान या समय पर सामाजिक या आर्थिक जरूरतों की मांग–पूर्ति के आधार पर भी सूखे को विभाजित किया जा सकता है। अन्न, जल, चारा या जलविद्युत आदि आर्थिक मदों की आपूर्ति काफी हद तक मौसम पर निर्भर है। जल या जल–आधारित संसाधनों की कमी से मानव या पशु जीवन पर पड़ने वाला प्रभाव सामाजिक–आर्थिक सूखा के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। किसी भू–भाग में जनसंख्या वृद्धि होने या प्रति व्यक्ति खपत बढ जाने पर भी सूखा के प्रति उस क्षेत्र की संवेदनशीलता बढ जाती है।

सूखे का प्रभाव :
वर्षा की कमी से उत्पन्न सूखे के कई भौगोलिक दुष्परिणाम हो सकते हैं जैसे– भूगर्भीय जल की निम्न अवस्था, फसल की बर्बादी या कम उत्पादन, कुओं एवं तालाबों का सूखना, पेयजल की समस्या, मरूस्थलीकरण में बढोत्तरी आदि। १७६९–७० तथा १८७७–७८ में पड़े भयानक सूखे के चलते भारत तथा उत्तरी चीन प्रत्येक में १ करोड़ से ज्यादा मौतें हुई थी। पिछली सदी में अकाल के चलते प्रभावित होनेवाले सबसे ज्यादा लोग भारत में है। सूखे के चलते लोगों और जानवरों पर पड़ने वाले प्रभाव की मात्रा और प्रकृति, किसी स्थान और वहाँ की सरकार तथा उसके प्रबंधन पर निर्भर है। सूखे के कारण पड़नेवाले कई मुख्य प्रभावों में से एक पेय–जल की कमी है। इसके कारण लोग गहरे कुओं के पानी को इस्तेमाल में लाते हैं इस जल में घुली फ्लोराइड की अधिक मात्रा से होनेवाली ‘स्केलटल फ्लुओरोसिस’ नामक बीमारी हो सकती है।जो स्वयं में एक और समस्या है। सूखे के दिनों में भूगर्भीय जल स्तर काफी नीचे चले जाने पर जल में घुली खनिज लवण की मात्रा अधिक सांध्रता के साथ मिलती है। जल में फ्लोराइड की मात्रा १ पीपीएम (प्रति १० लाख में १ भाग) के सुरक्षित स्तर से ऊपर होने पर फ्लुओरिस जैसी बिमारी होने की संभावना प्रबल हो जाती है। भारत के मध्य प्रदेश तथा गुजरात जैसे राज्यों में गहरे कुंओं से प्राप्त जल में फ्लोराइड की मात्रा सुरक्षित सीमा के काफी ऊपर है।

अकाल प्रबंधन :–
अन्य प्राकृतिक आपदाओं के विपरीत सूखे का आगमन किसी स्पष्ट सूचना के बिना ही होता है इसलिए भयंकरतम प्रभाव होने के बावजूद अकाल प्रबंधन शासको और चिंतकों का समुचित ध्यान आकर्षित नहीं कर पाता। स्थिति से निबटने हेतु किया जाने वाला ज्यादातर उपाय भी लंबे समय के बाद ही फलीभूत होता है। जल संकट की गहराती समस्या से निबटने के लिए कुछ समाजसेवियों और गैर सरकारी संगठनों ने काफी अच्छे प्रयास किये हैं। प्रशांत महासागर में अल–नीनो का खास अंतराल पर आगमन भी विश्व के कई भागों में सूखे का कारण रहा है इसलिए अलनीनो पर एक नज़र अकाल प्रबंधन की तैयारी का संकेत दे सकती है। अन्न का पर्याप्त भंडारण और संसाधनों का बेहतर प्रबंधन, छोटी अवधि के लिए पड़ने वाले सूखे की समस्या को हल करने में काफी सहायक हो सकता है। दूरसंवेदी उपग्रहों से प्राप्त आंकड़े तथा विज्ञान की अतिआधुनिक तकनीक का इस्तेमाल कर सूखे की स्थिति पर लगातार नज़र रखना एक जरूरत है। सूखे की स्थिति से निजात दिलाने हेतु कुछ महत्वपूर्ण उपाय निम्नलिखित है—

  •  जल–संसाधनों का यथासंभव विकास तथा जलसंचय पर जोर

  •  जलग्रहण के विभिन्न तरीकों द्वारा भूगर्भीय जल की मात्रा बढाना

  •  जलाधिक्य क्षेत्र से सूखा संभावित क्षेत्र में सतही जल का अंतर–बेसिन स्थानान्तरण

  •  जलसंचय के सभी संभावित तरीकों का समुचित विकास

  •  मृदा नमी–संरक्षण के तरीकों का अपनाया जाना

  •  वनीकरण पर ज़ोर तथा घास के मैदानों का विकास

  •  जल सतह से होनेवाले वाष्पीकरण को कम करना

मौनसून के पश्चात जल की होनेवाली कमी और शुष्कता की स्थिति का सामना करने के लिए भारत के राजस्थान और गुजरात सहित लगभग सभी राज्यों में वर्षा जल–संचय एक जरूरत है। देश के विभिन्न हिस्सों में पोखर, तालाब, साझा कुंआ, रापट, कुंई या बेरी, बावड़ी, जिंग, झाबो, दोंग जैसे जल संग्रहन और प्रबंधन के कम से कम ४५ विभिन्न तरीके प्रचलन में रहे हैं जो स्थानीय तकनीक और लोकज्ञान पर आधारित हैं। अकाल पड़ने की संभावना जान पड़ने लगे, तो इंद्र देव को खुश कर वर्षा पाने के लिए लोगों द्वारा यज्ञों, अनुष्ठानों एवं विचित्र प्रकार के रीति–रिवाज़ों को निभाने का जोर चल पड़ता है। आसमान की घटाओं को धरती पर उतारने के लिए बौद्ध भिक्षुओं द्वारा एक ओर जहाँ 'महामेघ' मंत्र का जाप तथा प्रार्थनाएँ किए जाते हैं वहीं अलीगढ में विवाहित स्त्रियों द्वारा रात्रि में कपड़े उतार कर हल जोतने की मान्यताओं को पूरा करने जैसे मामले भी प्रकाश में आते हैं। सूखे की आशंका होने पर बिहार के गाँवों में वर्षा के लिए मेढक–मेंढकी का विवाह कराया जाता है। समय–समय पर अमिताभ बच्चन जैसी हस्तियाँ भी सूखे की स्थिति से आक्रांत किसी गाँव को अपनाकर अपने महान व्यक्तित्व का परिचय दे देती है किंतु हर गाँव उतना भाग्यशाली तो नहीं!

१७७० इ.स. में बंगाल में पड़ा भयंकर अकाल की पृष्ठभूमि में ऊपजा संन्यासी विद्रोह, महान उपन्यासकार बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की कालजयी कृति ’आनंदमठ’ और वंदे–मातरम् का प्रेरणास्त्रोत रहा है। ५० के दशक में आनेवाली 'मदर इंडिया' जैसी कई अन्य मुम्बईया फिल्मों का दृश्य आपको याद होगा कि कैसे जमींदार और खलनायक अकाल के दिनों में मुठ्ठी भर दाने के लिए लोगों को तरसाता था। आज भूख से हुई एक भी मौत की खबर सुन लें तो कल्पना कीजिए उसपर कितनी प्रतिक्रियाएँ होती है। ऐसा नहीं कि आज दुनिया में अकाल से मौतें नही होती। आज भी इथियोपिया, सोमालिया या सूडान जैसे देशों में सूखे से उत्पन्न अकाल में भूख से होनेवाली मौतें होती हैं किंतु उस खबर को पढ़कर हम कितने विचलित होते हैं यह भी मायने रखता है। कितनों के लिए तो मानव जीवन को बचानेवाले मुठ्ठी भर अनाज से ज्यादा महत्व, उनके पालतू कुत्ते के डिब्बाबंद भोजन का है। सिंधु घाटी, मिस्र और माया सभ्यता के नाश एवं डायनासौर के विलुप्त होने के पीछे सूखा को सबसे प्रवल कारक समझा जाता है। कहीं ऐसा न हो कि विनाश के इस कारक तत्व के प्रति जारी संवेदनहीनता, इतिहास की गलतियाँ दुहरा जाएँ।

१६ जून २००४

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