
पीपल एक
बहूपयोगी वृक्ष
-डॉ राकेश
कुमार प्रजापति
पीपल भारत के
सबसे अधिक महत्वपूर्ण वृक्षों में से एक है। यह सौ फुट से भी
ऊँचा हो सकता है। पशु और मनुष्य इसकी छाया के नीचे विश्राम कर
सकते हैं। पीपल की आयु ९० से १०० सालों के आसपास आँकी गई है।
परन्तु यह वृक्ष विशालतम रूप धारण करके सैकड़ों वर्षों तक खड़ा
रहता है। पीपल की छाया बरगद से कम होती है। यह भारत, नेपाल,
बांग्लादेश, पाकिस्तान, म्याँमार, श्रीलंका, दक्षिण पश्चिम चीन
और इंडोनिशिया में अधिकता से पाया जाता है। भारतीय संस्कृति
में पंचवटी के पाँच वृक्षों में से एक स्थान पीपल को भी मिला
है। इसकी छाया के लिये इसे मंदिरों, धर्मशालाओं, बावडियों तथा
रास्ते के किनारों पर भी लगाया जाता है।
विभिन्न भाषाओं में नाम-
पीपल को संस्कृत में पिप्पल, अश्वत्थ प्लक्ष, हिंदी में पीपली,
पीपर और पीपल हिन्दी, तमिल में अरसु या अरसन, तेलुगु में रावी,
कन्नड़ में अरलि मारा, कोंकणी में पिंपल्ला, गुजराती में
पीप्पलो, बांग्ला में पीपुलजरी, अश्वत्थ, आशुदगाह और असवट,
पंजाबी में भोर और पीपल, पिंगल (मराठी), पिपली (नेपाल),
थजतुल-मुर्कअश (अरबी), दरख्तेलस्भंग (फारसी), सैगरेड फिग
(अंग्रेजी), बोधिवृक्ष (बोद्धध साहिव्य), सिंहली में एस्सथु
तथा थाई में फो कहते हैं।
पीपल के पत्ते-
इसके पत्ते अधिक सुन्दर, कोमल, चंचल, चिकने, चौड़े व लहरदार
किनारे वाले हृदय के आकार वाले होते हैं। वसंत ऋतु में इस पर
धानी रंग की नयी कोंपलें आने लगती है। बाद में, वह हरी और फिर
गहरी हरी हो जाती हैं। जब अन्य वृक्ष शांत हों पीपल की
पत्तियाँ तब भी हिलती रहती है। इसकी इस गतिशील प्रकृति के कारण
इसे चल वृक्ष (चलपत्र) भी कहते हैं। पीपल के पत्ते जानवरों को
चारे के रूप में खिलाये जाते हैं, विशेष रूप से हाथियों के लिए
इन्हें उत्तम चारा माना जाता है।
तना और शाखें-
इसका तना ललाई लिए हुए सफेद व चिकना होता है। इसकी छाल भूरे
रंग की होती है तने तथा शाखाओं को गोदने पर इससे सफेद गाढ़ा
दूध निकलता है। पीपल की लकड़ी ईंधन के काम आती है किंतु यह
किसी इमारती काम या फर्नीचर के लिए अनुकूल नहीं होती। बरगद और
गूलर वृक्ष की भाँति इसके पुष्प भी गुप्त रहते हैं अतः इसे
'गुह्यपुष्पक' भी कहा जाता है। अन्य क्षीरी (दूध वाले) वृक्षों
की तरह पीपल भी दीर्घायु होता है।
फल और बीज-
इसके फल बरगद-गूलर की भाँति बीजों से भरे तथा आकार में मूँगफली
के छोटे दानों जैसे होते हैं। ये गोल छोटे फल छोटी शाखाओं पर
लगते हैं। बीज राई के दाने के आधे आकार में होते हैं।
स्वास्थ्य के लिए पीपल को अति उपयोगी माना गया है। पीलिया,
रतौंधी, मलेरिया, खाँसी और दमा तथा सर्दी और सिर दर्द में पीपल
की टहनी, लकड़ी, पत्तियों, कोपलों और सीकों का प्रयोग का
उल्लेख मिलता है।
वानस्पतिक वर्गीकरण और पोषक तत्व-
पीपल का जगत-पादप, संघ-सपुष्पक, वर्ग- मैग्नोलियोप्सीडा, गण-
रोजेलेस, कुल- मोरेसी, जाति- फाइकस, प्रजाति- रिलिजियोसा और
वैज्ञानिक नाम- फाइकस रेलीजियोसा है। इसके प्रति १०० ग्राम
ताजे फलों में ७४ कैलोरी, १९ ग्राम कार्बोहाईड्रेट, १६ ग्राम
शर्करा, ३ ग्राम रेशा, ०.३ ग्राम वसा, तथा ०.८ ग्राम प्रोटीन
पाई जाती है, जबकि प्रति १०० ग्राम सूखे फलों में २४९ केलोरी,
६४ ग्राम कार्बोहाइड्रेट, ४८ ग्राम शर्करा, १० ग्राम रेशा, १
ग्राम वसा और ३ ग्राम प्रोटीन पाई जाती है।
सेंट्रल ड्रग रिसर्च इंस्टीट्यूट (सी.डी.आर.आई.) के
वैज्ञानिकों ने अपने शोध में पाया है कि पीपल का एक सामान्य
वृक्ष १८०० कि.ग्रा. प्रति घंटे की दर से आक्सीजन उत्सर्जित
करता है। पृथ्वी पर पाये जाने वाले सभी वृक्षों में पीपल को
प्राणवायु यानी ऑक्सीजन को शुद्ध करने वाले वृक्षों में
सर्वोत्तम माना जा सकता है, पीपल ही एक ऐसा वृक्ष है, जो
चौबीसों घंटे ऑक्सीजन देता है। जब कि अन्य वृक्ष रात को
कार्बन-डाइ-आक्साइड या नाइट्रोजन छोडते है।इस वृक्ष का सबसे
बड़ा उपयोग पर्यावरण प्रदूषण को दूर करने में किया जा सकता है,
क्योंकि यह प्राणवायु प्रदान कर वायु मण्डल को शुद्ध करता है
और इसी गुणवत्ता के कारण भारतीय शास्त्रों ने इस वृक्ष को
सम्मान दिया।
इतिहास मे उल्लेख-
पीपल का वृ़क्ष भारतीय इतिहास में विशेष महत्व रखता है। चाणक्य
के समय में सर्प विष के खतरे को निष्प्रभावित करने के उद्देश्य
से जगह जगह पर पीपल के पत्ते रखे जाते थे। पानी को शुद्ध करने
के लिए जलपात्रों में अथवा जलाशयों में ताजे पीपल के पत्ते
डालने की प्रथा अति प्राचीन है। कुएँ के समीप पीपल का उगना आज
भी शुभ माना जाता है। सिन्धु घाटी की खुदाई से प्राप्त
मोहन-जोदड़ो की एक मुद्रा में पीपलवासी देवता पत्तियों से घिरे
हुए हैं। मुद्रा में ऊपर पाँच मानव आकृतियाँ हैं। मोहन-जोदड़ो
की एक मुद्रा में पीपल पत्तियों के भीतर देवता हैं। हड़प्पा
कालीन सिक्कों पर भी पीपल वृक्ष की आकृति देखने को मिलती है।
भगवान बुद्ध द्वरा पीपल के वृक्ष के नीचे तप कर के ज्ञान
प्राप्त करने के कारण बौद्ध ग्रंथों में भी पीपल का विस्तृत
उल्लेख मिलता है।
वेद एवं पुराण में उल्लेख-
ऋग्वेद से लेकर समूचे उपनिषद साहित्य और गीता में भी पीपल की
प्रतिष्ठा है। स्कन्द पुराण में वर्णित है कि सरस्वती नदी के
तीर पर प्लक्ष के अनेक वृक्ष थे। इसी पुराण में कहा गया है कि
अश्वत्थ (पीपल) के मूल में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में
नारायण, पत्तों मेश्रीहरि और फलों में सभी देवताओं के साथ
अच्युत सदैव निवास करते हैं। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं-
समस्त वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूँ। स्वयं भगवान ने उससे
अपनी उपमा देकर पीपल के देवत्व और दिव्यत्वको व्यक्त किया है।
अथर्ववेदके उपवेद आयुर्वेद में पीपल के औषधीय गुणों का अनेक
असाध्यरोगों में उपयोग वर्णित है। श्रीमद्भागवत् में वर्णित है
कि द्वापरयुगमें परमधाम जाने से पूर्व योगेश्वर श्रीकृष्ण इस
दिव्यपीपल वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान में लीन हुए।
धार्मिक उपयोग-
प्रसिद्ध ग्रन्थ व्रतराज में अश्वत्थोपासना में पीपल वृक्ष की
महिमा का उल्लेख है। अश्वत्थोपनयनव्रत में महर्षि शौनक द्वारा
इसके महत्त्व का वर्णन किया गया है। यज्ञ में प्रयुक्त किए
जाने वाले 'उपभृत पात्र' (दूर्वी, स्त्रुआ आदि) पीपल-काष्ट से
ही बनाए जाते हैं। पवित्रता की दृष्टि से यज्ञ में उपयोग की
जाने वाली समिधाएँ भी आम या पीपल की ही होती हैं। यज्ञ में
अग्नि स्थापना के लिए ऋषिगण पीपल के काष्ठ और शमी की लकड़ी की
रगड़ से अग्नि प्रज्वलित किया करते थे। इस प्रकार के उल्लेख भी
मिलते हैं कि पीपल की सविधि पूजा-अर्चना करने से सम्पूर्ण
देवता स्वयं ही पूजित हो जाते हैं और पीपल का वृक्ष लगाने वाले
की वंश परम्परा कभी विनष्ट नहीं होती। पीपल की सेवा करने वाले
सद्गति प्राप्त करते हैं। पीपल वृक्ष की प्रार्थना के लिए
अश्वत्थस्तोत्र में पीपल की प्रार्थना का मंत्र भी दिया गया
है।
२६ मई २०१४ |