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							नवगीत परिसंवाद-२०१२ में 
							पढ़ा गया शोध-पत्र 
							
							
							
							राजस्थान में गीतयात्रा निरन्तर 
							
							-डॉ. 
							रमेश 
							‘मयंक’ 
                             
                            
							आदिमानव किन्हीं नितांत 
							निजी क्षणों में श्रम की क्लान्ति मिटाने या किसी 
							भावावेशी प्रसंग में गुनगुना उठा होगा। यह गाने, 
							गुनगुनाने की आदत गीत बन गई। गीत हमारी दैनंदिन 
							संघर्षपूर्ण जीवन-लीलाओं से उबरकर मानव-मात्र् के 
							सस्वर अभिव्यक्त होने की सहज कला है। इसे मोहिनी 
							विद्या भी कहते हैं। गीत मनुष्य की पूर्णता का सामगान 
							और नरक से स्वर्ग लोक तक जाने की सीढी है। गीतों की 
							सनातनता ही उसकी समकालीनता है। इसमें युगों की 
							अन्तर्ध्वनि, प्राकृतिक सुषमा, ऋतु परिवर्तन से हुई 
							आंतरिक हलचल, उत्सवमय उल्लास की सामूहिकता का समावेश 
							है। गीत अपने होने की पहचान कराता है, स्वयं से संवाद 
							करने का अवसर प्रदान करता है। 
							 
							अमरकोश में गीत को गान 
							का समानार्थक माना गया है, गीतं गानमिमे समे, 
							हेमचन्द्र गीतं शाब्दित गानयौः कहते हैं। जब गान गेय 
							स्वर-संरचना और गेय शब्द-भाव से संयुक्त हुआ तब वह गीत 
							हो सका। गीत के नाट्यशास्त्रीय प्राचीन षडविध लक्षण 
							में स्वर, रस, राग, मधुराक्षर अलंकार एवं मनोदशा की 
							प्रामाणिकता का विधान किया गया है। गीत मानसिक स्थिति 
							का सर्वश्रेष्ठ सौन्दर्य है। श्री गोपाल दास नीरज के 
							शब्दों में, ‘‘गीत का जन्म अनायास ही नहीं हो जाता। 
							कहीं गीत में दर्शन छिपे होते हैं, तो कहीं रोमांस, तो 
							कहीं विद्रोह। गीत का मतलब लय है। नदी लय में बहती है, 
							हवा लय में बहती है। हमारा दिल लय में धड़कता है। हम जो 
							बोलते हैं वह भी लय में, यह सिलसिला चलता रहेगा। गीत 
							कभी मरने वाला नहीं हैं, क्योंकि 
							गीत जब मर जाएगा, केवल धुआँ रह जाएगा,  
							इन सिसकते आँसुओं का कारवाँ रह जाएगा।’’  
							 
							कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे, वाले इस कलमकार ने 
							गीतों में नवप्राण फूँके हैं, प्यार और दर्शन से सिक्त 
							किया है तथा हिन्दी गीतों की परम्परा को नूतन ऊँचाइयों 
							व आयामों का स्पर्श कराया है। डॉ. हरिवंशराय बच्चन ने 
							वियोग व संयोग को गीतों में ढाला है। गीत यात्रा के 
							स्वनाम धन्य प्रतिनिधि रचनाकारों में -- गोपाल सिंह 
							नेपाली, वीरेन्द्र मिश्र, रमानाथ अवस्थी, रामावतार 
							त्यागी, सोम ठाकुर, चन्द्रसेन विराट, चन्द्रकुमार 
							सुकुमार, कुंअर बेचैन, कुमार रवीन्द्र आदि चर्चित रहे 
							हैं। 
							 
							राजस्थान में श्री हरीश भादानी, रामनाथ कमलाकर, ज्ञान 
							भारिल्ल, ब्रजेन्द्र रेही, डॉ. रामगोपाल शर्मा 
							‘दिनेश’, डॉ. मनोहर प्रभाकर, बशीर अहमद मयूख, मरुधर 
							मृदुल, नन्द चतुर्वेदी, विश्वेश्वर शर्मा, तारादत्त 
							निर्विरोध, कुमार शिव, मधुकर गौड़, रमा सिंह, बलवीर 
							सिंह ‘करुण’, कृष्ण बिहारी सहल, ताराप्रकाश जोशी, 
							जबरनाथ पुरोहित, डॉ. हरीश, विद्यासागर शर्मा, विनोद 
							सोमानी ‘हंस’, जगजीत निशात, अब्दुल जब्बार, राव 
							अजातशत्रु, अजय अनुरागी, श्याम अंकुर, जगदीश तिवारी, 
							किशन दाधीच, हरमन चौहान, शंकर बजाड आदि मुख्य हैं। 
							श्री नन्द चतुर्वेदी, सप्त-किरण के संपादक रहे हैं, 
							जिन्होंने पहली बार राजस्थान के गीतकारों को प्रकाश 
							में लाने का कालजयी कार्य किया। श्री हरीश भादानी ने 
							जीवन के विविध अनुभवों को काव्य में यथार्थ की 
							सम्पन्नता, रूमानियत की तल्खी से व्यक्त किया। 
							उन्होंने, ‘एक उजली नजर की सुई’ में शुरुआत एक गीत से 
							की -- 
							मैंने नहीं कल ने बुलाया है  
							खामोशियों की छतें, आबनूसी किवाडों घरों पर  
							आदमी-आदमी में दीवार है  
							तुम्हें छैनियाँ लेकर बुलाया है ।  
							 
							डॉ. रामगोपाल शर्मा ‘दिनेश’ का प्रथम गीत संग्रह 
							‘वीरांगना’ था। ‘जलती रहे मशाल’ में कवि समाज से पूछता 
							है, मैं मस्जिद के द्वार गया तो मंदिर क्यों नाराज है 
							? मधुरजनी और रूपगंधा गीतिकाव्य परम्परा की 
							महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं। मधुरंजनी में कवि ने जीवन, 
							प्रकृति और आध्यात्म सम्बन्धी अनुभूतियों को मुखर किया 
							है। रूपगंधा में रूप की गंध गीतों को सुवासित करती है। 
							कवि ने प्रणय के एक-एक पल को जिया है और रूप को आत्मा 
							की गहराई तक उतार लिया है -- 
							राहें नई बनाने वालों  
							मंजल से भटकाने वालों  
							रुको, तुम्हें ललकार पूछता  
							एक नहीं क्या जग का मालिक  
							जिसके सिर पर ऊँची-नीची  
							सब दुनिया का ताज है,  
							मंदिर क्यों नाराज है ?  
							 
							ज्ञान भारिल्ल ‘ज्वार’, ‘आकाश कुसुम’ और ‘साँझ उतरी’ 
							के रचनाकार हैं। ज्वार-गीतों का शतक जिसमें रस प्रवणता 
							है, आकाश कुसुम वैयक्तिक सुख-दुख, आशा- निराशा के स्वर 
							को गीतों में मुखरित करने वाली कृति है। कवि का 
							जीवनदर्शन, ‘‘जन्दगी ज्वार है, मादकता है, अर्पण है। 
							जन्दगी रूप है, यौवन है, अल्हड़पन है’’- में व्यक्त 
							होता है। इनके गीतों में विरहजन्य अवसाद की गहरी छाया 
							है। साँझ उतरी में वियोग का अवसाद है, सर्वत्र् 
							अनुभूतिजन्य विरह गाथा है व निराश मन को समझाने का 
							भावुक प्रयास है -- 
							हर गली, हर रास्ता सुनसान है  
							आदमी की शक्ल में आक्रोश है, अपमान है  
							उठ रहा केवल धुआँ अब जन्दगी के वक्ष से  
							होंठ पर मुस्कान की विष का सवेरा है  
							रोशनी के नाम पर कितना अंधेरा है ।  
							---  
							इन पुकारों से ऋचाएँ प्रकट होंगी  
							यह धुआँ तस्वीर आँकेगा हवन की  
							इस घुटन की साधना में से जगेगा  
							स्वयंसिद्धा शक्ति विजडत विश्व मन की  
							गीतकार अपना स्वर सबके स्वर से टकराना व अपने गीतों को 
							जमाने भर को गाने देना चाहता है, क्योंकि बंद किवाडों 
							में उसका दम घुट जाएगा इसलिए रोशनी को सदन तक आने दो 
							की अभिव्यक्ति करता है। 
							 
							रामनाथ कमलाकर के गीतों में प्रणय निवेदन का स्वर 
							प्रधान रहा है। मिलन की आकांक्षा, इन्द्रधनुषी 
							कल्पनाएँ और विचरण के लिए स्वप्नों का मुक्त आकाश इनके 
							गीतों की विशेषताएँ रही हैं - 
							मेरे उर के द्वार कठिन जो तुम ही खोलो तो खुल जाएँ  
							बंद पड़े हैं जन्म-जन्म से, दरवाजे दीवार हो गए,  
							बेड़ी हथकड़याँ कारा ही, मेरे घर संसार हो गए ।  
							टूट सके तब ही बंधन, जो आप तोड़ने पर तुल जाएँ ।।  
							इनकी दृष्टि में गीत शलभ की भावना, मधुकर की भाषा और 
							खुद को खोकर पाने की परिभाषा मात्र है। 
							 
							श्री नन्द चतुर्वेदी ने रूप, रंग, छन्द को प्रणय गीतों 
							के माध्यम से अभिव्यक्त करते हुए सृजन क्षमता को अनेक 
							क्षितिजों का विस्तार दिया है। इनका सौन्दर्य बोध सदैव 
							सामाजिक चेतना से प्रेरित रहा है। श्री भँवर सुराणा 
							इन्हें कबीर परम्परा का कवि कहते हैं। एक संकल्प, 
							वैचारिक उर्जा इनके गीतों में है - 
							तुमने अमृत ढाला है विष पिया नहीं,  
							एक साँस भी दर्द किसी का जिया नहीं ।  
							चाँद बने हो मगर मेघ तुम बने नहीं,  
							तुमने सब कुछ लिया मगर कुछ दिया नहीं ।  
							---  
							जहाँ-जहाँ बीत गया दिन, वहाँ-वहाँ डूब गया मन ।  
							सतरंगे इन्द्र के धनुष, सिन्दूरी घाटियों के वन ।।  
							श्री घनश्याम शलभ, धरती का सरगम, अँधरे का जुगनू, 
							बादल और बाँसुरी के रचनाकार हैं। उन्होंने प्रणय गीत 
							रचे, वे तरल, ललित, कोमलकांत भाषा के प्रयोग में 
							सिद्धहस्त हैं। बादल और बाँसुरी के गीतों में रूप, 
							रंग, गंध को अथक सामाजिक चेतना की अभिव्यक्ति मिली है 
							- 
							-औ भरे पूस की रातों में, वे वस्त्रहीन मर-मर जाते।
							 
							शरद चाँद से खिले फूल पर, भौंरे नहीं यहाँ मँडराते।।
							 
							-यहाँ न बिजली का प्रकाश, नभ घन मुरआशा दीप सृजन है।
							 
							छोटी तरिणी बही जा रही, पर न यहाँ कमलों का वन है।।
							 
							 
							मरुधर मृदुल ने अपनी काव्य यात्रा का प्रारम्भ गीतों से 
							किया। ‘शब्द का घूँघट’ में उनके प्रभावशाली गीत है। 
							इनके गीतों में भावुकता, तरलता व स्पृहणीयता है। शब्द 
							के घूँघट के भीतर सत्य व सौन्दर्य छिपा रहता है, जो 
							सार्थकता का बोध कराता है -- 
							- ऐसा गीत नहीं गाता मैं, जिनका अर्थ नहीं  
							नहीं गीत का एक शब्द भी, मेरा व्यर्थ नहीं  
							पुलक हो एक पलक की भी, गीत से शाश्वत कर देता,  
							लाख कंठ से मुखरित हो, खुशी से मानस भर देता।  
							मैंने जिस क्षण को जी डाला, मिटा सके उस क्षण को  
							ऐसा काल समर्थ नहीं ।  
							या फिर 
							- छत टूटी, आँगन छूटा है, तिड़क गई दीवार सभी  
							नींव-सींव से सब टूटा है, टूट गए आधार सभी  
							जिसका बाहर ही बाहर हो, ऐसी एक हवेली हम  
							जिसकी सारी कटी लकीरें, ऐसी एक हथेली हम ।  
							 
							डॉ. मनोहर प्रभाकर ‘महुए महक गए’ में नवगीत के तेवर 
							दिखाते हैं। इनके नवगीतों में समय की त्रासद स्थितियों 
							की अभिव्यक्ति, नया भाव पक्ष, भाषा का मुहावरा, लय की 
							अनुभूति का एकालाप और बिम्बों में युग के यथार्थ की 
							प्रतिकृति मिलती है - 
							दिनचर्या पेन्शनी बाबू के कोट सी  
							रसहीना संध्याएँ अफसर के नोट सी  
							हर हलचल फाइल है, मन मुंशीखाना है  
							परिचित हर चेहरा है, जाना पहचाना है  
							फिर भी यों लगता है, जैसे बेगाना है।  
							 
							श्री विश्वेश्वर शर्मा प्रांत के ख्यातनाम वरिष्ठ 
							गीतकार हैं। वे प्यार को जीवन व गीत की संवेदना का 
							आधार मानते हैं। लगभग 85 फिल्मों में गीत लिखे हैं। 
							- किनारे पर तो लहरे हैं, हैं मोती गहरे सागर में  
							तू तट पर ही खडा सागर से, मोती माँगे गागर में  
							खोलना आँख अपनी सीख ले, नहीं तो मींचे रह जाएगा  
							बाग अरमानों का ये, बिन सींचे रह जाएगा।  
							 
							ताराप्रकाश जोशी प्रकृति से गीतकार हैं, कल्पना के 
							स्वर, जलते अक्षर, समाधि के प्रश्न, शंखों के टुकड़े 
							आदि कृतियों में गहरी सामाजिकता व सामयिक संदर्भों से 
							जुडाव है। परिवेशगत सजीवता आफ गीतों का प्रधान विषय 
							वस्तु है। श्री हरिचरण शर्मा ने इनके गीतों में 
							प्रगतिशील स्वर, गहरी मानवता, जिजीविषा से जुडाव व 
							सामाजिक विभीषिकाओं का अंकन रेखांकित किया है। इनके 
							गीत मानवीय मूल्यों से जुड़ने की प्रक्रिया है। ओजस्वी 
							स्वरों में चुनौती देना, कोमल इन्द्रधनुषी कल्पनाएँ 
							संजोना, आस्था व विश्वास के स्वरों को बुलन्द करना तथा 
							एकाकीपन व अवसाद आफ गीतों के प्रमुख स्वर रहे हैं। 
							- मेरा वेतन ऐसे रानी, जैसे गरम तवे पर पानी,  
							दफ्तर से घर तक फैले हैं, ऋणदाता के गर्म तकाजे,  
							ओछी फटी हुई चादर से, एक ढकूँ तो दूजी लाजे,  
							कर्जा लेकर कर्ज चुकाना, अंगारों से आग बुझानी।  
							 
							-खाने को कोरी उबासियाँ, पीने को आँख का पानी।  
							जैसे दुःख ने दुःख से कह दी, ऐसी मेरी राम कहानी।।  
							 
							-आगे है पानी की सींव तनिक आगे,  
							हम सारी उमर यों ही मरुथल में भागे ।  
							 
							-कुछ हिस्से है बटमार के, कुछ हिस्से हैं अप्यारों 
							के,  
							कुछ नीलामी कुछ ठेके पर, कुछ हिस्से पहरेदारों के  
							जिसके पास स्वप्न की गठरी, वह किस कोने पीठ टिकाए  
							बस्ती-बस्ती भय के साए, कहाँ मुसाफिर रात बिताए।  
							 
							-न्यायालय में दया माँगने, जब भी कोई कर फैलाए  
							ऐसा लगे कसाई घर में, बकरे की माँ खैर मनाए।  
							 
							-धन को न्याय, दीन को कारा, प्रश्नों को जीवन 
							निर्वासन  
							ऐसे में सौगन्ध उठाए, परिवर्तन केवल परिवर्तन ।  
							 
							कुमार शिव का हिन्दी के नवगीतकारों में विशिष्ट स्थान 
							है। शंख, रेत के चेहरे उनकी चर्चित कृति है। कथ्य की 
							नवीनता व शैली की सम्प्रेषणीयता ने उन्हें गीतकार के 
							रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। उनके नव गीतों में ताजगी, 
							प्रकृति तथा प्रणय की रागात्मक अनुभूतियाँ, शहरी जीवन 
							की याँत्र्किता, ऊब, अलगाव, पारदर्शी शब्द विधान है। 
							प्रकृति में संध्या के प्रति राग भाव साँझ गुलाबी 
							आँखों वाली काले कपडों में लिपटी है, में व्यक्त होता 
							है। कवि का अकेलापन व मन का अवसाद गीतों में मुखर है, 
							बहता गंगाजल सूखते कपोलों पर/भूख बुझे चेहरों पर 
							कविताएँ लिखती हैंमौत बनी इन दिनों बहुचर्चित 
							अभिनेत्री/ भीड़ के रुमाल पर, हस्ताक्षर करती है। 
							सावित्री परमार इन्हें मन के दर्द को गीतों में कहने 
							वाला मानती है। 
							- ज्योतिर्मय आकाश में, किरण ने ली अँगड़ाई है  
							पीले बादल के गुलदस्ते लिए हाथ में आज संध्या आई है।
							 
							 
							- अजनबी प्रांत में/श्वेत एकांत में/तुमको अनुभव किया
							 
							/पाश में भर लिया (चाँदनी का गीत)  
							 
							- ये सूनी-सूनी घाटी, पलकों पर उगे विराम  
							इस नीले-नीले तट पर, ये चेहरा धोती शाम।  
							 
							- हो गई अंकित हृदय पर जो ऋचाएँ /  
							वे लिखीं तुमने कभी वे मिट न पाए ।  
							 
							श्री तारादत्त निर्विरोध प्रतिनिधि गीतकार हैं। अपना 
							होना, थकन अभी बाकी है, मेरे भीतर, रेत-दरपन, बरसों 
							बरस, देह गंध, नियति का गीत, काँच के गिलास आदि 
							प्रतिनिधि गीत हैं। इनके शब्दों में प्रेम के उजाले 
							में दर्द के बसेरे हैं। यही दर्द गीतों में ढलता है तो 
							संगीत बनता है, रिश्तों की सूखती सरिता सिक्त हो जाती 
							है और मन का सच बाहर आता है। वह स्वयं को कस्तूरी 
							मृग-सा मानते हैं। 
							- अंतरंग तो संस्कृतिमय था, हुई सभ्यता दूर,  
							इतनी सारी सुविधाओं में, मैं कितना मजबूर ।  
							 
							- समय बड़ी चतुराई से, फिर मन को लूट रहा,  
							शायद इसीलिए पाँवों से आगत छूट रहा ।  
							 
							- हो गये हैं रेत के सब चित्र् धुँधले जो उकेरे,  
							क्या करेंगे दरपनों में, फिर, उचर कर बिम्ब मेरे ।  
							 
							- हाथों से छूटते/बार-बार टूटते/काँच के गिलास हैं  
							कि आदमी ?  
							 
							- रिसना भीतर रिसते जाना पीले घावों का,  
							व्यर्थ नहीं होता नीलापन दर्द-अभावों का ।  
							 
							श्री बलवीर सिंह करुण, प्रहरी मेरे देश के, देश की 
							माटी दे आवाज, गीत गंध बावरी, गीत कपोत पूछते हैं, मन 
							मरुस्थल बोला आदि कृतियों के रचनाकार हैं। इन्होंने 
							महाकाव्य-मैं द्रोणाचार्य बोलता हूँ, 
							खण्डकाव्य-विजयकेतु व अन्य प्रबन्ध कार्य लिखे हैं। 
							इनके गीतों में प्रकृति चित्र्ण, ओजस्वी स्वर, भारतीय 
							जीवन मूल्यों के प्रति गहरी आस्था ईश्वर के प्रति 
							समर्पण, दैन्य भाव निश्छलता मिलती है। आशावादी स्वर 
							में जीवन का संदेश, बिम्बात्मकता, उपमानों, प्रतीकों 
							और बिम्बों की नूतनता व मौलिकता इन्हें विशिष्ट बनाती 
							है - 
							- संदेह के नाम घूमते, गली-गली में फन फैलाए,  
							साजिश के हैं जनक सपेरे, इस बस्ती को राम बचाए।  
							- उठा गुदडया, थाम कमण्डल, ओ मेरे मन के रैदासा,  
							शायद भला इसी में तेरा, अगली नगरी ढँढ निवासा । 
							 
							- धीरे-धीरे फर्क मिट रहे, पतझर और मधुमास के,  
							महके कम दहके ज्यादा हैं, टेसू सुर्ख पलाश के ।।  
							 
							डॉ. हरीश वासन्ती गीतों के प्रणेता है तथा उनकी कलम 
							में दर्द का उफान है,  
							वे प्रांत के प्रखर संवेदनाशील गीतकार हैं।  
							- आओ कुछ चाँदनी पिएँ, घाव-घाव दर्द सब सिएँ  
							मौसम का अनछुआ निमंत्रण है, फूलों सी जिंदगी जिएँ  
							 
							- ऐसी घूमी प्यास की जैसे, सूखे पनघट घुटकर घर-घर  
							ताण्डव रास करे/ऐसी झूमी भूख कि जैसे, हर  
							अकाल में बिना अन्न पृथ्वी उपवास करे।  
							(दर्द उफान दिए हैं।)  
							 
							डॉ. रमासिंह के गीतों में भाषा की सरलता, भावों की 
							सम्प्रेषणीयता, वस्तु-विस्तार की बौद्धिक सिद्धता, 
							रचनात्मकता को व्याख्यायित करने की पर्याप्त क्षमता 
							विद्यमान है। इन्होंने गीत, नवगीत के द्वारा लगातार 
							अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। 
							- मन ने जब पीछा किया, उस मृग छोने का  
							होने का क्षण था वह, कुछ अनहोने का ।  
							 
							- गुनगुनाई कहीं प्रार्थना की कड़ी/क्योंकि विश्वास की 
							थी  
							जरूरत पड़ी/गूँ पीछे छूटी, गीत आगे चला/  
							 
							- होंठ पर ताले पड़े हैं आँख में जाला  
							रोशनी का रंग भी लगता हमें काला ।  
							 
							श्री जबरनाथ पुरोहित - सपने और सच, जो मुझे तोड़ती है, 
							यह भी हो सकता है जैसी समर्थ कृतियों के सर्जक हैं। जो 
							मुझे तोड़ती है में संवेदना व शिल्प का सुन्दर सामंजस्य 
							है। वे लिखते हैं, जिस लहर ने छुआ, उसी को गीतों में 
							उतारा। इनकी गीतात्मक विशिष्टताओं में, गहन अनुभूति का 
							वैचारिक आग्रह, वैयक्तिक अनुभव की प्रामाणिकता, एकरस 
							प्रगाढता, जनजीवन से सम्बद्धता, विषम परिस्थिति में भी 
							संवेदना की तलाश प्रमुख है। 
							- आओ दिखलाता हूँ तुमको यह भव्य नगर  
							जिसकी सड़कों पर जीवित लाशें सोती हैं।  
							- कितना ही बदनाम करो तुम/चाहे कितने नाम धरो तुम/  
							जिसने साथ दिया है मेरा/उसका साथ निभाऊँगा मैं/  
							 
							गीत प्रीत के गाऊँगा मैं/  
							- तुम स्वर दो यदि इन गीतों को, मैं इतिहास बदल दूँगा
							 
							युग-युग के संत्रस्त हृदय का, मैं विश्वास बदल दूँगा
							 
							धरती से फूटेगी धारा, मान भरी मनुहारों की  
							अम्बर का आँगन चूमेगी यह फुहार उपहारों की  
							जहरीले बादल वाला मैं यह आकाश बदल दूँगा।  
							 
							- कब तक यों बैठोगे हाथों पर हाथ धरे  
							कब से सब सहते इस आँगन में डरे-डरे  
							फैंक दो उतार कर बोझ इन व्यथाओं का  
							चीरने कुहासा चिन्ताओं का (गीत)  
							- मैं गीतों का गंगाजल हूँ।  
							 
							नवगीतों के चर्चित हस्ताक्षरों में प्रो. विजय 
							कुलश्रेष्ठ, राव अजातशत्रु, अजय अनुरागी, श्याम अंकुर, 
							हरमन चौहान इत्यादि प्रतिनिधि रचनाकार हैं।
							प्रो. विजय कुलश्रेष्ठ क्षण जीने का में लिखते 
							हैं, अपने कंधों पर शव रखकर/पूछी हमने राह मसानी/नहीं 
							कबीरा आगे आया/इस देही का कौन ठिकाना ? पूछें अब किससे 
							? तथा शेष नहीं कुछ में, महज यंत्रवत जीते रहना, शेष 
							हुआ इतिहास हमारा/जो रेखाएँ भर जाती, महज वही अनुदेश 
							सहारा/काश समय से सीखा होता/ जनमत से ही सबक कभी 
							तो/रहते क्यों फिर यों अनदेखे/झर-झर बहते । 
							 
							डॉ. विद्यासागर शर्मा गीत के ग्राहकों से कहते हैं -
							 
							आज गीतों के स्वरों में, दर्द सारा बह गया है।  
							दर्द का पर्वत जमा था, गीत बनके ढह गया है।  
							आँसुओं से सींच मैंने दर्द का दरखत बढाया ।  
							गीत सुनने आप आए, साथ देने कौन आया ।।  
							बिन बदली की बरसात हूँ मैं, गीत में कहते हैं -  
							बीते कल की सी याद हूँ मैं, बहरे आगे फरियाद हूँ मैं,
							 
							मन रूखा-सा तन भूखा-सा, बिन बस्ती के आबाद हूँ मैं,
							 
							ना पता ठिकाना कल का है, डाली से टूटा पात हूँ मैं,
							 
							चातक तो ताक रहे मुझको, बिन बदली की बरसात हूँ मैं।
							 
							 
							श्याम अंकुर के प्रतिनिधि नवगीत, सूनी-सूनी, मूक बने, 
							हिय में आदि हैं।  
							उनमें गाँव के दर्द की सघन अनुभूतियों का स्पर्श है -
							 
							- पहले जैसा प्रेम नहीं है, अब राम से रहमान को।  
							खुद बनाकर कितना दुःखी है, भगवान खुद इंसान को।  
							सूनी-सूनी हो गई, गाँवों की चौपाल ।  
							- आक, धतूरे, बाँस, बबूल बैठे हैं दरबारों में  
							लालच कागा बैठा है, अंदर पहरेदारों में  
							पीड़त अंकुर हो गए, बरगद पीपल नीम  
							मूक बने सब देखते, गिरधर, अर्जुन, भीम ।  
							 
							राव अजातशत्रु नीड़ का पंछी व मोर पंखी शाम के माध्यम 
							से कहते हैं -  
							- वर्जनाएँ...त्रासदी शहरी धुआँ  
							जिन्दगी के नाम पर अंधा कुआँ  
							एक कम्पन सा उठा फिर रीढ में  
							नीड़ का पंछी अकेला नीड़ में ।  
							- एक जंगल है मेरे सीने के भीतर  
							पत्थरों पर अनलिखे अनुबन्ध हैं  
							गुप्त कब तक रह सके सम्बन्ध हैं  
							फूल ही काँटों की पोथी बाँचता है  
							फिर हिरण सा मन कुलाँचे मारता है।  
							 
							जगदीश तिवारी अपने गीतों में वर्तमान परिवेश से जुड़कर 
							मानव जीवन की विसंगतियों को रेखांकित करते हैं - 
							- जो गुलाब थे यहाँ, वो बन गये बबूल  
							गलती कोई भी यहाँ, नहीं करे कबूल  
							नहीं रहा आदमी का अब कोई धरम  
							कैसे लिखे बहारों पे गीत ये कलम  
							- रिश्तों के गहरे सागर में, अब न हँसती गहराई है  
							और सुमन के दर पे आकर, भँवर बजाये न शहनाई है  
							ऐसे में कोयल क्या कूके, कोयल भी तो बहुत रोई है  
							मंजिल जाने कहाँ खोई है।  
							 
							श्री अजय अनुरागी नवगीत के प्रतिनिधि हस्ताक्षर हैं। 
							तुम बिन लगते घर के द्वारे में वे लिखते हैं, तुम आओगी 
							तब महकेगी इस उदास मन की फुलवारी, तभी बजे पायल मदमाती 
							चले रंग की तब पिचकारी। हरिया जाएँगे गमलों में नन्हें 
							पौधे मुट्ठी ताने, फूलों जैसे खिल जाएँगे मुस्कानों के 
							चित्त सुहाने। 
							 
							राजस्थान में समर्थ गीतकारों की पीढ़ी दर पीढ़ी एक 
							समृद्ध परम्परा रही है जिन्होंने गीत यात्रा को निरन्तर 
							जारी रखा है। इस यात्रा में कई गीतकार तो मील का पत्थर 
							की तरह संकेतक व दिशा-निर्देशक बने हैं। डॉ. रामप्रसाद 
							दाधीच, रामेश्वर खण्डेलवाल तरुण, डॉ. दया कृष्ण विजय, 
							गोपाल प्रसाद मुद्गल, बशीर अहमद मयूख, किशन दाधीच, वेद 
							व्यास, जगदीशचन्द्र शर्मा, हरिराम मीणा, जनक राज 
							पारीक, डॉ. मंगत बादल, उपेन्द्र अणु, डॉ. रजनी 
							कुलश्रेष्ठ, शकुन्तला सरूपरिया, अब्दुल जब्बार, अतुल 
							कनक, हरीश आचार्य, राधेश्याम मेवाड़ी, मुराद मेवाड़ी, 
							मधुकर गौड़, ब्रजभूषण चतुर्वेदी, भगवानलाल शर्मा 
							प्रेमी, कृष्णचन्द्र गोस्वामी, जगजीत निशात, विनोद 
							सोमानी हंस, भावना शर्मा, कन्हैयालाल वक्र, सुरेन्द्र 
							शर्मा, महेश कुमार शर्मा, रमेशचन्द्र गुप्त, डॉ. 
							सत्यनारायण व्यास, चन्द्रमोहन हाडा हिमकर, गजानन 
							वर्मा, रघुराज सिंह हाडा, डॉ. शांति भारद्वाज राकेश, 
							मोहम्मद सद्दीक, वीर सक्सेना, राधेश्याम मंजुल, कुन्दन 
							सिंह सजल, शिव मृदुल, उमेश अपराधी, नन्द भारद्वाज, 
							रमेश शर्मा, राजेश विद्रोही, दिनेश सिंदल, इत्यादि ने 
							समय के साथ जुड़कर कभी आजादी की अस्तित्व जगाने वाली 
							चेतना को गुंजायमान किया, तो कभी जीवन संघर्षों से 
							उबरने का मार्ग प्रशस्त किया है। ताराप्रकाश जोशी ने 
							‘‘पड़ गया अकाल फिरै माँगते मजूरी’’ व वेद व्यास ने 
							‘‘कविता एक अकाल की, तेरह ताल की’’ जैसा मार्मिक वर्णन 
							किया है। हरीश भादानी ने रोटी नाम सत्य है खाये तो 
							मुगत्य है तथा रोटी रोजी बोनस का हक माँग रही बत्तीसी 
							पर हल्ला बोल, बोल मजूरिए हल्ला बोल, हेतु भारद्वाज ने 
							राज की दया हुई, राहत के काम चले, गायों को पूस नहीं, 
							कारों के पेट पले, दाम बिना मिलता कैसे, पानी है नहरी, 
							धनिया की बिटिया को भूख लगी गहरी, होरी के खेतों के 
							मालिक सौ-सौ शहरी जैसी गीति रचनाएँ लिखकर कलम का फर्ज 
							निभाया है। यदि हिन्दी साहित्य में गीतों के अवदान की 
							दृष्टि से चर्चा करें तो भी विशुद्ध गीतों की रचनाओं 
							के लिए राजस्थान बहुत समृद्ध दिखाई देता है।  
							 
							श्री बशीर अहमद मयूख के गीत शोषण के विरुद्ध जिहाद 
							बोलने की जिद लिए हुए है जो सांस्कृतिक समगन्ध की खोज 
							है - 
							मेरे गीतों की बारात के साथ में  
							रूद्र भैरव चला है बाराती, बना  
							आज डमरू बजा तांडव ताल पर  
							मेरे गीतों में गूँजी नई गर्जना  
							शत्रु के शीश तोरणों को गिरा  
							सरहदों पर मुलाकात की जाएगी  
							साधना के पगों वंदना द्वार पर  
							मेरे गीतों की बारात यों जाएगी  
							 
							हिन्दी के ओजस्वी गीतकारों में मेघराज मुकुल का नाम 
							बड़े सम्मान से लिया जाता है। उमंग व अनुगूँज में 
							राष्ट्रीयता का स्वर मिलता है। सहजता, ओज, आस्था व 
							उमंग इनके गीतों की प्रधान विशेषताएँ रही हैं। स्वर 
							लालित्य के साथ सामाजिक चैतन्य का स्वर युग की विदारक 
							वेदना को उत्कृष्ट कलात्मक अभिव्यक्ति देता है - 
							उल्टे पाँवों योजना चली  
							यह सृजन हजारों मील चला  
							बालू प्रदेश की यात्रा में  
							मृग तृष्णा ने हर बार छला  
							तुम कैसे धरतीपुत्र् धर्म की आड़ लगाते हो  
							भारत से पहले कौन सा निज अस्तित्व बनाते हो।  
							 
							यह युग की विसंगति ही कही जाएगी कि आदमी का व्यवहार 
							भीतर व बाहर से एक जैसा नहीं रहा। कथनी व करनी में 
							अन्तर आ गया है। प्रांत के ऊर्जावान गीतकार श्री किशन 
							दाधीच के शब्दों में - 
							- कटी हुई आकृतियाँ, विज्ञापित चेहरों में  
							संवेदन बुनती है, सुविधा की लहरों में  
							आरोपित संज्ञा को, अखबारी सरिता में  
							कहाँ तक भुनाएगा, शहर का आदमी  
							रह गया दुशालों में, बाहर का आदमी । 
							 
							- शब्दों के बौने हम, अर्थ के बिछौने हम  
							नागफनी भीतर से, बाहर से मृगछौने हम  
							दर्द की नुमाइश में, कील पर टँगा हुआ  
							तेल चित्र् जैसा है, पहरे का आदमी ।  
							 
							गीतकार ने इक्कीसवीं सदी में मानवीय संत्रस को स्वर 
							दिया है -  
							अब कबीर सूर जायसी, पोथियों के पाठ हो गए  
							अर्थ से पिटे हुए कथन, शब्द से विराट हो गए  
							व्यक्ति के विकास की कथा, बन गई हिसाब की प्रथा  
							भाग्य डोर यंत्र से बँधी, हम प्रचार के धड़े हुए  
							चौखटों सी तन गई सदी, हम कतार में खड़े हुए।  
							 
							श्री वेदव्यास ने तरुण अरुण भारत के निर्माण के स्वर 
							को अपनी लेखनी में पिरोया है। राजस्थान प्रांत की 
							मिट्टी से जुडाव व राष्ट्र के प्रति प्रगतिशीलता का 
							दृष्टिकोण सदैव मुखर किया है। जागो भारत की तरुणाई, 
							प्रश्नों की आँधी, कविता तेरह ताल की, रक्त बोध, 
							हस्ताक्षर इत्यादि आपकी प्रतिनिधि गेय गीति रचनाएँ हैं 
							- 
							- श्रम की गंगा घर-घर आई  
							धरती पर बिखरी अरुणाई  
							युग सृजन करो संकल्प यही  
							जागो भारत की तरुणाई ।  
							 
							- कविता तेरह ताल की, दूषित अन्तर्जाल की  
							सीमा के मन तोड़ रही है, रचना एक अकाल की  
							 
							- प्रश्नों की आँधी में उजड़ रहे व्यक्ति  
							चेतन को लील रही, अवचेतन शक्ति  
							 
							- शब्दों को तोड़ रहा रक्त नये बोध का  
							सड़कों को मोड़ रहा कोलाहल क्रोध का ।  
							 
							श्री जगजीत निशात अपने गीतों में यथार्थवादी, जमीन से 
							जुड़ी मनस्थितियों के बिम्ब उभारते हैं - 
							- दुनिया भर की पढी किताबें, कुछ अक्षर न जाने  
							भीतर बैठे अन्तर्यामी के निर्देश न माने  
							उत्तर कोई रोकर कोई हँस कर देता है  
							और समय हर प्रश्न-पत्र् को हल कर देता है।  
							 
							- धर्म कर्म की बात नहीं है ये बात है दुनियादारी की।
							 
							चिंता आने वाले कल की, परसों की तैयारी की।।  
							 
							कन्हैयालाल प्रकृति बोध के कुशल चितेरे गीतकार हैं -
							 
							बीज बोये कल्पना ने, भावना की गोद में ।  
							थिरक उठे अंग प्रकृति, के अति आमोद में ।।  
							हरी हो गई छवि भू की कल तलक थी पीत ।  
							उगे पहले पहल तब खेतों में नव गीत ।।  
							 
							श्री सुरेन्द्र शर्मा के गीतों में प्रकृति प्रेम,  
							उमंगों का मधुमास,  
							इन्द्रधनुषी कल्पनाएँ,  
							जीवन का कटु यथार्थ व्यक्त होता है -  
							- उपवन के मधुमास तुम्हारे साथ चलूँगा मैं,  
							गीतों के आकाश तुम्हारा चाँद बनूँगा मैं ।  
							- तू ऐसी मस्ती का बन्दा, माया, मोह, दर्प में अंधा
							 
							तुझको नहीं दिखाई देता, चश्मा अपना यार बदल रे  
							अरे मुसाफिर अब घर चल रे ।  
							 
							श्री शंकर बजाड ने नवगीतों में अपनी पहचान बनाई है -
							 
							शास्त्र् लूँ या शस्त्र् लूँ, यह न पूछो धर्म से।  
							प्रश्न चिहि्नत इस समय को, भय नहीं है शर्म से।।  
							रात दिन संध्या सवेरे कँप-कँपाते गर्म से।  
							जी सकेगा वह कि जिसने आँख-मुँह बन्द कर लिया।  
							पृष्ठ होकर भी उमर भर, हाशिया बनकर जिया।।  
							 
							श्री कृपाशंकर शर्मा अचूक वर्तमान के साथ चलो तो छँट 
							जाएँगे बादल काले की बात करते हैं तो भावना शर्मा 
							प्रकृति की गोद में खेलते मनुज से पाशविकता पर विराम 
							लगाने की सीख देती है। श्री मधुकर गौड़ तो गीत नवांतर 
							के प्रणेता माने जाते हैं। नये-नये ताबीज, आखर-आखर वेद 
							में नवीन प्रयोग दृष्टव्य हैं - 
							- कौन चवन्नी की सुनता है, रोज रुपया रौब जमाता  
							किस्मत का मारा बेचारा, नये-नये ताबीज बनाता  
							जब भी टूटे तार हुए तुम, मैं भी खूब-खूब रोया हूँ  
							आगजनी से तुम बिफरे हो, मैं अफवाहों में खोया हूँ।  
							 
							- होंगे कई नजारों वाले, चंदा और सितारों वाले  
							हम पतझड़ के वंशज लेकिन, हरदम रहे बहारों वाले।  
							 
							श्री विनोद सोमानी हंस ने गीत परम्परा की एक पीढ़ी को 
							अवदान दिया है। मानवीय मूल्यों की तलाश में सतत् 
							सृजनरत रहे हैं - 
							शील बन गया व्यापारी, काँटे बिकते हाट में,  
							नदियों का पानी रीत गया, हो पनघट किस घाट में।  
							चाहे रेतीले धोरे फैला दो, मैं नखलिस्तान बना दूँगा,
							 
							फैला दो तुम अँधियारा जग में, मैं दीपक नया जला दूँगा।
							 
							 
							श्री हरमन चौहान ने मानव मन की पड़ताल अपने गीतों में 
							की है -  
							ओ री प्रिया बावरी, सुन मेरी बात री  
							हाथ में हाथ देकर अरी चल मेरे साथ री  
							जहाँ मेरा गाँव री, बोल ओ सांवरी ।  
							 
							इस प्रकार -  
							उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि राजस्थान में 
							गीतकारों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी सृजन करते हुए इस गीत 
							यात्रा 
							को निरन्तर जारी रखा है। गीतकारों ने समय परिवेश की 
							धारा से जुड़कर यथा आवश्यकता राष्ट्रीय चेतना को प्रखर 
							बनाया है तो वहीं नव निर्माण की आकांक्षाओं को भी 
							उकेरा है। मानव मन की पड़ताल करते हुए शाश्वत जीवन 
							मूल्यों की तलाश में उमंगों, उल्लास और प्रकृति 
							राग-रंग को गीतों में मुखरित किया है। 
							 
							राजस्थान की गीत परम्परा के विकास में जहाँ एक तरफ 
							गीतकारों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है वहीं पर 
							राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका मधुमती का 
							महत्त्वपूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ है। प्रांत के 
							गीतकारों को समूचा प्रतिनिधित्व इस पत्रिका में 
							प्रदान किया जाता रहा है। राजस्थान साहित्य अकादमी की 
							गतिविधियों में गीत विधा पर केन्द्रित कार्यक्रमों, 
							प्रकाशनों व गोष्ठियों का भी महत्त्वपूर्ण आयोजन 
							समय-समय पर होता रहा है। श्री नन्द चतुर्वेदी, 
							योगेन्द्र किसलय, नन्द भारद्वाज व डॉ. भगवती लाल व्यास 
							ने अपने सम्पादन में प्रकाशित प्रांत के रचनाकारों के 
							संग्रहों में गीतकारों को समुचित महत्ता प्रदान की है। 
							यह गीत यात्रा सदैव प्रवहमान रहेगी। यही आशा है।  |