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 प्रकृति और पर्यावरण

 

भूकंप क्यों आते हैं
- राजेश्वरी प्रसाद सिंह


इक्कीस अगस्त, १९८८ की उस सुबह की याद द. बिहार और उत्तर प्रदेश वासियों को अवश्य होगी जब नेपाल तराई और उत्तरी बिहार में विनाशलीला करते हुए भूकंप ने हमारे दरो-दीवार पर भी दस्तक देकर डरा दिया था। ३० सितम्बर, ९३ को आये मराठवाड़ा के प्रलयंकारी भूकंप को हमने सुना-पढ़ा और देशवासियों के ३० हजार मौतों और सैकड़ों करोड़ों की क्षति का मातम मनाया। भुज का भूकंप और इसी वर्ष नेपाल के भूकंप का विकराल तांडव हम सबको भूला नहीं है। विश्व में बहुतांश में लोग भूकंप की त्रासदी के प्रत्यक्षदर्शी नहीं भी हो सकते फिर भी विश्व में प्रतिदिन औसतन २५० भूकंप आते हैं जिनमें १८ प्रतिशत समुद्रीतलों में होते हैं और औसतन १००० भूकंप पृथ्वीतल पर प्रति वर्ष होते हैं जिनमें औसतन १४००० लोगों की मृत्यु होती है।

भूकंप की प्रक्रिया

सामान्य जिज्ञासा होती है कि भूकंप क्यों होते हैं? कारण क्या हैं? कितने प्रकार के हैं?
भूकंप के दो कारण तो प्राकृतिक हैं

  • ज्वालामुखी क्षेत्रों में पृथ्वी के खौलते हुए गर्भ से गैस, तरल अतिगर्म मैग्मा के बाहर आने की प्रक्रिया में उत्पन्न दबावों के कारण,

  • पृथ्वी चट्टानों के विवर्तनिक स्थानांतरण की प्रक्रिया में उत्पन्न ऊर्जा के निःक्षेपण की विनाशकारी भूमिका जनित भूकंप और

  • मानवकृत अणुपरीक्षणों तथा बड़े-बड़े बाँधों के फलोत्पाद के रूप में होने वाला भूकंप।

प्रलयंकारी तबाही

‘बिग-बैंग’ के बाद पृथ्वी के अरबों-खरबों वर्ष पूर्व से दहकते शोले का गैस रूप ठंडा होकर वर्तमान स्वरूप में उपस्थित है पर भीतर पृथ्वी का गोला आज भी दहक रहा है, उबल रही है पृथ्वी, पृथ्वी अशांत है, अर्धविगलित चट्टानी परतों में संवहन की धाराएँ प्रवाहित हो रही हैं और पिघले चट्टानों-गैसों के रूप में ऊपर की ओर उठना चाहती है तो ठंडे सतह के नीचे के धराखंडों (प्लेट्स) में गतिशीलता का सृजन होता है। चट्टानों (धराखंडों) के इस समान या विपरीत दिशाओं की गतिशीलता में अवरोध आने पर तनाव या खिंचाव के बल के कारण ऊर्जा की अकूत मात्रा का प्रलयंकारी प्राकट्य क्षणों सेकंडों में तबाही का कारण बनता है। करीब दस हजार गुना ज्यादा होती है ऊर्जा क्षमता- जापान पर गिराये एक अणु बम की ऊर्जा के। चट्टानों के विवर्तनिक स्थानांतरण (टैक्टानिक मूवमेंट) में

  • चट्टानों की गति परस्पर विरोधी दिशाओं में होती है या

  • जब एक तरफ गतिशील चट्टानों के ही दो टुकड़े हो जाएँ और फिर इन दो भागों की गति एक ही दिशा में अपेक्षाकृत रूप से एक दूसरे के अधिक हो सकती है।

इस प्रक्रिया में भूकंपन होता है। चटकने-दरकने के फलस्वरूप दरारें पड़ जाती हैं जिन्हें फाल्ट या ‘भ्रंश’ कहते हैं। हालांकि ये दरारें (फाल्ट) पृथ्वी की सतह के बहुत नीचे पड़ती हैं फिर भी कुछ एक भ्रंश सतह तक स्पष्टतया दृष्टिगोचर होती हैं जिनमें प्रसिद्ध है उत्तरी अमेरिका के कैलिफोर्निया का सान ऐंड्रीस भ्रंश। सतह पर यह १२०० कि. मी. लंबे और ४०-५० कि.मी. चौड़ाई लिए इस भ्रंश के कारण ही सन १९०६ में सानफ्रांस्किो में आये भूकंप में २१ फुट के फाँक के दोनों भाग चलते दिखायी दिये। हजारों लोग उस फाँक में समा गये। ४ फरवरी १७९७ पेरू-इक्वेडर में धरती फटी, सैकड़ों लोग उस भ्रंश में समा गये और फिर पृथ्वी की सतह सामान्य हो गयी। सीताजी के समाधि लेने की घटना-जैसी घटना।

धराखंडों के परस्पर गति के अवरोधों से उत्पन्न विपुल ऊर्जा जहाँ से निःसृत होती है उसे ‘फोकस’ कहते हैं- इस निःसृत ऊर्जा के द्वारा ‘फोकस’ के ठीक ऊपर अधिकतम अपघात होता है उसे ‘भूकंप केंद्र’ या ‘एपीसेंटर’ कहते हैं- यहाँ भूकंप की अधिकतम तीव्रता होती है। ‘फोकस’ से चारों ओर कंपन की तरंगें प्रसारित होती हैं- ‘सिसमिक तरंगें’ जो ‘एपीसेंटर तक तो बड़ी तीव्रतम गति से पहुँच जाती हैं पर एपीसेंटर के विपरीत ध्रुव पर पृथ्वी के पूर्व अंतर्सघन भाग से गुजरने में २ मिनट लगा देती है। यही कारण है कि मराठवाड़ा में ४ बजकर ५ मिनट पर हुए भूकंप की तरंगों को अमरीका के सैनफ्रांसिस्को में ४ बजकर २६ मिनट पर नापा गया। सन् १९३० में कैलिफोर्निया के डॉ. चार्ल्स फ्रांसिस रिक्टर ने एक भार और स्प्रिंग विधि से सिसमोग्राफ नामक यंत्र की रचना की, जिस पर पृथ्वी के कंपन और आंतरिक गतिविधियों का चार्टग्राफ बनता रहता है। जिन लोगों ने हृदय रोगियों के ई. सी. जी. के चार्टग्राफ देखे हैं कमोबेश सिसमोग्राफ की इबारत भी वैसी ही होती है। सिसमोग्राफ की इकाई रिक्टर होती है। एक से लेकर ९ रिक्टर तक तीव्रता का अर्थ ९ गुणा ही नहीं होता बल्कि दस करोड़ गुणा होता है उसी प्रकार ६ रिक्टर से ८ रिक्टर की तीव्रता १०० गुणा मानी जाएगी। परिवर्द्धित मरकरी पैमाना भी तीव्रता मापन के लिए प्रयुक्त हो रहा है।

अमूमन पृथ्वी सतह के नीचे ६०० कि.मी. से ६० कि.मी. दूरी के भागों में हुई उथल-पुथल भूकंप का प्रभाव पैदा करता है, पर प्रायः विनाशकारी भूकंप केंद्र पृथ्वी सतह से १६ कि.मी. से ०५ कि.मी तक होती है। जहाँ ज्वालामुखी फूटते हैं या नये पहाड़ बनने की प्रक्रियाएँ होती हैं- भूकंपन होता रहता है।

पृथ्वी पर प्रशांत, एटलांटिक, उ. अमरीका, द. अमरीका, अफ्रीका, यूरेशिया तथा ऑस्ट्रेलिया धराखंडों में विभिन्न प्रकार के ‘ट्रेंचेज’ पाये जाते हैं। पूरी पृथ्वी पर समान रूप से भूकंप क्षेत्र हों ऐसी बात नहीं है बल्कि प्रकट में उन संकरे-तंग सतत अंतर्सक्रिय क्षेत्रों को निरूपित किया गया है जो भूकंप प्रभावित हो सकते हैं। ऐसे बिंदु क्षेत्रों को जोड़ने से जो सर्पिल रेखाएँ बनती हैं इन्हें ही ‘ट्रेंचेज' कहा जाता है। प्रशांत धराखंडों के पेरू चीले ट्रेंचेज तथा एल्युशियन ट्रेंचेज, पूर्व में कुरील ट्रेंचेज और जापान ट्रेंच बहुत विनाशकारी हैं। अटलांटिक सागर के मध्य से यूरोप के आल्पस होती हुई पेशावर-हिमालय क्षेत्र से गुजरती हुई जावा ट्रेच आगे न्यूहाइब्राइड ट्रेंच के रूप में महान नागराज की तरह लेटी है। सभी ट्रेंचेज को मानचित्र पर देखकर सहस्त्र शीशवाले शेषनाग की कल्पना का अर्थ साकार हो उठता है-
सशैलवनधात्रीणां यथाधारो हिनायकः।
सर्वेषां योगतंत्राणां तथाधारो हि कुंडली।। (ह. यो. प्र. ३-१)

भूकंप के प्रकार

भूकंप को असर के कारणों के रूपों में विभिन्न प्रकारों से हम देखते हैं। एक तो वैसा जैसा अभी मराठवाड़ा में आयी हुई विपदा जहाँ भूकंप का विवर्तनिक रूप दृष्टिगोचर हुआ- कोयना कुरूवाड़ी की ८०० कि.मी. लंबी ४०-५० कि.मी. चौड़ी दरार के कारण हुआ भूकंप

  • कहीं-कहीं भूमि का जलीय कीचड़ में बदल जाना- जैसा कि २३ जून, १५५६ को सियाचीन नगर पूरे का पूरा जलीय कीचड़ में समाहित हो गया और ८ लाख ३० हजार व्यक्तियों की मौतें हुयीं।

  • कहीं भूकंप भूस्खलन के रूप में- जैसे १९७० में पेरू में हुए भूकंप में ७०००० लोग मारे गये जिनमें २०००० भूस्खन के कारण मृत।

  • सूनामी तरंगों के रूप में भूकंप को बहुधा समुद्री तूफान के चक्रवात की लीला समझ लिया जाता है जबकि समुद्रतल की पहाड़ी श्रेणियों या ज्वालामुखियों से उठे भूकंपजनित ऊर्जा के कारण १०० फुट ऊँची उठी उत्ताल तरंगें ७५० से ८०० कि.मी. प्रतिघंटा की रफ्तार से भूखंडों पर हमला करती हैं जैसा कि १८९६ में जापान के २७००० लोगों को जलसमाधि लेनी पड़ी।

  • अग्नि लीला के साथ आये हुए भूकंप का उदाहरण १९२३ के जापान का है जब भूकंप में एक लाख तैंतालीस हजार मौंते हुईं जिनमें ५६००० लोगों की मौत भूकंप के कारण हुई आगजनी की आहुति बनी।

  • कहीं भूकंप के कारण पहाड़ निकल आते हैं या झील बन जाती है तो कभी आसाम में आये १५ अगस्त १९५९ के भूकंप-जैसा, जिसमें ब्रह्मपुत्र की कई सहायक नदियाँ सूख गयीं। सन् १९८८ का उत्तर बिहार भूकंप एवं ३० सितम्बर, ९३ के अभी आये मराठवाड़ा के भूकंप का कारण भारतीय धराखंड का उत्तर पूर्व की ओर तिब्बती धराखंड के नीचे ५ सेंटीमीटर प्रति वर्ष की गति से घुसते जाना है। अगर यही प्रक्रिया चलती रही तो १३५ लाख वर्षों में पूरा बिहार और उत्तर प्रदेश हिमालय में समा जाएगा।

भूकंप की भविष्यवाणी

क्या भूकंप की भविष्यवाणी संभव है? विश्व के वैज्ञानिक अभी भूकंप की भविष्यवाणी कर सकने की तकनीकी क्षमता का सृजन नहीं कर पाये हैं। अतीत में चीन और भारत में बिल्लियों, कुत्तों, चूहों, सर्पों कीड़े मकोड़ों की प्रवृत्तियों का अध्ययन करके भूकंप का अनुमान लगाया जा सकने का विज्ञान विकसित था। चीन तो २८ जून १९७५ में हुए भूकंप का अनुमान इन्हीं निरीक्षणों के कारण लगा सकने में सफल हुआ हालाँकि तंशासा के इस प्रांत में फिर भी एक लाख लोगों की मौतें हुईं। कुत्तों और बिल्लियों के विचित्र व्यवहारों का निरीक्षण कर समय से चेतावनी दी गयी अन्यथा कई गुना ज्यादा जनहानि होती। १८ अप्रैल, १९०६ को सानफ्रांस्सिको के भूकंप की पूर्व रात्रि में शहर में कुत्ते रातभर बेचैन और भूँकते रहे। चिली के १८३५ के भूकंप के पहले ‘सीगल’ पक्षी उड़ चले और कुत्तों ने शहर छोड़ दिया, भारत में भूकंप के रक्षोपाय के लिए क्या करें?-

भारत के पास उन्नत तकनीक रहते हुए भी किसी प्रकार की समन्वयात्मक योजना के सकारात्मक पहलुओं पर विचार न कर पाने के कारण भी हम काफी नुकसान उठाते रहे। सही है कि हमारे पास वी. एल. बी. आई. (वेरी लॉग वेस लाईन इंटरफेरोमिटर) जैसे भूकंप की भविष्यवाणी करने के दावा करने वाले उपकरण अभी नहीं हैं। तीन फ्रांसीसी वैज्ञानिकों ने ‘नेचर’ पत्रिका (खंड ३६४ , दिनांक ७.८.९३) ‘सिंथेटिक एपरचर रडार’ टेक्रीक (एस. ए. आर.) से सफलतम भूकंपीय भविष्यवाणीयों का दावा किया है और लैंडर्स कैलिफोर्निया में सफलतम परीक्षण भी किये हैं। श्री ए. के. लाल के अनुसार ई. आर. एस.-१ उपग्रह से भी भूकंप की भविष्यवाणी किये जाने में सफलता मिली है- पर भारत इन सुविधाओं को उपलब्ध कर पाने में कब तक सफल हो पायेगा? दिक्कत तो यह है कि भूकंपीय दृष्टि से शांत क्षेत्रों- जैसे लाटूर मराठवाड़ा क्षेत्र का दक्षिण धराखंड या सन् १९८९ में प्रभावित पूर्व आस्ट्रेलिया क्षेत्र- भूकंपीय दृष्टि से स्थिर क्षेत्र माने जाते रहने पर भी भूकंपग्रस्त हो गये जिससे अनिश्चितता की स्थिति का निर्माण हो गया है। बड़े-बड़े ढले हुए ब्लाक से ‘प्रीकास्ट निर्माण तकनीक’ पश्चिम से लेकर भारत देश तक निर्माण में अपनायी जा रही है पर आरमेनिया के दिसम्बर, १९८८ के भूकंप ने ‘प्रीकास्ट’ भवन तकनीक पर सोचने को मजबूर किया है अतः ‘भूकंपावरोधी भवन प्रारूप और निर्माण’ के लिए भारतीय मानक संस्थान द्वारा मानक (आई. एस.: ४३२६) परिवर्द्धित रूप में रुड़की विश्वविद्यालय के भूकंप तकनीक विभाग तथा सिविल इंजीनियरिंग विभाग की मदद से तैयार किया गया है। रुड़की विश्वविद्यालय द्वारा ३ दशकों से भूकंप अवरोधी डिजायनों-भवन निर्माण तकनीक पर शोध होकर आचार संहिता, सुझाव-कम लागत के उपाय उपलब्ध हैं पर भवन निर्माण की प्रक्रिया में खुद सरकारी तंत्रों द्वारा ही इनकी अनदेखी की जाती है। इस दिशा में ए. सी. ई. (एसोसिएशन ऑफ कंसल्टिंग इंजीनियर्स) के मंसूबों को जनसमर्थन मिलना चाहिए। भवन निर्माण में सरकारी, गैरसरकारी या जन सामान्य के स्तरों पर रुड़की विश्वविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय द्वारा उपलब्ध कराये गये सस्ते रक्षोपायों को अपनाने के लिए आचार संहिता पर कड़ाई से पालन कराये जाने की आवश्यकता है। भारतीय हिंदू भवन निर्माण-वास्तुकला के शास्त्रीय प्रतिमान थे। भवन निर्माण के लिए वास्तुविदों को उनका अवगाहन करना श्रेयस्कर होगा।

मंदिर बनाने में अभी भी हम अपने ग्रंथों का सहारा लेकर योजना बनाते हैं, तो परिणाम ठीक उतरते हैं। मराठवाड़ा के भूकंप क्षेत्रों में दो बड़े-बड़े शिव मंदिर ज्यों के त्यों खड़े रहे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भूगर्भशास्त्र विभाग के वैज्ञानिकों, सिविल इंजीनियरिंग के पर्यावरण, भवन निर्माण, जल संसाधन से जुड़े वैज्ञानिकों के सहयोग को सरकार अपनी नीतिगत अवधारणाओं के निरूपण में स्थान दे। टिहरी-सरदार सरोवर- जैसी बाँध-योजना पर पुनर्विचार किया जाए। प्रकृति के इकोसिस्टम के साथ तादात्म्य और लयबद्ध होकर श्रीमद्भगवत गीता के एकादश अध्याय की प्रार्थना करें-
त्वमत्वयः शाश्वत धर्मगोप्ता सनातनास्त्व पुरुषोमतो में/१८
द्यावा पृथित्योदिरमन्तरंहि, व्याप्तं त्वैयकेन दिशश्च सर्वाः/२०
अनन्तवीर्यामित विक्रमस्त्वं, सर्व समाप्रोवि ततो वि सर्वः/४०

अक्तूबर २०१५

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