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                          अर्थात 'जिन भावों को मैं 
                          (ग़ज़ल में) लाना चाहता हूँ, वे इस संकुचित क्षेत्र में 
                          नहीं आ पाते उनके लिए विस्तृत क्षेत्र की आवश्यकता है' 
                          इसके बावजूद मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपनी प्रतिभा से ग़ज़ल के 
                          क्षेत्र को जो विस्तार और ऊँचाइयाँ प्रदान कीं वे 
                          अद्वित्तीय, अविस्मरणीय एवं कालातीत हैं। परंतु आज भी 
                          ग़ज़ल को 'कोठों, दरबारों से निकली हुई' या 'अभिव्यक्ति के 
                          लिए अपर्याप्त' कह कर आज भी बहुत से स्वनाम धन्य विद्वान 
                          नकारते ही हैं। ऐसा संभवत: ग़ालिब ने विनम्रता पूर्वक यह 
                          सार्वभौमिक तथ्य उजागर करने के लिए कहा होगा, कि क्लिष्ट 
                          जीवनानुभवों की अतल गहराइयों से स्वत: फूटने वाले भावों 
                          की अभिव्यक्ति के लिए केवल काव्य तो क्या साहित्य की कोई 
                          भी विधा (मिर्ज़ा ग़ालिब के संदर्भ में ग़ज़ल) सीमित या 
                          संकुचित रह जाती है। अत: ग़ालिब का यह शे'र उनके 
                          तर्ज़े-बयाँ की समग्रता, सौंदर्य एवं उस अज़ीम शायर की 
                          अप्रतिम भावाव्यक्ति की असीम क्षमताओं की मिसाल के 
                          साथ-साथ साहित्य व कला की सीमाओं की विनम्र स्वीकारोक्ति 
                          भी है, जिसका दुरुपयोग,विडंबना से, हिन्दी कविता के कुछ 
                          कूप मंडूक अलम्बरदार समकालीन हिन्दी ग़ज़ल के विरोध में यह 
                          फ़तवा जारी करने के लिए करते हैं कि केवल ग़ज़ल ही 
                          अभिव्यक्ति के लिए अपर्याप्त विधा है। साहित्य की तमाम 
                          विधाएँ अपने-अपने स्थान पर माननीय हैं क्यों कि ये सभी 
                          अपने-अपने तरीके से मानव की संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति 
                          का मध्यम हैं। ऐसे में ग़ज़ल को ही अभिव्यक्ति के लिए 
                          अपर्याप्त विधा कह कर नकार देना संवेदना का अपमान करने 
                          जैसा होगा। 
                           आज की ग़ज़ल न तो ग़ज़ाला 
                          की चीख़ है और न ही आशिक और माशूक के बीच शिकवों-शिकायतों 
                          से भरी गुफ़्तगू है; न तो यह रागदरबारी है और न ही केवक 
                          तसव्वुफ़ की उड़ान। आज की ग़ज़ल सम-सामयिक परिवेश तथा मानव 
                          जीवन के कटु सत्यों की अभिव्यक्ति का एक सशक्त एवं 
                          विशिष्ट माध्यम है। उसके पास 'भाषा की लोकधर्मिता' के 
                          साथ-साथ 'अभिव्यक्ति की प्रखरता' भी है। 'हुस्न-ओ-इश्क़' 
                          और 'साग़र-ओ-मीना' के संकुचित संवेदना संसार की गिरफ़्त से 
                          आज़ाद आज की ग़ज़ल केवल वैयक्तिक न रह कर वस्तुपरक हो गई 
                          है। परंपरा को नई सोच, नई दृष्टि, नए धरातल प्रदान कर, 
                          उसमें नई रूह का संचार करके उसे और भी सुदृढ़ बनाते हुए 
                          ग़ज़ल ने साहित्य के विकास में निश्चित रूप से अपना योगदान 
                          दिया है। ग़ज़ल की सब से बड़ी विशिष्टता दोहे, चौपाई या फिर 
                          हाइकु की तरह उसकी अद्भुत संप्रेषण शक्ति के साथ-साथ 
                          उसकी उद्धरणीयता एवं प्रभावोत्पादकता है। 
                          
                          हिमाचल की गज़ल हिमाचल में कही लिखी जा 
                          रही ग़ज़ल के मौसम का जायज़ा लेने से पहले राष्ट्रीय 
                          परिदृश्य में ग़ज़ल के मिजाज़ और तेवर का जायज़ा लेना आवश्यक 
                          हो जाता है।हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल को एक युगांतरकारी काव्य विधा के 
                          रूप में प्रतिष्ठित करने का ऐतिहासिक श्रेय प्राप्त करने 
                          वाले दुष्यंत कुमार के एक शे'र में ही ग़ज़ल के बदले हुए 
                          मिजाज़ और तेवर को अनुभव किया जा सकता है:
 'वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू
 मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है।'
 अदम गोंडवी समकलीन ग़ज़ल 
                          के तेवर से यह अपेक्षा रखते हैं :'भूख के अहसास को शेर-ओ-सुख़न तक ले चलो
 या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो
 जो ग़ज़ल माशूक़ के जल्वों 
                          से वाक़िफ़ हो गईउसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो।'
 ज़हीर कुरेशी की एक ग़ज़ल 
                          का मतला भी समकालीन ग़ज़ल के तेवर को स्पष्ट करता है:'किस्से नहीं हैं ये किसी बिरहन की पीर के
 ये शे'र हैं अंधेरों से लड़ते 'ज़हीर' के'
 
                          
                          दुष्यंत कुमार युग का प्रारंभ हिंदी में निराला से 
                          लेकर शमशेर बहादुर सिंह तक अनेक प्रतिभाशाली कवियों ने 
                          ग़ज़ल के माध्यम को अपनाया, परंतु समकालीन ग़ज़ल से अभिप्राय 
                          नागरी लिपि में लिखी जा रही उस ग़ज़ल से है, जिसका शुभारंभ 
                          दुष्यंत कुमार की समयसिद्ध ग़ज़लों से हुआ था। दुष्यंत 
                          मूलत: नई कविता के कवि थे, परंतु ''बराबर महसूस'' करते 
                          हुए कि ''कविता में आधुनिकता का छद्म कविता को पाठकों को 
                          बराबर दूर करता चला गया है, कविता और पाठकों के बीच इतना 
                          फ़ासला कभी न था, जितना आज है,'' उन्होंने नई कविता के 
                          प्रतीकों, मुहावरों के साथ-साथ उसके दृष्टिकोन और 
                          सम्वेदना का उपयोग अपनी ग़ज़लों के माध्यम से किया तो 
                          हिन्दी में ग़ज़ल के लिए नई ज़मीन तैयार हुई और इसी नई ज़मीन 
                          से उन्होंने ग़ज़ल को लोकप्रियता की अप्रतिम उँचाइयों तक 
                          पहुँचाया। आज अगर उनके शे'रों का प्रयोग लोकोक्तियों, 
                          सूक्तियों तथा मुहावरों की तरह किया जाता है तो इसका 
                          श्रेय उनकी ग़ज़लों की भाषा की जीवंतता एवं लोकधर्मिता को 
                          ही जाता है। दुष्यंत कुमार ने अपने संकलन ''साये में 
                          धूप'' की भूमिका में कहा था कि ''हिन्दी और उर्दू जब 
                          अपने अपने ऊँचे सिंहासनों से से उतर कर आम आदमी के पास 
                          आती हैं तो उनमें फ़र्क़ कर पाना बड़ा मुश्किल होता है।'' 
                          अपने एक आत्मकथ्य में अपनी ग़ज़लों की भाषा के बारे 
                          उन्होंने लिखा था : ''मेरी दिक्कत यह थी कि उर्दू मैं 
                          जानता नहीं और हिंदी में मुझे वह चुहल, वह मुहावरा और 
                          बोलचाल का वह बहाव नहीं मिला, जिसके सहारे ग़ज़ल कही जाती 
                          है या जो ज़्यादातर लोगों की ज़ुबान पर चढ़ा है, मगर यही 
                          अज्ञानता मेरे लिए लिए एक शक्ति बन गई, क्यों कि मुझे लगा 
                          कि आम आदमी एक मिली-जुली ज़ुबान बोलता है। वह न तो शुद्ध 
                          उर्दू होती है न शुद्ध हिंदी। इसी लिए मैंने उस भाषा की 
                          तलाश की जो हिंदी की हिंदी और उर्दू की उर्दू दिखाई दे 
                          और आम आदमी उसे अपनी ज़ुबान समझकर अपना सके… मैं सामान्य 
                          जीवन की जिस बेचैनी को उजागर करना चाहता हूँ, वह शब्दों 
                          की चमक-दमक में कहीं खो गई है।'' इसी लिए उनकी ग़ज़लों में 
                          ग़ज़लियत (तग़ज़्ज़ुल) के साथ-साथ उनकी एक कोशिश हिंदी और 
                          उर्दू के बीच एक सेतु का काम करने की भी रही। उनके 
                          अधिकांश शे'रों में उर्दू हिन्दी का अंतर मिट गया है।उनके कुछ शे'र :
 कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
 गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
 बाढ़ की संभावनाएँ सामने 
                          हैं और नदियों के किनारे घर बने हैं
 चीड़ वन में आँधियों की 
                          बात मत कर इन दरख़्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं
 इस तरह टूटे हुए चेहरे 
                          नहीं हैं जिस तरह टूटे हूए ये आइने हैं
 जिस तरह चाहो बजाओ इस 
                          सभा में हम कहाँ हैं आदमी हम झुनझुने हैं
 नई 
                          भाषा नए प्रयोग आज जबकि ग़ालिब, दाग़ 
                          फ़ैज़, साहिर, फ़राज़, क़ैफ़ी आज़मी, जावेद अख़्तर, बशीर बद्र 
                          तथा उर्दू के अन्य कई पुराने और जदीद लब्ध प्रतिष्ठित 
                          शायरों की शायरी के संकलनों तथा ग़ज़ल की 'बहरों' और 
                          'तरक़ीबों' का लिप्यांतरण नागरी में उपलब्ध है तो ग़ज़ल की 
                          लोकप्रियता के साथ-साथ शायद एक अत्यंत महत्वपूर्ण संकेत 
                          यह भी मिल रहा है कि समकालीन ग़ज़ल ने हिन्दी और उर्दू के 
                          भेद को समाप्त कर दिया है। उसने भाषा की सहजता और सरलता 
                          इस हद तक प्राप्त कर ली है कि उर्दू और हिन्दी में केवल 
                          लिपि के आधार पर ही अंतर किया जा सकता है। इस लिए बहुत 
                          से ग़ज़लकार यह भी मानते हैं कि जब अरबी और फ़ारसी से उर्दू 
                          में आयातित इस विधा को उर्दू के शायरों ने भी उर्दू ग़ज़ल 
                          नहीं कहा तो हिंदी ग़ज़ल कहना भी तर्क संगत नहीं लगता।
                           ग़ज़लकार समीक्षक ज्ञान 
                          प्रकाश विवेक का मानना है कि दो चार शुद्ध हिन्दी शब्दों 
                          को ठूँस कर ''ग़ज़ल को हिन्दी ग़ज़ल कहने के पीछे यकीनन कोई 
                          हीन भावना रही है या चालाकी। चालाकी इसलिए कि हिन्दी ग़ज़ल 
                          नामकरण के पश्चात जो सुविधाएँ (शिल्पगत) हासिल की गईं, 
                          उससे ज़ाहिर होता है कि हिन्दी शब्द क्यों जोड़ा गया। कोई 
                          कवि यदि किसी की कमज़ोर ग़ज़ल के शिल्प पर आलोचना करे तो 
                          उत्तर में कहा जा सके कि 'हिन्दी-ग़ज़ल है' यानि हिन्दी 
                          ग़ज़ल में सब चलता है।'' इस विधा की रचनात्मक 
                          नज़ाक़त को नकार कर ग़ज़लें कहना ग़ज़ल का अहित करने जैसा 
                          होगा। हिन्दी में ग़ज़ल कहने की अंधाधुंध दौड़ में शामिल 
                          ग़ज़लकारों के लिए कमलेश्वर का यह सुझाव भी समीचीन है कि 
                          ''हिन्दी को अभी ग़ज़ल की रचनात्मक नज़ाकत को आत्मसात करने 
                          का तरीक़ा सीखना चाहिए और अपने गद्य-धर्मी शब्दों का 
                          लोकधर्मी संस्कार करना चाहिए, तभी नागरी लिपि की ग़ज़ल की 
                          पहचान बन पाएगी।'' 
                          
                          हिंदी गज़ल कहना होगा कि हिन्दी 
                          कविता के आधुनिक भावबोध, उसकी लोकधर्मिता और उसके 
                          मुहावरे के साथ लिखी गई ग़ज़ल की पहचान हिन्दी ग़ज़ल के रूप 
                          में मुखरित होती दिखाई देती है और इस लिहाज़ से उर्दू की 
                          प्रगतिशील शायरी और हिन्दी ग़ज़ल में अधिक फ़र्क़ नहीं दिखाई 
                          देता। हिन्दी ग़ज़ल के इस आधुनिक स्वरूप में, ग़ज़लकार, 
                          समीक्षक कमलेश भट्ट कमल के अनुसार ''समकालीनता का ऐसा 
                          स्वर मौजूद है, जिसमें सामाजिकता, जनवाद, प्रगतिवाद, 
                          राष्ट्रवाद, प्रकृति प्रेम, तथा और भी न जाने क्या 
                          -क्या, एक साथ ध्वनित होता दिखाई देता है, जिसे बहुत 
                          गणितीय ढंग से अलग करके नहीं देखा जा सकता।'' राष्ट्रीय परिदृश्य में 
                          समकालीन ग़ज़ल के परचम को कई ख्याति प्राप्त 
                          शायरों/ग़ज़लकारों ने बुलंद रखा है, जिनमें वसीम बरेलवी, 
                          बशीरबद्र, निदा फ़ाज़ली, गुलज़ार, शुज़ा ख़ावर, बेकल उत्साही, 
                          मुनव्वर राना, अदम गोंडवी, सूर्यभानु गुप्त, ज्ञान 
                          प्रकाश विवेक, ज़हीर क़ुरैशी, बल्ली सिंह चीमा, राजेश 
                          रेड्डी, एहतराम इस्लाम, देवेन्द्र शर्मा इन्द्र, वशिष्ठ 
                          अनूप, नरेन्द्र वशिष्ठ, नूर मुहम्मद 'नूर', माधव कौशिक, 
                          सुल्तान अहमद, राम कुमार कृषक, हरजीत सिंह, कुँअर बेचैन, 
                          कमलेश भट्ट कमल अशोक रावत, अश्वघोष, हरिमौर्य,वसंत, विजय 
                          कुमार सिंघल, अनिरुद्ध सिन्हा, श्याम सखा श्याम, छंद 
                          राज, नचिकेता, शिव ओम अंबर, विनोद तिवारी, दिनेश शुक्ल, 
                          ब्रज किशोर वर्मा शैदी, वर्षा सिंह इत्यादि और भी कई 
                          उल्लेखनीय नाम हैं। हिमाचल 
                          की गज़ल यदि राष्ट्रीय स्तर पर 
                          ग़ज़ल की ज़मीन उपजाऊ है तो यह ज़मीन हिमाचल प्रदेश में भी 
                          कभी कम उर्वरा नहीं रही। हिमाचल प्रदेश में भी मूलत: 
                          उर्दू में ग़ज़ल कहने वाले शायरों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त 
                          है, जिनमें स्व. लाल चन्द प्रार्थी 'चांद' कुल्लुवी, 
                          स्व. मनोहर शर्मा 'साग़र' पालमपुरी, स्व. सुदर्शन कौशल 
                          नूरपुरी, स्व.अमर सिंह 'फ़िग़ार, स्व. बिहारी लाल बहार 
                          'शिमलवी', स्व. अरमान शहाबी, खेम राज गुप्त 
                          'साग़र',प्राचार्य परमानंद शर्मा, डॉ. शबाब ललित, कृष्ण 
                          कुमार 'तूर' व ज़ाहिद अबरोल इत्यादि के ख़ूबसूरत क़लाम की 
                          बदौलत हिमाचल में उर्दू सुख़न की शमअ रौशन रही है और 
                          जिनकी शायरी हिमाचल का राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर 
                          पर प्रतिनिधित्व करती आई है। इन तमाम शायरों ने 
                          पारम्परिक और जदीद रंगों में जीवन की विविध अनुभूतियों 
                          को अपनी शायरी का विषय बनाया है।  हिमाचली परिवेश में ग़ज़ल 
                          के विकास का श्रेय ग़ज़ल की एक समृद्ध परंपरा को जाता है। 
                          इस आलेख में हिमाचल में ग़ज़ल के तमाम मौसमों का आकलन 
                          प्रस्तुत है, इसलिए हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं के 
                          ग़ज़लकारों और शायरों के योगदान को संकलित करने का प्रयास 
                          किया गया है। प्रो. परमानंद शर्मा ने लगभग पाँच दशक पहले मिर्ज़ा ग़ालिब 
                          की ग़ज़लों का अनुवाद पहाड़ी भाषा में करके ग़ज़ल को एक ऐसे 
                          पाठक वर्ग तक पहुँचाया जो अन्यथा शायद ही ग़ालिब की ग़ज़लों 
                          से परिचित हो पाता।
 मनोहर 
                          शर्मा 'सागर' पालमपुरी- उर्दू हिन्दी और पहाड़ी, 
                          पंजाबी और डोगरी भाषाओं में समान अधिकार से ग़ज़ल कहने 
                          वाले अनुपम शायर मनोहर शर्मा 'सागर' पालमपुरी की ग़ज़लें 
                          अगर शायर, बीसवीं सदी शमअ जैसी उर्दू पत्रिकाओं में छपीं 
                          तो 'सारिका' जैसी पत्रिका में उन्हें स्थान मिला। उनकी 
                          ग़ज़लों में अपने ही परिवेश से अंजान, बेचेहरा तथा चिंतन 
                          के अभाव में दिशाहीन तथा उद्देश्यहीन जनमानस की चिंता 
                          झलकती है। देखें सारिका में छपी उनकी ग़ज़ल के शे'र:अपने ही परिवेश से अंजान है
 कितना बेसुध आज का इंसान है
 हर डगर मिलते हैं 
                          बेचेहरा-से लोगअपनी सूरत की किसे पहचान है
 साँस का चलना ही जीवन 
                          तो नहीं सोच बिन हर आदमी बेजान है।''
 ''साग़र'' पालमपुरी के सुख़न में ग़मे-वतन की आँच भी है और 
                          उदास रूहों में जीने की आरज़ू भर देने की क्षमता भी। 
                          'साग़र' परवतों पर छाई धुंध के पीछे छिपी रौशनी के प्रति 
                          भी आश्वस्त करते हैं:
 जहाँ से कूच करूँ तो 
                          यही तमन्ना है मेरी चिता को जलाए ग़मे-वतन की आँच
 उदास रूहों में जीने की 
                          आरज़ू भर दे लतीफ़ इतनी है 'साग़र' मेरे सुख़न की आँच
 तथा ओढ़े हुए हैं बर्फ़ की 
                          चादर तो क्या हुआइन पर्वतों के पीछे कहीं रौशनी-सी है''
 कंकरीट के बढ़ते मकानों 
                          के कारण चिड़ियों के घौंसलों का दर-ब-दर हो जाना हो या 
                          कौवों के द्वारा खेतों के चुग लिए जाने पर चिड़ियों का 
                          भूखे रह जाना भी 'सागर' की ग़ज़लों के शे'रों में उतर कर 
                          प्रतीकात्मक शैली में हमारी सामाजिक विषमताओं को उजागर 
                          करता है :''बनने लगे हैं जब से मकाँ कंकरीट के
 उस दिन से दर-ब-दर हुए चिड़ियों के घौंसले''
 तथा ''खेत का खेत ही चुग 
                          जाते हैं ज़ालिम कौवेऔर हर फ़स्ल पे रह जाती हैं भूखी चिड़ियाँ''
 साग़र साहब के दो और 
                          शे'र :''दरअस्ल सबसे आगे जो दंगाइयों में था
 तफ़तीश जब हुई तो तमाशाइयों में था''
 ''मेरे मन की अयोध्या 
                          में न जाने कब हो दीवालीअभी तो झलकता है राम का बनवास आँखों में''
 ज़ख़्म तलवार के गहरे भी 
                          हों मिट जाते हैं''लफ़्ज़ तो दिल में उतर जाते हैं भालों की तरह''
 डॉ. 
                          शबाब ललित देश विदेश के शीर्षस्थ 
                          उर्दू रिसालों में छपे अपने उम्दा क़लाम के अतिरिक्त अपनी 
                          हिंदी सुभाव की ग़ज़लों के लिए भी ख्याति प्राप्त शायर डॉ. 
                          शबाब ललित सपनों के बर्फ़ख़ानों में दुबके लोगों को चेताते 
                          हैं:सपनों के बर्फ़ ख़ानों में दुबके पड़े हैं लोग,
 सूरज यथार्थो का इधर सर पे आ गया
 मेरे अरमानों की फ़स्लें 
                          इस लिए प्यासी रहीं एक ज़ालिम था जो कुल बस्ती का पानी पी गया।
 शबाब साहब पौराणिक संदर्भों का प्रयोग समकालीन सत्यों को 
                          अभिव्यक्ति देने के लिए प्रतीकात्मक तरीक़े से करते हैं:
 ''रावण कोई हर ले गया फिर न्याय की सीता
 लगता है कथा फिर वही दोहराएगा जंगल''
 तरकश में जितने तीर थे 
                          सूरज चला चुकाअब तुम भी कुछ जवाब दो नीले समंदरो!
 ऐटमी छतरी के दीवानो! 
                          इसे तानेगा कौनवक़्त वह आएगा रह जाएँगी ख़ाली छ्तरियाँ
 कृष्ण 
                          कुमार 'तूर' कृष्ण कुमार 'तूर' की 
                          शायरी देश विदेश की उर्दू पत्रिकाओं में हिमाचल का 
                          प्रतिनिधित्व करती आई है।''तूर'' साहब स्तब्ध करदेने 
                          वाली खूबसूरती से ज़िन्दगी के तमाम रंगों को अपने शे'रों 
                          में ढालते हैं। आदमी के साथ आदमी के व्यवहार पर उनकी 
                          ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति इस शे'र में देखिये:''तेरे बन्दों से इस जहाँ का सुलूक,
 मेरे परवरदिगार! देखे बना''
 उन्मुक्त हँसी पर औपचारिकता का अंकुश भी उनकी शेरों के 
                          केन्वस पर उभरा है:
 ''अभी वाक़िफ़ नहीं रस्में जहाँ से
 मेरे बच्चे अभी हँसते बहुत हैं।''
 विपरीत परिस्थितियों में भी ज़िन्दा रहने की वजह एक 
                          दार्शनिक के अंदाज़ में 'तूर' साहब फ़रमाते हैं:
 ''इसी इक बात पे हूँ 'तूर' ज़िन्दा
 मेरे अन्दर के दरवाज़े बहुत हैं।''
 सुरेश 
                          चंद्र 'शौक़'  तपती फ़िज़ाओं में 
                          मुश्किलों के रेज़गार तय करते आवाम को विसंगतियों के कारण 
                          समझने में मदद करने वाले सुप्रसिद्ध शायर सुरेश चंद्र 
                          'शौक़' संयोग से उस पीढ़ी का जीवंत स्तंभ हैं जिसने 
                          हिन्दी-उर्दू की गंगा-जमुनी संस्कृति से संपन्न भाषा में 
                          जीवन की विविध अनुभूतियों की ग़ज़लें कही हैं।विसंगतियों के विश्लेषण, समसामयिक अन्वेषण और हर अहसास 
                          को अनुभव करने की संवेदना से संपन्न इस शायर की शायरी का 
                          जादू भी देखते ही बनता है:
 ''अंधेरों को मुक़द्दर जानकर जो मुतमुइन हैं
 ज़रा उन तीरा-ज़िह्नों को ज़ियाएँ दीजिएगा।''
 इनके ग़ज़ल संग्रह ''आँच'' की भूमिका में राजिन्दर नाथ 
                          'रहबर' पठानकोटी साहब ने लिखा है: ''शौक़ साहब की शायरी 
                          किसी फ़क़ीर के द्वारा माँगी गई दुआ की तरह है।'' उनकी 
                          पुकार कितने ही लोगों के स्वर की गूँज बन जाती है, जब वे 
                          कहते हैं:
 ''अज़ारादार सूरज के नहीं हैं आप तनहा
 सभी को सब के हिस्से की ज़ियाएँ दीजिएगा''
 आश्वासनों पर पाली-पोसी जाने वाली और अंतत: हताश, जनमानस 
                          की आकांक्षाएँ ''शौक़'' साहब के शब्दों , में यह आकार 
                          लेती हैं :
 ''हमें कब तक यूँ ही तपती फ़िज़ाएँ दीजिएगा,
 जो गरजें और बरसें वो घटाएँ दीजिएगा।''
 रोने की इंतिहा के बाद 
                          के मंज़र की ओर 'शौक़' साहब बेहद ख़ूबसूरती से इशारा करते 
                          हैं :''चुप है हर वक्त का रोने वाला
 कुछ न कुछ आज है होने वाला''
 हिमाचल के ख्यात कवि/शायर ज़िया सिद्दीक़ी की ग़ज़लों में 
                          बेचेहरगी के दौर में आइनों को दरकिनार कर आत्म मुग्धता 
                          में जी रहे समाज की लक्ष्यहीनता का प्रतिबिंब झलकता है:
 ''न था इक आइना जब तक मैं सब था
 फिर उसके बाद जो था बेसबब था''
 उनकी ग़ज़लों का पाठक पर 
                          असर वैसा ही होता है जैसे उदास आँखों में प्यासी खेतियाँ 
                          लेकर जी रहे लोगों के लिए समंदर के ख़्याल के जादू का:''उदास आँखों में प्यासी खेतियाँ थीं
 ख़याल आया समंदर का ग़ज़ब था''
 ज़िया साहब हर इक खिड़की पर सूरज के आ बैठने के बावजूद घर 
                          में सीलन के होने का संकेत बड़ी सहज भाषा में देते हैं:
 ''हर खिड़की पे आ बैठा है सूरज
 मगर घर आज तक सीला पड़ा है''
 धूप के ढल जाने के बाद भी निखरने और रात के बियाबानों 
                          में सदाओं की तरह गुज़रने का संकल्प मनुष्य को प्रतिकूल 
                          परिस्थितियों में जीने की प्रेरणा देता है:
 धूप ढल जाए तो हम और अभी निखरेंगे
 रात के वन में सदाओं की तरह गुज़रेंगे।''
 
                          प्रफुल्ल कुमार 'परवेज़ ''संसार की धूप'' 
                          (कविता ) तथा ''रास्ता बनता रहे'' (ग़ज़ल) संग्रहों के लिए 
                          चर्चित कवि एवं ग़ज़लकार प्रफुल्ल कुमार 'परवेज़' की अनुभव 
                          संपन्न नज़र में ''हर शाम बनिए की तरह चौखट पर पसरते 
                          पेट'' से लेकर जोड़ तक़्सीम और घटाव की की कसरत में फँसे, 
                          आँकड़े बन कर रह गए लोगों की तक़लीफ़े, त्रासदी और लहुलुहान 
                          हक़ीक़तें दर्ज़ हैं जो उनकी ग़ज़लों के माध्यम से पाठक के मन 
                          को छू लेती हैं। ग़ज़ल को बोलचाल की ज़ुबान 
                          में कहना और भाषा की जीवंतता को भी बचाए रखना, दो 
                          अलग-अलग मुश्किल काम हैं जिन्हें 'परवेज़' ने अपनी ग़ज़लों 
                          में बख़ूबी निभाया। और उनकी ग़ज़लें अपने अंदाज़-ए-बयाँ की 
                          ख़ूबसूरती से जनमानस की रूह तक उतर जाने की क्षमता रखती 
                          हैं। उनके कुछ शे'र:''हमसे हर मौसम सीधा टकराता है
 संसद केवल फटा हुआ इक छाता है''
 भूख अगर गूँगेपन तक ले 
                          जाए तो आज़ादी का क्या मतलब रह जाता है?
 जोड़ लो तक्सीम दो चाहे 
                          घटा लोआँकड़े हैं लोग केवल आँकड़े हैं
 जितने हिस्सों में जब 
                          चाहा उसने हमको बाँटा है उसको है मालूम हमारी सोचों में सन्नाटा है
 हम गुफ़ाओं को ग़नीमत मान 
                          लें इस क़दर मौसम बिगाड़ा जाएगा
 हर गवाही से मुकर जाता 
                          है पेटउनकी जूठन तक उतर जाता है पेट
 हर सुबह, हर शाम बनिये 
                          की तरहमेरी चौखट पर पसर जाता है पेट
 हार कर ख़ुद भूख से 
                          अक्सर मुझे दुश्मनों की ओर कर जाता है पेट
 मेरे हाथों से मुहब्बत 
                          है उन्हेंउनकी आँखों में अखर जाता है पेट''
 ''सबके हिस्से से 
                          उन्हें हिस्सा सदा मिलता रहेचाहते हैं लोग कुछ, ये सिलसिला चलता रहे
 वक़्त तो लगता है आख़िर 
                          पत्थरों का है पहाड़मेरा मक़सद है वहाँ इक रास्ता बनता रहे''
 और  ''मसीहा वो करम फ़रमा 
                          गया हैसलीबों पर हमें लटका गया है
 ख़ुदा जाने हमारा हश्र 
                          क्या हो जिसे देखो वही नेता गया है''
 'शेष' 
                          अवस्थी  'शेष' अवस्थी एक 
                          महत्वपूर्ण ग़ज़लकार हैं जिन्होंने ग़ज़ल को आम आदमी के भोग, 
                          अनुभूति और अभिव्यक्ति का माध्यम माना। उनके लिए ग़ज़ल 
                          प्रेम का वह विराट रूप है जिसके कलेवर में मोह से लेकर 
                          भक्ति तक का समूचा संसार समग्रत: समा जाता है और यहाँ 
                          आकर ग़ज़ल विश्व्व्यापिनी हो जाती है, सार्वभौमिक हो जाती 
                          है।'' उनके ग़ज़ल संग्रह 'आपको मालूम है' की कलकता से 
                          प्रकाशित पत्रिका ''उद्गार'' में समीक्षा करते हुए 
                          ग़ज़लकार/ समीक्षक नूर मुहम्मद 'नूर' ने लिखा है कि इस 
                          संग्रह की तैंतीस ग़ज़लें ''उतने ही घावों की तरह हैं जो 
                          इस देश की देह पर देश के हक़ीमों ने बख़्शे हैं। दर्द और 
                          छटपटाहटों के ग़ज़लकार हैं 'शेष'। 'शेष' भाज्य और शेष के 
                          ग़ज़लकार हैं। सुख़न में तजुर्बे की बू है, फ़िक्र में दर्द 
                          की ख़ुशबू। 'शेष' की ग़ज़लों के शे'र अनुभवों से निचोड़े गए 
                          शे'र हैं।'' उनके कुछ शे'र:एक ही घटना निरंतर घट रही है
 पेड़ की हर नर्म टहनी कट रही है
 चाहिए जिसको नहीं उसके 
                          लिए हर काम हैकाम का हर आदमी इस दौर में नाकाम है
 दस्तकें सुनकर ज़ेहन की 
                          बंद मुँह जब खुल गयाहर गली चौपाल में तब से मचा कोहराम है
 गिर सके जैसे गिराया 
                          जाएगाहाथ गर ऊपर उठाया जाएगा
 छूट होगी ख़ंजरों को शहर 
                          मेंकलम को बंदी बनाया जाएगा
 वो हक़ीक़त को न खोले 
                          इसलिएज़ेहन पर अंकुश लगाया जाएगा।''
 
                          द्विजेन्द्र' द्विज' प्रख्यात कवि डॉ. 
                          तारादत्त 'निर्विरोध' ने द्विजेन्द्र' द्विज' के ग़ज़ल 
                          संग्रह 'जन-गण-मन' की समीक्षा में लिखा है: ''सैंकड़ों 
                          हिन्दी ग़ज़लों से गुज़रते हुए काफ़ी अर्से बाद मुझे 
                          द्विजेन्द्र 'द्विज' की ग़ज़लों ने कहीं गहरे तक प्रभावित 
                          किया है और मैंने उनके पहले ग़ज़ल संग्रह 'जन-गण-मन' की 
                          सभी ग़ज़लों को आद्यंत पढ़ा। पुस्तक को पढ़ते समय तीन बातें 
                          उभर कर सामने आई हैं- इन ग़ज़लों के सभी शे'र बोलते हैं, 
                          कुछ कहते हैं, कुछ कहना चाहते हैं, अपनी मौलिकता दर्शाते 
                          हैं और गूँगे-बहरे नहीं हैं। दूसरी बात यह कि सभी शे'र 
                          समय सापेक्ष हैं, सीमा में रहते हुए भी बाहरी आक्रमणों 
                          का खुल कर विरोध करते हैं, किसी स्तर पर कोई समझौता नहीं 
                          करना चाहते और तीसरी बात यह है कि इन ग़ज़लों की सोच में 
                          आज का आदमी है। ग़ज़लकार की सारी वक़ालत उस 'बीच के आदमी'' 
                          के लिए है जो भीतर और बाहर के आदमियों से संत्रस्त है, 
                          जिसे कालसर्प ने डस लिया है या फिर उसका जीवम चक्र तोड़ 
                          दिया गया है। ग़ज़ल की पृष्ठ भूमि में 
                          न जाकर भावभूमि में विचरें तो लगता है ''जन-गण-मन'' की 
                          ५६ ग़ज़लों में ऐसा बहुत कुछ है जि हमारे दूर-पास है या 
                          फिर काल भ्रमित अंधेरों में डूबा हुआ कोई आदमी है जिसे 
                          वर्षों से अपनी पहचान की एक निरंतर तलाश है। ग़ज़लकार कहीं 
                          भी रहे, उसका दृष्टि विस्तार ऐसा है कि वह जीवन का 
                          कोना-कोना झाँक आया है। यही सब है आलोच्य कृति के 
                          कृतिकार द्विजेन्द्र 'द्विज' की ग़ज़लों के मूल में। 
                          उन्होंने ग़ज़ल के माध्यम से सिरधरों की दोग़ली नीतियों पर 
                          भी प्रहार किए हैं तो सामाजिक विद्रूपताओं के ख़िलाफ़ भी 
                          प्रश्न खड़े किए हैं और इन प्रहारों-प्रश्नों में जीवन का 
                          क्रूर सच उदघाटित होता नज़र आता है:पर्वतों में जीता हुआ उनका ग़ज़लकार अपनी ज़मीन से अनजुड़ा 
                          नहीं है और विषम परिस्थितियों को भी दर्शाता है-
 ''ख़ुद तो ग़मों ही रहे हैं आसमाँ पहाड़
 लेकिन ज़मीन पर हैं बहुत मेहरबाँ पहाड़।
 हैं तो बुलंद हैसलों के 
                          तर्जुमाँ पहाड़पर बेबसी के भी बने हैं कारवाँ पहाड़।''
 ग़ज़लकार को उन सभी लोगों 
                          की बाख़ूबी पहचान है जो अपने सिवा किसी को नहीं जानते- भूलो, तुम ने ये 
                          उँचाइयाँ भी हमसे छीनी हैं हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते
 तुम्हारी यह इमारत रोक 
                          पाएगी हमें कब तकवहाँ भी तो बसेरे हैं जहाँ गुम्बद नहीं होते।
 ग़ज़लकार ने समय के ग़लत 
                          लोगों को आज के आदमी और उसकी क्षमता का भी आभास कराया है 
                          ताकि वे समय रहते अपने रास्ते बदल सकें:''बंद कमरों के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम
 खिड़कियाँ हों हर जगह ऐसी दुआ लिखते हैं हम
 जो बिछाई जा रही हैं 
                          ज़िन्दगी की राह मेंउन सुरंगों से निकलता रास्ता लिखते हैं हम।
 किंतु विवशता यह है कि 
                          हम कितने ही चलें, चलते राहगीरों को भी रास्ते नहीं 
                          मिलते और लोग हैं कि न वे ख़ुदा से डरते हैं, न ख़ुदाई से 
                          और ही अपने आप से तभी तो ग़ज़लकार कहता है- बराबर चल रहे हो और फिर 
                          भी घर नहीं आता तुम्हें यह सोच कर लोगो कभी क्या डर नहीं आता
 तुम्हारे दिल सुलगने का 
                          यकीं कैसे हो लोगों कोअगर सीने में शोला है तो क्यों बाहर नहीं आता।''
 स्थिति यह है कि सब 
                          कहीं अंधेरा व्याप्त है और मन की किरण किसी के साथ नहीं 
                          ।संग्रह के इस महत्वपूर्ण शे'र का यही मंतव्य और कथ्य 
                          है-''जिन किताबों ने अँधेरों के सिवा कुछ न दिया
 है कोई उनको यहाँ आग लगाने वाला?''
 ग़ज़लकार 'द्विज' ने थके 
                          हारे लोगों की थकानों को भी लिखा है तो पंख कटे आहत 
                          पक्षी जैसे आदमी की उड़ानों को भी-''ढली है इस तरह ये ज़िन्दगी थकानों में
 यक़ीन ही न रहा अब हमें उड़ानों में
 जगह कोई जहाँ सर हम 
                          छुपा सकें अपनाअभी भी ढूँढते फिरते हैं संविधानों में।''
 दुरस्थिति यह है कि बात 
                          तो हम जन गण मन की करते हैं, किंतु यह भी सच है कि हम 
                          जहाँ थे वहीं रह गए हैं एक लंबी दूरी की अंतर्यात्राओं 
                          के बाद भी- पृष्ठ तो इतिहास के 
                          जन-जन को दिखलाए गएख़ास जो संदर्भ थे ज़बरन वो झुठलाए गए
 घाट था सबके लिए पर फिर 
                          भी जाने क्यों वहाँकुछ प्रतिष्ठित लोग ही चुन-चुन के नहलाए गए
 जन गण मन की अवधारणा को 
                          सांकेतिक भाषा में व्यक्त करते हुए भी आलोच्य कृति की 
                          ग़ज़लें आने वाले समय से जोड़ती हैं वर्तमान और उसके अतीत 
                          को जिसमें कोई आगामी अतीत भी है और जिसका साक्षी है वह 
                          बीच का आदमी।कहना चाहूँगा, ''जन गण मन'' ग़ज़ल संग्रह की ग़ज़लें उस 
                          विकल्पहीन आदमी के मन की सशक्त अभिव्यक्ति हैं जो मौन 
                          रहने के बजाए अपनी पैरवी करना ज़रूर चाहता है और बधाई 
                          देना चाहूँगा 'द्विज' जी को जिन्होंने भीड़ में घिरे रहने 
                          के बावजूद अपनी सोच और आवाज़ को बुलंद किया है। यह एक 
                          सार्थक प्रयास है आगामी सूर्य की अगुवानी के लिए।''
 डॉ. 
                          प्रेम भारद्वाज डॉ. प्रेम भारद्वाज 
                          राजभाषा हिन्दी की पश्चिमी उपभाषा पहाड़ी, जिस पर पंजाबी 
                          तथा डोगरी भी अधिकार जमाती हैं, में ''मौसम खराब है'' 
                          तथा ''कई रूप रंग'' नाम के दो ग़ज़ल संग्रहों के माध्यम से 
                          पहले ही एक व्यापक वर्ग तक पहुँच चुके हैं। डॉ. प्रेम 
                          भारद्वाज ने भेडू, बकरू, मछियाँ (मछलियाँ), फरडू(ख़रगोश), 
                          उल्लू, बगुले, कछुए, कबूतर, एवं कुत्ता इत्यादि शब्दों 
                          को अपनी पहाड़ी ग़ज़लों को रदीफ़ बना कर सशक्त प्रतीकों के 
                          रूप में प्रयोग कर ग़ज़ल की अद्भुत संप्रेषण शक्ति के साथ 
                          उसकी उद्धरणीयता एवं प्रभावोत्पादकता का जीवंत उदाहरण 
                          प्रस्तुत कर पहाड़ी ग़ज़ल की परम्परा के विकास में 
                          महत्वपूर्ण योगदान तो दे ही चुके हैं, उनका हिन्दी ग़ज़ल 
                          संग्रह ''मौसम-मौसम'' भी जन जीवन के यथार्थ को अपनी 
                          समग्रता में प्रस्तुत कर चुका है। प्रेम का ग़ज़लकार कोरी 
                          बौद्धिकता व पांदित्य की जुगाली से बचता हुआ अपने परिवेश 
                          कि दुखती रग पर हाथ रखते हुए अपने अनुभवों को सार्थक 
                          अभिव्यक्ति देता है। नींव से दीवार की 
                          गुफ़्तगू हो या ख़राब मौसम के समकक्ष मुरम्मर होती छतरियों 
                          के संकेत, दुनिया के टमटम पर पूँजी के चाबुक की बौछार हो 
                          या उत्पीड़न के चलते आँचल के परचम बन जाने का अंदेशा,एटमी 
                          दौर में आने वाली नस्लों की किलकारियों के गुम हो जाने 
                          की फ़िक्र हो या सत्य को नकार कर क़ाग़ज़ी कार्यवाही पर चलती 
                          व्यस्था के जयघोष के प्रति आक्रोश, प्रेम इन सब 
                          स्थितियों के ईमानदार पर्यवेक्षक हैं: क्या अँगारे और क्या 
                          मौसम ठीक नहीं जब मन का मौसम
 मजबूरी की थाप पड़ी तोहारी आदर्शों की सरगम
 कुछ भी कह लो होता यह 
                          हैपूँजी चाबुक दुनिया टमटम
 उत्पीड़न जब बढ़ जाता है
                          आँचल बन जाता है परचम
 फिर मुरम्मत हो रही हैं 
                          छतरियाँबादरी आकाश पर छाने लगी है
 कब तलक तेरा भरम पाले 
                          रहूँनींव से दीवार बतियाने लगी है
 एटमी है दौर उस पर जान 
                          लेवा दुश्मनी अगली नस्लों की कहाँ किलकारियाँ रह जाएँगी
 नाव का रुख़ है भँवर की 
                          ओर जिस रफ़्तार सेअब सवारों के लिए लाचारियाँ रह जाएँगी
 इनमें ग़ज़लें हैं तरक़्क़ी 
                          सोज़ चिंतन प्रेम कीइन किताबों के लिए अल्मारियाँ रह जाएँगी।''
 रिश्ते तमाम तोड़कर अपनी 
                          ज़मीन सेख़ुद के निशाँ तलाशिएगा ख़ुर्दबीन से
 
                          पवनेन्द्र 'पवन'  पवनेन्द्र 'पवन' का 
                          ग़ज़लकार अपने आसपास को बड़ी बारीक़ी से परखता है। यह 'पवन' 
                          की नज़र का कमाल है कि वे स्कूली बच्चों के के बस्ते में 
                          पड़ी परकार और पैंसिल को अद्वितीय प्रतीक के रूप में अपनी 
                          ग़ज़लों में प्रयोग करते हैं: जीवन के निर्माण का हर 
                          औज़ार है इनके बस्ते मेंपुस्तक, कापी पैमाना, कलम, परकार है इनके बस्ते में
 राडार 
                          ,यान,कम्प्यूटर,बंगला कार है इनके बस्ते मेंइनकी पहुँच से दूर बहुत बाज़ार है इनके बस्ते में
 इनको बौना रखने कोई 
                          साज़िश लगती है हमकोइनके भार से भी ज़्यादा जो भार है इनके बस्ते में
 धरा का दु:ख अंबर से कह 
                          सुनाने के लिए पहाड़ों से की गई उनकी गुहार अभिव्यक्ति की 
                          प्रखरता का एक अनूठा एवं प्रभावोत्पादक नमूना है: उसे दु:ख धरा का सुनाना 
                          पहाड़ो!कि अंबर तुम्हारे बहुत पास होगा
 वे खेत खलिहान, घर जला डाले जाने के बावजूद 'मल्हार पर' 
                          ग़ज़ल लिखने वाले दरबारी कवियों से अलग हैं:
 ''खेत, घर, खलिहान अपना तो जला डाला गया
 हम मगर बैठे ग़ज़ल लिखते रहे मल्हार पर''
 पवनेन्द्र पौराणिक 
                          संदर्भों का भी अत्यन्त जागरूकता के साथ उपयोग करते हुए 
                          ग़ज़ल को अभिव्यक्ति और संप्रेषण की ऊँचाइयाँ प्रदान करते 
                          हैंबड़े घर के हर एक 'अर्जुन' के पीछे
 किसी 'एक्लव्य' का इतिहास होगा
 माँ का पेट रदीफ़ वाली 
                          उनकी यह ग़ज़ल उनकी अभिव्यक्ति की प्रखरता की विशिष्ट 
                          पहचान है: भूख से लड़ता रोज़ 
                          लड़ाई माँ का पेटसूख गया सहता महँगाई माँ का पेट
 मुफ़्त ले बैठा मोल 
                          लड़ाई माँ का पेटदेकर सबको बहनें भाई माँ का पेट
 कोर निगलते ले उबकाई 
                          माँ का पेटखा जाता है ढेर दवाई माँ का पेट
 सड़कों पर अधनंगे 
                          ठिठुरे सोते हैं जोउन बच्चों को एक रज़ाई माँ का पेट
 मेहमाँ, गृहवासी, फिर 
                          कौआ, कुत्ता, गाय,अंत में जिसकी बारी आई माँ का पेट
 झिड़की-ताना, हो जाता 
                          है जज़्ब सब इसमेंजाने कितनी गहरी खाई माँ का पेट
 कमल 
                          नयन शर्मा 'कमल'  कमल नयन शर्मा 'कमल' नए 
                          ग़ज़लकारों की उस पौध का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनके 
                          यहाँ संबंधों के समीकरण समूचे परिवेश के विद्रूप की बात 
                          करने का माध्यम बनते हैं और जब आक्रोश व द्वंद्व 
                          अनियंत्रित हो जाता तो उनकी ग़ज़लों के माध्यम से रचनात्मक 
                          रूप में फूट पड़ता है: शहर में रिश्तों के अब 
                          के हो रहा दंगा बहुतद्वंद्व कपड़ों में भी हो कर दिख रहा नंगा बहुत
 नर्म हो कर आप रहना 
                          ,वक़्त है बदला हुज़ूरमार सहते आप ही की तन गया कंधा बहुत
 स्वर ये मन-मस्तिष्क के 
                          जब एक जैसे हो गएफट पड़ा आक्रोश बेशक हमने समझाया बहुत
 
                          चंद्ररेखा ढडवाल चंद्ररेखा ढडवाल मूलत: 
                          कविताएँ लिखती हैं, लेकिन ऐसी ग़ज़लें भी उन्होंने कही हैं 
                          जिनमें समकालीन ग़ज़ल के तेवर, मुहावरा और संवेदना पूरी 
                          शिद्दत के साथ मौजूद है: ''फ़ाख़्ता उम्र भर घर बना न सकी
 और दावा हवा का वो क़ातिल नहीं''
 नलिनी 
                          विभा ''नाज़ली'' नलिनी विभा ''नाज़ली'' 
                          की ग़ज़लें भी देश की उर्दू हिन्दी पत्रिकाओं में सम्मानित 
                          स्थान प्राप्त करती आई हैं। उनकी फ़िक्र की उड़ान भी असीम 
                          है। बहारों के ख़्वाबों का टूटना "नाज़ली" की पलकों को 
                          आँसुओं से भर जाता है और वे अपने दर्द को क़ाग़ज़ पर उँडेल 
                          देती हैं और यह अंदाज़ उनके क़लाम की ख़ूबसूरती बन जाता है 
                          : टूट जाएँगे सभी ख़वाब 
                          बहारों के मगरबन के आँसू मेरी पलकों को वो भर जाएँगे
 यहीं जीना इसी मिट्टी 
                          में ही मिलना है हमेंछोड़ कर अपनी ज़मीं और किधर जाएँगे
 दर्द जब हद से बढ़े और न 
                          झेला जाएतो ग़ज़ल कहके वो क़ाग़ज़ पे उँडेला जाए
 पुलिंदा झूठ का है ये 
                          सियासतमगर सच का ग़िलाफ़ ओढ़ा हुआ है
 अश्क़ है आँखों में 
                          गिरता क्यूँ नहीं बन के इक शोला लपकता क्यूँ नहीं
 तीरगी में दम मेरा 
                          घुटने लगाचाँद बादल से निकलता क्यूँ नहीं
 दोस्त रखते जो राब्ता 
                          मुझसेहाल कोई तो पूछता मुझसे।
 मेरी कश्ती डुबा ही दी 
                          आख़िरथा खफ़ा मेरा नाख़ुदा मुझसे।
 'नाज़ली' बनके किस क़दर 
                          मासूम पूछता है वो मुद्दआ मुझसे।''
 नवनीत 
                          शर्मा  हिमाचल की हिन्दी कविता 
                          के अत्यंत ऊर्जावान व संस्कारवान स्वरों में प्रमुख एक 
                          स्वर नवनीत शर्मा का भी है जो मूलत: कवितायें लिखते हैं, 
                          लेकिन चाँद जैसे चेहरे पर मकाँ, रोटी, और दर्द का लिखा 
                          जाना हो, या माथे पर पसीने से, केवल चलते जाना अंकित कर 
                          दिया जाना हो या फिर फटेहाल गाँव को दिल्ली द्वारा 
                          ख़ुशहाल घोषित किए जाने की कोरी घोषणा हो नवनीत को ग़ज़लें 
                          कहने के लिए भी प्रेरित करता है। चोट खाए हुए लम्हों का 
                          असर उनकी ग़ज़ल में रूह के चेहरे के मुहासे तक दिखा सकता 
                          है। लीजिए उनके कुछ ख़ूबसूरत शे'र: ''साफ़ लिक्खा है मकाँ, 
                          रोटी, दर्द चेहरे परजिसको कहते थे कभी चाँद ज़माने वाले
 जिनके माथे पे पसीने से 
                          लिखा हो चलनाहैं वही लोग तेरा साथ निभाने वाले
 गाँव बड़ा ख़ुशहाल है 
                          भाई!यूँ दिल्ली की बानी सुनना
 हम मकाँ ग़ैर के बनाते 
                          हैंअपना मुमकिन नहीं है घर होना
 वो तो शातिर हैं वो 
                          सिखा देंगेआबे ज़म-ज़म को भी ज़हर होना
 चोट खाए हुए लम्हों का 
                          असर है कि उसे रूह के चेहरे पे दिखते हैं मुँहासे कितने''
 सच के क़स्बे पे मियाँ 
                          झूठ की सरदारी हैअब अटकते हैं लबों पर ही ख़ुलासे कितने
 थे बहुत ख़ास जो सर तन 
                          के चलते थे यहाँअब इसी शहर में वाक़िफ़ हैं अना से कितने।''
 नरेश 
                          पाल "निसार" ग़ज़ल विधा को गंभीरता से 
                          लेने वाले नरेश पाल "निसार" भी प्रदेश के प्रतिभाशाली 
                          युवा शायरों में से एक हैं। स्थिति की विडंबना और क़लाम 
                          की खूबसूरती यह है कि एक भूखे पेट प्रेमी का अपनी 
                          प्रेमिका से मिलने की क़सम खाना ही पेट में निवाला पड़ने 
                          जैसा लगे, और समय के थपेड़ों से अपना चेहरा भी पहचाना न 
                          जा सके, और जलता हुआ दिल भी सुलगते कश्मीर-सा दिखाई दे।
                           सारी रंगत उड़ गई चेहरा 
                          भी काला पड़ गयावक़्त से लगता है अब उसको भी पाला पड़ गया
 उसने मिलने की क़सम खाई 
                          तो कुछ ऐसा लगाजैसे भूके पेट में कोई निवाला पड़ गया
 बाद बरसों के जो देखा 
                          आइना तो यूँ लगाकौन है ये अजनबी जिससे कि पाला पड़ गया
 रह गया जलने-सुलगने के 
                          लिएदिल मेरा कश्मीर हो कर रह गया
 उनके हाल ही में 
                          प्रकाशित "बरसात में" नामक ग़ज़ल संग्रह में से लिया गया 
                          का यह शेर भी बहुत कुछ कहता है: रहे ज़िंदा किसी भी रंग 
                          में शीरीं ज़बाँ उर्दूइसी बाइस तो मैं उर्दू को भी हिन्दी में लिखता हूँ
 बाज़ारवाद के चलते 
                          मनुष्य का एक वस्तु हो कर रह जाना भी निसार की ग़ज़लों में 
                          चिंतन का विषय बना है:कब तक "निसार" काटोगे ग़ुरबत की ज़िन्दगी
 बिकना क़बूल हो तो ख़रीदार हैं बहुत
 पीत पत्रकारिता भी उनके 
                          शे'रों के निशाने पर है:लिखते हैं चंद लोग ही अब तो पते की बात
 यूँ तो हमारे मुल्क में अख़बार हैं बहुत.
 सतपाल 
                          ''ख़्याल''  सतपाल ''ख़्याल'' ने 
                          बहुत परिश्रम और गंभीर अध्ययन के बाद शे'र कहने की 
                          सलाहियत हासिल की है। समकालीन ग़ज़ल को समर्पित ब्लाग आज 
                          की ग़ज़ल के माध्यम से बहुत-से शायरों/ग़ज़लकारों को वे 
                          ब्लाग जगत के लिए प्रस्तुत कर चुके हैं। उनके शे'रों का 
                          अंदाज़ उन्हें बहुत-से अन्य ग़ज़लकारों से अलग करता है।सतपाल ''ख़्याल'' के ये शे'र देखिये:
 नंगापन भी तो यहाँ फ़न 
                          की तरह बिकता हैअब तो जिस्मों की नुमाइश ही अदाकारी है
 किसने तोड़े शाख से 
                          खिलते गुलाबतितलियों पर किसने फ़ैंका है तेजाब
 दरिया से तालाब हुआ हूँअब मैं बहना भूल गया हूँ
 साँसों का ईंधन हैं जोयाद वही पल करता हूँ
 पुर्जा-पुर्जा उड़ गए 
                          कुछ लोग कल बारुद मेआज आई है खबर कि अब बढ़ी है चौकसी
 मेरी ग़ज़लें नही 
                          मोहताज़ तेरे फ़ैसलों की सुनहै इनका ठाठ ही अपना, रवानी इनकी अपनी है''
 प्रकाश 
                          बादल युवा ग़ज़लकार प्रकाश 
                          बादल के यहाँ ग़ज़ल के लिए आवश्यक समसामयिक सामाजिक 
                          चिंताएँ, भाव-भंगिमा और मुहावरा तो है और वे एक संवेदना 
                          व संभावना संपन्न ग़ज़लकार भी हैं लेकिन वे ग़ज़ल को उसके 
                          छंद के बंधनों से मुक्त रखने के पक्ष में खड़े दिखते रहना 
                          चाहते हैं, भले ही ग़ज़ल के आधारभूत नियम उनकी इस मान्यता 
                          का समर्थन नहीं करते। उनकी ये शे'रों जैसी पँक्तियाँ 
                          समकालीन ग़ज़ल के कथ्य से कहीं भी अलग नहीं हैं: कटे हुए सर लिए घूमती 
                          हैंहवाएँ ख़ंजर लिए घूमती हैं
 आपकी नज़र में नज़र में 
                          होगा तिनका वोचिड़िया चोंच में घर लिए घूमती है
 घरों को बौना रखने के 
                          आदेश जो दे गए हैं,आसमान चूमती उनकी आप इमारत देखिये।
 विज्ञापनों के खूँटे 
                          में बँधा हुआ अखबार,क्या लिखेगा सच की इबारत देखिये।
 इन तमाम शायरों, 
                          ग़ज़लकारों की ग़ज़लों के शे'र समकालीन ग़ज़ल की अपेक्षाओं, 
                          उसके स्वरूप एवं उसमें हिमाचल के योगदान को स्वत: स्पष्ट 
                          कर देते हैं। यहाँ भी ग़ज़ल का रूमान के कल्पनालोक से जीवन 
                          की चुभती सच्चाइयों की ज़मीन की ओर लौट आना ग़ज़ल के सुखद 
                          भविष्य की ओर संकेत है।  
                          ४ मई २००९ |