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प्रेरक-प्रसंग

विदेशी तिरंगा
- जया मुखर्जी

हर स्वतंत्रता दिवस पर मेरे दादाजी हमारे घर की छत पर तिरंगा फहराया करते थे और हम राष्ट्रीय गीत गाया करते थे। १९९७ में १५ अगस्त के दिन मैंने यह तय किया कि मेरी तीन साल की बेटी को अपने घर में तिरंगा फहराकर स्वदेश भक्ति के बारे में सचेत किया जाय।

हमने तिरंगा ख़रीदने का निश्चय किया। काग़ज़ के बने छोटे-छोटे तिरंगे झंडे उस समय भी बेचे जाते थे लेकिन मैं कपड़े का बुना हुआ झंडा अपने घर में फहराना चाहती थी। कैंप की एक भी दुकान में मुझे कपड़े का बुना हुआ तिरंगा नहीं मिला। एक बुजुर्ग ने बताया कि कपड़े का बुना हुआ तिरंगा झंडा सिर्फ़ स्कूल, कॉलेज, और सरकारी दफ़्तरों में ही लहराया जाता है। व्यक्तिगत स्थानों जैसे घरों में झंडा फहराना कानून के ख़िलाफ़ था। पुणे में भी मैंने कभी किसी घर में तिरंगे को लहराते नहीं देखा था। सीधे, सत्यवादी और सरल जीवन व्यतीत करने वाले मेरे दादाजी ने इन क़ानूनों और अपने उसूलों को तोड़ना कभी सही नहीं समझा लेकिन हमें हमेशा इस बात को लेकर प्रोत्साहित ज़रूर करते रहते थे। मैंने भी अपने दादाजी की तरह इस बात को लेकर कभी पहल नहीं की मुझे लगा कि इस बात के दूसरे पक्ष को परखने की हिम्मत और उचित अधिकार मुझमें नहीं थे।

१९९८ में १५ अगस्त को एक साल अधिक बड़ी और बुद्धिमान, मैंने अपने दादाजी के देशभक्ति के प्रोत्साहन पर ग़ौर करना ज़्यादा उचित समझा। इस बार मैंने शहर के दूसरे सिरे से तिरंगे की खोज शुरू की, हर जगह जवाब वही था। तभी लौटते समय एक इमारत की चौथी मंज़िल की बालकनी में तिरंगा लहराता हुआ दिखाई दिया। मैंने ऊपर जा कर मालिक से पूछा कि यह तिरंगा उन्होंने कहाँ से प्राप्त किया। उनके जवाब से मैं हैरान रह गई। उन्होंने कहा, "विदेश से।"

ज़रा सोचिए! देश की आज़ादी की ५० वीं सालगिरह पर हम अपने फ़ोन से यंत्रवत तरीके से वंदेमातरम कहकर बधाई देने से लेकर बंकिम चंद्र चटर्जी के वंदेमातरम को ए. आर. रहमान की धुनों में रूपांतरित कर टी.वी. के हर चैनल दिखाते और सार्वजनिक स्पीकरों पर बजाते हैं, बोर्डो से लेकर बसों, ऑटो रिक्शा और लारियों को 'मेरा भारत महान' से पोत देते हैं, इस दिन सुबह से अपने सारे नेता भारत की स्वतंत्रता के गुणगान करते नज़र आते हैं, वहीं ब‌ड़ों की दी हुई सीख और गर्व की परंपरा को निभाने के लिए यदि हम हमारा तिरंगा फहराना चाहते हैं तो उसे ख़रीदने क्या हमें विदेश जाना होगा?

एक मित्र ने कहा था कि विश्व के अधिकतर देशों में हर व्यक्ति अपने घर में एक झंडा ज़रूर रखता है और अपने राष्ट्रीय महत्व के अवसरों पर उसे फहराने में गर्व अनुभव करता है जबकि भारतीय स्वदेश में रहकर भी अपने तिरंगे को घर में रखना ज़रूरी ही नहीं समझते। हम भारतीय जो विदेशों की सैर को गर्व से जताने से नहीं चूकते, उन्होंने कभी अपने ही भारत की सैर कर उसे जानने की कितनी कोशिश की है? हम जब विदेशों की सैर करते हैं तब कुछ यादगार चीज़ें वहाँ से लाते हैं लेकिन आज ग़ौर करने का समय आया है कि हम कितने भारतीयों के घरों में कोणार्क चक्र की प्रतिकृति है? जब हम विदेशी झंडों और विश्वविद्यालयों के चिह्नों से अंकित कपड़े गर्व के साथ धारण करते है तो क्या हम उसी शौक से अपनी मातृभूमि के नारों से सजे कपड़े पहनते हैं? सालोंसाल भारत में रहने वाले विदेशी अपने अंग्रेज़ी भाषा बोलने की लहज़े को नहीं बदलते, वहीं थोड़े सालों में अमरीका जाकर हम भारतीय विदेशी लहज़े में हिंदी बोलना सीख कर लौटते हैं ऐसा जब किसी विदेशी ने ही मुझसे कहा होगा तो आप सोच सकते हैं, मैंने कैसे महसूस किया होगा।

बाद में, काफ़ी छानबीन के बाद इस पुणे शहर में हमें एक छोटी-सी दुकान में कपड़े से बुना हुआ तिरंगा मिल ही गया। इस तरह १५ अगस्त १९९८ को हमने अपने घर में तिरंगा फहराया और राष्ट्रीय गीत गाया तब मेरी चार साल की बेटी ने इसे खुशी से देखा और शायद गर्व भी महसूस किया कि भारत का झंडा उसके घर में फहर रहा था।

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