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							नवगीत का सौंदर्य बोध
 -डॉ. 
							राजेन्द्र गौतम
 
 
							प्राचीन साहित्यशास्त्र में स्वीकृत काव्य-धर्म की 
							रसाश्रितता और आधुनिक समीक्षाशास्त्र में मान्य उसकी 
							सौन्दर्य-निष्ठता तत्वतः अभिन्न है, परन्तु युग 
							परिवर्तन के साथ-साथ सौन्दर्य के न केवल निर्धारक 
							मानदण्ड बदलते रहते हैं, बल्कि उसमें स्वरूपगत अंतर भी 
							आता रहता हैं इसी से प्रत्येक काव्यधारा की निजी 
							सौन्दर्य-दृष्टि होती है। आधुनिक हिन्दी काव्य में, 
							छायावाद ने सौन्दर्य के जो स्वच्छन्दतावादी मान 
							उपस्थित किए थे, निश्चय ही वे एक नवीन इतिहास के 
							संस्थापक सिद्ध हुए थे परन्तु यह भी सही है कि वे 
							स्वयं में पर्याप्त नहीं थे। इसीलिए परवर्ती 
							काव्यान्दोलनों ने उसको नया रूप दिया। 
							 
							नवगीत के माध्यम से यह परिवर्तन पुनः एक ऐतिहासिक मोड़ 
							लेता है- गत तीन दशकों का हिन्दी काव्य इसका साक्षी है। 
							सौन्दर्य-शास्त्र दर्शन, मनोविज्ञान एवं नृतत्व के 
							उपलब्ध ज्ञान के आलोक में मानव-मन की संवेदन प्रक्रिया 
							का अध्ययन करता हैं। साहित्य में एक ओर सुन्दर की 
							अभिव्यक्ति रहती है, दूसरी ओर अभिव्यक्ति का सौन्दर्य। 
							इसीलिए सौन्दर्य-शास्त्र रस-निष्पत्ति, साधारणीकरण 
							अथवा संवेदना से जितना जुड़ा है, उतना ही 
							अभिव्यंजना-शिल्प एवं शैली विज्ञान से भी । यदि उसका 
							एक चरण परम्परा की सुदृढ़ भूमि पर टिका है, तो दूसरा 
							आधुनिकता के निये क्षितिज की ओर उठा रहता है। 
							काव्य-मूल्यों की दृष्टि से नवगीत भी स्वयं में 
							परम्परा और आधुनिकता की संश्लिष्ट परिणति है। व्यापक 
							जन-सम्पृक्ति, गहन वैयक्ति आवेग, स्वकीय लोक-धर्मिता 
							और युगबोध की सचेतता के साथ-साथ नये एवं समृद्ध शिल्प 
							की योजना नवगीत की प्रमुख विशेषताएँ है। इसीलिए यदि यह 
							काव्य-धारा बीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध की हिन्दी 
							कविता में विशिष्ट उपलब्धि के रूप में स्वीकार की जाए 
							तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 
 नवगीत की सौन्दर्य-चेतना अपने पूर्ववर्ती-काव्य एवं 
							समसामयिक काव्य रूपों से दो धरातलों पर भिन्न है। इस 
							भिन्नता को विषय के रूप में गृहीत सौन्दर्य उपादानों 
							के चुनाव तथा अभिव्यक्ति-सौन्दर्य में इसके द्वारा 
							उपस्थित किये गये क्रांतिकारी परिवर्तन के रूप में 
							देखा जा सकता है। सैद्धान्तिक रूप में छायावादी 
							सौन्दर्य-दृष्टि व्यक्तिपरक, भाववादी एवं 
							सूक्ष्मता-केन्द्रित थी। छायावादोत्तर काल में यह 
							व्यक्तिवादी दृष्टि ही मांसल एवं रोमानी अधिक हुई है, 
							जबकि प्रगतिवादी और प्रयोगवाद की मूल चेतना को 
							यथार्थोन्मुख होने के कारण इनमें सौन्दर्य के 
							वाह्यमानों को ही अधिक प्रमुखता मिली है, परन्तु नवगीत 
							के नये युग के सौन्दर्यबोध को उसकी वस्तुपरक 
							प्राणवत्ता और भावपरक तरलता के संयोगात्मक रूप में 
							उपस्थित किया है। यद्यपि नवगीत की दृष्टि भी 
							यथार्थमूलक है, पर यह यथार्थ प्रगतिाद की भांति केवल 
							स्थूल उपयोगिता तक केन्द्रित नहीं है और नही यह 
							प्रयोगवाद की तरह भदेस का ही पर्याय है। आधुनिक 
							संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान के भारतीय जीवन को उसकी 
							मानसिकता को जो नया रूप दिया है, उसके अनुरूप ही नवगीत 
							को सौन्दर्य चेतना विकसित हुई है, उसने विराट और महान 
							से परहेज नहीं किया है, परन्तु जीवन की साधारणता में 
							भी उसने सौन्दर्य की पहचान की है, उसकी सहजता में भी 
							उसने सौन्दर्य को पाया है और समस्त विसंगतियों के बीच 
							उसे अनुभव किया हैं परम्परिक गीत के पनघटी अभिसार से 
							ऊबकर प्रगतिवाद की निवैयक्तिक अंतराष्ट्रीयता से विमुख 
							होकर और प्रयोगवाद तथा नयी कविता की लयहीन चमत्कारिकता 
							से आहत हेकर नवगीतकार ने वैयक्तिक ऊष्मा में तपाकर 
							जीवन के यथार्थ, कठोर एवं खुरदरे रूपों में जिस 
							सौन्दर्य को देखा है, वह उसकी नवीन दृष्टि की परिचायक 
							है।
 
 नवगीत की मूल चेतना के स्रोत ’’निराला’’ हैं। उनके 
							पश्चात गत तीन दशकों में नवगीत की परिष्कृत 
							सौन्दर्य-चेतना ने हिन्दी कविता को नये आयाम दिये हैं। 
							नवगीत के प्रथम चरण से जुड़े कुछ कवियों में यद्यपि 
							छायावादी अवशेष थे, परन्तु क्रमशः स्वयं को रोमांसवादी 
							भावबोध से मुक्त करते हुए नवगीतकारों ने सौन्दर्य के 
							नवीन गवाक्षों को खोला है।
 
 नारी और प्रकृति काव्य में ग्रहण किये जाने वाले 
							सौन्दर्य के शाश्वत उपादान है और नवगीत इसका अपवाद 
							नहीं। परन्तु इन दोनो ही क्षेत्रों में नवगीतकार ने 
							रूढ़ियों की जकड़न को तोड़ा है। नवगीतकार के लिए नारी न 
							तो रीतिकालीन नायिका विशेष है और न ही छायावादी अदृष्ट 
							दिव्यलोक की प्रेयसी, बल्कि उसके लिए नारी सहकर्मिणी, 
							मित्र और जीवन की सहभोक्ता है। इसी नव्य सम्बन्ध योजना 
							ने उसके सामने नये सौन्दर्य-मूल्यों को उपस्थित किया 
							हैं उसके लिए नारी न तो वह स्थूल उपभोग सामग्री है, 
							जिसके सौन्दर्य को नखशिख के बीजक से ही वर्णित किया जा 
							सके और न ही उसकी मानसिकता इतनी बंधनग्रस्त है कि वह 
							अपने सौन्दर्य की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति की अपेक्षा 
							अस्पष्ट प्रतीकों का आश्रय ले। वियुक्ता प्रेयसी का 
							संदर्भ हो या संयुक्ता सहचरी की मुग्धकर्त्री छवि का- 
							नवगीतकार ने शरीर धर्मी सौन्दर्य को हेय नहीं माना है 
							पर रूप के उस स्वर्ण में उसने सम्बन्धों की भावगंध को 
							अवश्य सम्मिश्रित किया माना है। नवगीतकार की 
							सौन्दर्य-दृष्टि अकुंठ है। उसने यदि नारी के सौन्दर्य 
							को यौवन के अयलज अलंकारों और कंगन, चूड़ी, बिछुवा, 
							कर्णफूल आदि दैनंदिन प्रयुक्त होने वाले शोभावर्धक 
							आभूषणों के साथ चित्रित किया है, तो साथ ही उसने 
							मेंहदी, महावर, सिंदूर, काजल, कुंकुम, रोली आदि वर्ण-सज्जाओं के साथ भी नारी का चित्रण किया है, किन्तु ये 
							अलंकरण मात्र शोभावर्धक नहीं है बल्कि विशिष्ट 
							सांस्कृतिक सामाजिक रीतियों व परिवेश के अंग भी है।
 
							वस्तुतः नवगीतकार का नारी विषयक सौन्दर्यबोध वैयक्तिक 
							न होकर सामाजिक सौन्दर्य चेतना का प्रतिनिधित्व करता 
							है। साथ ही नवगीतकार ने सौन्दर्य को लोक-जीवन के 
							परिप्रेक्ष्य में चित्रित करते हुये उसकी संप्रेषणीयता 
							को बढ़ाया है। निराला ले ’बाँधों न नाव इस ठाँव बन्धु’ 
							गीत में स्मृति के माध्यम से घाट में धँसकर नहाती 
							प्रेयसी के जिस रूप सौन्दर्य का चित्रण किया है, वह 
							नवगीत के पूर्ववर्ती साहित्य में अपवाद रूप में ही आया 
							है, आगे चलकर नवगीत ने सौन्दर्य का संपूर्ण 
							परिप्रेक्ष्य ही बदल दिया। यदि छठे दशक की 
							पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहे गीतों का सूक्ष्म 
							विश्लेषण करें तो पाते हैं कि इस काल में नवीन 
							सौन्दर्य परक दृष्टि के परिणामस्वरूप नवगीततात्मक 
							प्रवृत्तियों का अंकुरण स्पष्ट दिखलायी देने लगा था। 
							इस काव्य में नारी शिलास्थित होकर झील की लहरें गिनने 
							वाली चाँदनी की रजत-रश्मियों से बनी काया वाली प्रेयसी 
							नहीं है, बल्कि वह खेत-खलिहान में काम करती हुई 
							श्रमजीवी नारी है, अथवा मध्यमवर्गीय परिवार में घरेलू 
							कामों उलझी हुई गृहणी। इसीलिए उसके सौन्दर्य में पसीने 
							की गंध है और रूप में तरुणाई की छलकन।
 नवगीतकार ने घर-परिवार से जुड़े नारी-संदर्भों की 
							मिठास, संवेग और सामीप्यबोध को विशेष रूप से अपने 
							गीतों का विषय बनाया है, इसीलिये उसके सौन्दर्य चित्रण 
							में सांस्कारिक मर्यादा है, लम्पट निर्लज्जता नहीं। इस 
							रूप में यह काव्यधारा अपने भारतीय चेतना के साथ जुड़े 
							होने का प्रमाण देती है। उमाकान्त मालवीय, माहेश्वर 
							तिवारी, नईम और ओम प्रभाकर के गीतों में नारी को ऐसे 
							ही पारिवारिक संदर्भों में चित्रित किया गया है अथवा 
							देवेन्द्र शर्मा ’इन्द्र’ आदि कुछ अन्य कवियों के 
							गीतों में उसे प्रकृतिमय करके एक अभिजात औदात्य प्रदान 
							किया गया है। नवगीत का नारी-सौन्दर्य निरूपण न तो 
							रीतिकालीन रतिचित्रों का एलबम है, न इसमें छायावाद की 
							तरह अमूर्त कल्पनाओं की भरमार है और न ही आधुनिक 
							फ्रायडियन लेखन की कुंठाग्रस्त तमस-छायाएँ इस पर पड़ी 
							है। मानव मन की सहज रूप लिप्सा का तिरस्कार भी इसमें 
							नहीं है। नवगीत में नारी सौन्दर्य निरूपण के संदर्भ 
							में रवीन्द्र ’’भ्रमर’’ का उल्लेख एक विशष्टता के साथ 
							किया जाना चाहिए। भ्रमर जी का उत्तर काव्य प्रणय की 
							उदात्त भूमि पर ही स्थित है। उन्होंने नारी के मोहक 
							अंगिक सौन्दर्य और उससे उत्पन्न होने वाले सात्विक 
							प्रणय का व्यापक चित्रण अपने गीतों में किया है।
 
 जैसा कि पहले कहा गया है, छायावाद के बाद प्रकृति को 
							सर्वाधिक स्थान नवगीत में मिला है। पर नवगीत में 
							प्रकृति यथार्थ से पलायन के आश्रय-स्थल के रूप में 
							नहीं आयी है बल्कि एक ओर यहाँ वह अपनी स्वतंत्र 
							सौन्दर्यात्मक सत्ता रखती है, दूसरी ओर मानवीय अनुराग 
							या युग के त्रासद संदर्भ को संवेदनात्मक रूप में 
							उपस्थित करती है। अतएव नवगीत में प्रकृति पारम्परिक 
							रमणीय रूपों में ही चित्रित नहीं है, वरन इसमें वेदना 
							और उल्लास दोनों भावों की उपस्थिति है। यदि आलंकारिक 
							संदर्भों के माध्यम से इसमें सहज उल्लास की अभिव्यक्ति 
							अधिक है तो आज के जीवन के समानांतर उपस्थित किये गये 
							प्रकृतिबिम्बों में उदासी की तरलता अधिक है परन्तु यह 
							उदासी भी अपने चारेां ओर आकर्षण का एक चुम्बकीय 
							क्षेत्र निर्मित किये रहती है जो वेदना-संदर्भों को भी 
							सौन्दर्य-धर्मी बनाता है।
 
 प्रकृति के आंचलिक संदर्भों को नवगीत में शंभुनाथ 
							सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, शिवबहादुर सिंह भदौरिया व 
							अनूप ’’अशेष’’ ने विशेष रूप से चित्रित किया है। इन 
							आँचलिक संदर्भों में प्रकृति के सौन्दर्य की स्वतंत्र 
							व्यंजना अधिक हुई है। प्रकृति-सौन्दर्य के चित्रण की 
							माहेश्वर तिवारी की एक निजी शैली है। उन्होंने आज के 
							मनुष्य के छोटे से छोटे और बड़े से बडे़ अनुभव को इस 
							रूप में प्रकृतिमय किया है कि उनकी भाषा अनायास ही 
							बिम्बों की विशिष्टता पर गयी है। देवेन्द्र शर्मा 
							’’इन्द्र’’ ने विम्बरचना के लिए प्रकृति के सौन्दर्य 
							उपादानों का सर्वाधिक उपयोग किया है। साथ ही उन्होंने 
							प्रकृति के अनेक भव्य स्वतंत्र चित्र भी प्रस्तुत किए 
							हैं, यथा- ’’अमलतास के पीले-पीले फूलों वाली दोपहरी।’’ 
							इनके अतिरिक्त सुरेश श्रीवास्तव (संध्या ने आँचल से 
							पोछा चुवा पसीना कित्ता) कुमार रवीन्द्र (रात के कम्बल 
							बढ़ाकर बादलों को हवा ने कह दिया सोने को) देवेन्द्र 
							कुमार (गले हुए पीतल को सागर नाम न दो) तथा राजेन्द्र 
							गौतम (धूप के कुछ फूल धरता आ गया मौसम) आदि नवगीतकारों 
							ने प्रकृति के दृश्य-सौन्दर्य को अंकित किया है।
 
 चाँदनी-धुले अलिप्त चित्रों की अपेक्षा जीवन की 
							श्रम-धूलि से सने और माटी की गंध में रचे-बसे अनुभवों 
							को अंकित करने वाले नवगीतकार के लिए प्रकृति अपने वैभव 
							में ही सुंदर नहीं है, बल्कि उसने पत्रहीन ठूँठों और 
							ओर-छोर फेले मरुस्थल में भी सौन्दर्य को खोजा है। 
							पलाश, अमलतास और गुलमोहर जैसे ग्रीष्म में फूलने वाले 
							वृक्षों को नवगीत में जो प्रमुखता मिली है, वह इस बात 
							की परिचायक है कि नवगीत की सौन्दर्य-दृष्टि विपरीत 
							परिस्थितियों के बीच विकसित हो सकते वाली जिजीविषा से 
							प्रेरित है, क्योंकि वह मूलतः अस्थायी दृष्टि है।
 
 नवगीत में शिल्पगत नवता भी उसकी विशिष्ट 
							सौन्दर्य-चेतना की परिचायक है। यह विशिष्टता सपाटबयानी 
							की अपेक्षा बिम्बप्रधान रचना में व्यक्त हुई है। 
							सौन्दर्य मूलतः संवेदना का विषय है। बिम्ब 
							इंन्द्रिय-संवैद्य होने के कारण काव्य-शिल्प में 
							सौन्दर्य- विधान का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्व है। 
							काव्येतर जगत का सौन्दर्य प्रकृति की सृष्टि है जबकि 
							काव्य में उपस्थित सौन्दर्य उसके रचयिता कवि की सर्जना 
							है। कवि द्वारा सर्जित सौन्दर्य की रचना-प्रक्रिया का 
							विश्लेषण जटिल होते हुए भी सर्वथा अव्याख्येय नहीं है। 
							कवि जिस सुंदर को प्रस्तुत करता है तथा उसकी 
							प्रस्तुति में जिस शिल्प सौन्दर्य का आधान करता है, 
							उसमें सर्वाधिक सहयोग कल्पना का होता है किन्तु जहाँ 
							स्थूल कल्पना इतिवृत्तात्मक काव्य रचना में सहयोगी 
							होती है, वहाँ सूक्ष्म कल्पना भाववादी एवं 
							स्वछन्दतावादी साहित्य की सर्जिका है जबकि कल्पना अपने 
							पश्यन्ती अथा प्रतिभारूप में उस बिम्ब-प्रधान कविता की 
							रचना करती है जो अपने इर्द-गिर्द एक तेजवलय का निर्माण 
							करने में सक्षम है। नवगीत में ऐसी ही सौन्दर्य 
							विधायिनी कल्पना की सक्रियता देखी जा सकती है।
 
							नवगीत में अनुकृत, अलंकृत एवं स्मृत बिम्बों की बहुलता 
							नहीं है, वरन कल्पनाश्रित, प्रतीकात्मक, प्रतिभा, 
							मिथकीय एवं गत्यात्मक बिम्बों की प्रचुरता के माध्यम 
							से इसमें जटिल अनुभूतियों एवं अमूर्त संदर्भों से ठोस, 
							पारदर्शी एवं संश्लिष्ट अभिव्यक्ति प्रदान की है ओर ये 
							बिम्ब इतने मौलिक एवं सौन्दर्यनिष्ठ है कि हठात पाठक 
							को बाँध लेते हैं। इस दृष्टि से आधुनिक काव्य में 
							नवगीत विशिष्ठतम स्थान रखता है। ’’घायल दिन किरणों की 
							टहनी पर लटका’’ (देवेन्द्र शर्मा ’’इन्द्र’’) ऋचाओं सी 
							गूँजती अन्तर्कथाएँ डबडबाई आस्तिक ध्वनियाँ (महेश्वर 
							तिवारी) ’’एक हाथ कई-कई बलाएँ/जुती हुई अनगिनत 
							प्रतीक्षाएँ’’ (वीरेन्द्र मिश्र), आसमान की ऐंठन सी 
							घुएँ की लकीर (शंभुनाथ सिंह) फुनगियों पर बैठे 
							सूर्यास्त (कुमार रवीन्द्र) ’घाटियाँ ओढ़े कुसुंभी धूप 
							के टुकड़े (श्यामसुन्दर दुबे) ’एक अपशकुन आकर पसर गया 
							आस-पास’ (जहीर कुरैशी), उलझी है एक याद बरगद की डाल पर 
							(सोम ठाकुर), गुजर गया सन्नाटा इस सूने मोड़ से (नईम) 
							तथा उड़ गई पगडंडियों से खुशबुएँ सब आहटों की 
							(राजेन्द्र गौतम) जैसे नितांत नए टटके बिम्ब, मौलिक 
							अप्रस्तुत एवं नवीन संदर्भों के अन्वेषक नवगीत के 
							विशिष्ट सौन्दर्य शास्त्र का निर्माण करते हैं। 
							 
							नवगीत की सौन्दर्य चेतना न तो नयी कविता की भांति 
							चमत्काराश्रित है और न ही पारंपरिक गीत की भाँति रूढ़ 
							एवं रुग्ण मानसिकता से ग्रस्त। वह अपने पूर्ववर्ती 
							गीतिकाव्य की मात्र प्रेयस-केंद्रियता से अधिक व्यापक 
							और छायावाद की वायवीयता से अधिक मूर्त है। नवगीत की 
							सौन्दर्य परक अवधारणा पारंपरिक कविता से इस रूप में भी 
							भिन्न है कि इसमें अत्यंत परिचित और सामान्य को ही 
							विशष्ट रूप प्रदान किया है न तो नवगीत का कथ्य ही 
							सामान्य मानव के अनुभव से परे है और न ही इसमें 
							अप्रस्तुत एवं बिम्ब दूरारूढ़ अदृश्य लोक से लिये गये 
							है, तथापि ये परिचित संदर्भ रागात्मक तरलता से सिक्त 
							हैं। यही नवगीत की सौन्दर्यपरक विशिष्टता है। मनुष्य 
							एवं प्रकृति के अनुभवों का एकाकार होना और अभिव्यक्ति 
							का वैयक्तिक विशिष्टता से सम्पन्न होना नवगीत के भाव 
							और शिल्प सौन्दर्य का आधार है। इस दिशा में नवगीतकार 
							की सफलता का रहस्य यह है कि वह हिन्दी कविता के अन्य 
							सामायिक आंदोलनों की तरह सनसनी की खोज में पश्चिम के 
							अनुकरण के लिए मारा-मारा नहीं फिरा है, बल्कि अपनी 
							माटी की गंध से ही उसने कविता के क्षेत्र को महकाया 
							है। 
 अपने परिवेश के प्रति अत्यंत सजग एवं संवेदनशील होने 
							के कारण नवगीत की सौन्दर्य-चेतना यथार्थमूलक है। यही 
							यथार्थपरकता गीत को उस रोमानियत से मुक्त करती है, जो 
							साहित्य को जीवन से काटकर देखने की आदी रही है और 
							जिसके लिए कविता दिवास्वप्न के अधिक समीप हैं वस्तुतः 
							नवगीतकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती आज का विसंगतियों 
							भरा परिवेश ही था। ध्वंसक अणु-शस्त्रों के आतंक के 
							साये में, याँत्रिक युग के भयावह तनाव में, भौतिकता 
							के स्फोट से मानवीय संबंधों की खंडितता के बीच, 
							आदर्शों के टूट बिखर जाने वाले खोखलेपन के दौरान, 
							अनिश्चय की अँधेरी सुरंगो से गुजरते हुए, मुखौटाधारी 
							राजनीति के परिहासनाटक के बीच तथा मूल्यों की भित्ति को 
							भरभराकर गिरते देखते हुए भी जीवन में सौन्दर्य की एक 
							नवीन खोज ही मानवीय विश्वास की उपलब्धि का 
							एक मात्र रास्ता हो सकती थी और यह खोज जिस प्रकार के 
							सौन्दर्य तक इस पीढ़ी को ले गयी है, उस की मूल संरचना 
							का पूर्ववर्ती सौन्दर्य की ’’कैमिस्ट्री’’ से भिन्न 
							होना भी अपरिहार्य था, संभवतः इसीलिए नवगीतकार ने 
							मशीनी कोलाहल के बीच लयों का संधान किया है, तनावों के 
							बीच संवेगों को अभिव्यक्ति दी है, एकरस भौतिकता के बीच 
							प्राणवान बिम्बों का सर्जन किया है, बिखराव और टूटन के 
							बीच शिल्प को सश्लिष्टीकृत रूप दिया है।
 
							नवगीत का सौन्दर्य दर्शन इन्हीं विसंगतियों ओर विरोधों 
							के बीच विकसित हुआ है, इसी में उसके आधुनिकता-बोध की 
							प्रखरता नित्य विद्यमान रही हैं। नवगीत में मेहनतकश 
							मजदूर की दृढ़ता भी है और युवा चिंतक की सजगता भी 
							इसीलिए उसका सौन्दर्यबोध रीढ़वान भी है और सुरूचिपूर्ण 
							भी। याँत्रिकता और महानगरीयता ने यदि उसे जीवन का एक 
							नया बोध दिया है तो साथ ही इसी अनुभूति ने उसे जीवन के 
							एक दूसरे पक्ष से भी जोड़ा है। प्रकृति, आदिम संवेग और 
							ग्राम्य आंचलिकता नवगीत में सौन्दर्य-निरूपण के प्रमुख 
							घटक हैं। इनकी प्रमुखता का कारण यही है कि उपर्युक्त 
							याँत्रिकता एवं नगर-बोध ने नवगीतकार को उन अनुभवों के 
							साथ जुड़ने को प्रेरित किया है, जिनकी संजीवनी शक्ति 
							अक्षय है जो मानव जाति के आदिम संवेदना से गहरे 
							संपृक्त हैं। नवगीत में उस समाज निरपेक्ष कतिपय 
							सौंदर्य का चित्रण नहीं है, वरन नवगीतकार उस सौंदर्य 
							का स्रष्टा है, जिसका साक्षात्कार उसने स्वयं जीवन की 
							उन्मुक्तता में किया है और उसका वह अनुभव अपनी सामाजिक 
							प्रासंगिकता में जीवंत सुरुचिपूर्ण एवं संवेदनात्मक 
							है। |