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                        ८ अगस्त
						भीष्म साहनी की सौवीं जयन्ती के अवसर पर 
                        भ्राता जी- भीष्म साहनी
 
 
 
      एक दिन बलराज मुझसे बोले, जब हम गुरुकुल की ओर 
		जा रहे थे,''सुन!''
 ''क्या है?''
 ''मेरे पीछे पीछे चल। अब से हमेशा, मेरे पीछे-पीछे चला कर।''
 ''क्यों?''
 ''क्योंकि तू छोटा भाई है। छोटे भाई साथ-साथ नहीं चलते।''
 मैं उसके मुँह की ओर देखने लगा।
 ''राम और लक्ष्मण कभी साथ साथ नहीं चलते थे।''
 ''मैं लक्ष्मण नहीं हूँ।''
 ''तू मेरा छोटा भाई तो है।''
 और उसने मुझे धकेलकर पीछे कर दिया।
 ''और सुन।''
 ''क्या है?''
 ''आगे से मुझे बलराज मत बुलाया कर। मैं तेरा ज्येष्ठ भ्राता हूँ।
 ''तो क्या बुलाया करूँ?''
 ''भ्राता जी! तू मुझे भ्राताजी कहकर बुलाएगा। अब हो जा मेरे पीछे।
 जब हम आगे बढ़ चले तो बोला, ''जब राम और लक्ष्मण दौड़ते भी थे तो आगे पीछे। 
		मैं तुम्हें उनके दौड़ने का ढँग सिखाऊँगा।''
 मैं पहले तो उके चेहरे की ओर देखता रहा, फिर बड़ी अनिच्छा से कहा, ''अच्छा 
		भ्राताजी।''
 मैंने यह हुक्म भी सह लिया और उसके पीछे हो लिया।
 
 जब घर लौटने पर मैंने उसे भ्राताजी बुलाया तो बहनें खिलखिलाकर हँस पड़ीं।
 ''कौवा चला हंस की चाल।'' बड़ी बहन ने कहा।
 पर माँ ने कहा, ''ठीक है भ्राताजी ही बुलाए। कुछ तो सीखेगा। बड़े भाई को 
		नाम से कौन बुलाता है।''
 
 पर भ्राताजी शब्द मेरे गले में अटकता था।
 मैं गुल्ली डंडा खेलने जा रहा हूँ। तू चलेगा भ्राताजी।''
 एक बार जब मुझे घर लौटने में देर हो गई और बलराज मुझे बाँह पकड़कर खींचते 
		हुए घर ले जाने लगे तो मैंने बाँह छुड़ाते हुए गाली बक दी, ''घर जाता है 
		मेरा... भ्राताजी।''
 
 उस रोज भ्राताजी कहने पर भी मुँह में मिर्चें पड़ीं। अब धीरे धीरे इस 
		अनुशासन का अभ्यस्त हो गया, और बरसों तक भ्राताजी ही बुलाता रहा। पर स्कूल 
		छोड़ने पर भ्राता जी के स्थान पर पंजाबी का लोकप्रिय शब्द भापा आ गया और 
		वही सम्बोधन आजीवन चलता रहा।
 
      ३ अगस्त २०१५ |