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साहित्य संगम

साहित्य संगम के इस अंक में प्रस्तुत है सुमतीन्द्र नाडिग की कन्नड़ कहानी का हिन्दी रूपांतर- "रेल दुर्घटना"। रूपांतरकार हैं- पृथ्वीराज मोंगा


यह कहानी मुझे चौहत्तर वर्षीय धर्मय्याजी ने सुनाई थी। यह घटना १९४० में किसी समय घटी थी। उन दिनों मैंने अपना कैलाश शहर छोड़कर बंगलौर में एक दुकान खोली थी। मेरी समझ में नहीं आता कि मेरे पिता ने मेरा नाम धर्मय्या क्यों रखा, मैं नहीं समझता कि मैंने किसी के साथ कभी कोई अन्याय किया हो। शायद मेरे अमीर न होने का कारण हो सकता है। लेकिन मुझे कभी खाने-पीने, कपड़े-लत्ते और बच्चों को पढ़ाने-लिखाने में दिक्कत नहीं हुई। इस सब में भगवान मेरा मददगार रहा है।

कई बार मैं सोचता हूँ कि क्या सचमुच भगवान है? मैं पूजा-पाठ जरूर करता हूँ। जानता हूँ कि ज़िन्दगी में रुपए-पैसे का बहुत महत्व है। लेकिन फिर भी मैंने न तो ज़्यादा लाभ कमाने की कोशिश की और न ही एकाएक अमीर बनने की। यह सब मैं इसलिए बता रहा हूँ कि उन दिनों मेरा एक व्यापारी मित्र था। जब मैंने उसे मात्र एक गलती के लिए तकलीफ पाते देखा तो मुझे लगा कि ऐसी कोई शक्ति जरूर है जो हमारे कर्मों को तौलकर सही और ग़लत की पहचान करती है। अनुभव होता है ग़लत व्यक्ति को एक न एक दिन सज़ा जरूर मिलती है। लेकिन यह सज़ा जेल भुगतने जैसी सज़ा की तरह नहीं होती। एक तरह से उसे सज़ा भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन जो कसूरवार हैं उन्हें मालूम है कि यह सज़ा कितनी तकलीफ भरी होती है।

मैंने तुम्हें बताया कि एक व्यापारी मेरा मित्र बन गया था। उसका नाम रंगास्वामी था। तब उसकी उम्र २४-२५ की रही होगी। एक दिन जब वह चेन्नई से बंगलौर आ रहा था कि वह रेलगाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई। कुछ स्वतंत्रता संग्रामियों ने रेलवे लाइन की फिश प्लेटें हटा दी थीं।

सरकार को इस दुर्घटना का अन्देशा नहीं था – वह भी एक पुल के ऊपर। ट्रेन के डिब्बे भयानक आवाज़ों के साथ लाइन से उतरकर गए। रंगा तीसरे दरजे के डिब्बे में था। इससे पहले कि वह जान पाए, डिब्बे टूट-फ़ूटकर गिरने लग गए। जब उसका डिब्बा उलटा तो उसे लगा कि बस यही अंत है। उसने आँखें खोलीं तो पाया कि तीन लोग उसके नीचे हैं और एक ऊपर। अब वह अपने बैग को देखने लगा। लेकिन तभी उसे एक बच्चे का रोना सुनाई दिया। उसने अपना बैग उठाया और सीधा बच्चे के पास पहुँचा। वह तीन माह का शिशु रहा होगा और उसकी माँ पास ही बेहोश पड़ी थी। रंगा ने पास ही पड़ी पानी की बोतल उठाई और थोड़ा सा पानी उसके चेहरे पर छिड़का।

वह एकदम से उठी और अपने शिशु को देखने के लिए इधर-उधर देखा। रंगा ने उस महिला को शिशु उठाकर दिया और डिब्बे से बाहर आ गया। हर तरफ चीख-पुकार हो रही थी। रंगास्वामी को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे या कहाँ जाए। इसी उधेड़बुन में उसने एक डिब्बे के भीतर झाँका। अन्दर एक आदमी का एक अधखुला ट्रंक गिरा पड़ा था। ट्रंक में से निकले नोटों के बंडल पास ही बिखरे पड़े थे। दुर्घटना की चपेट में आकर बचे लोगों के पास ट्रंक के नीचे दबे पड़े आदमी की तरफ देखने का वक्त नहीं था। रंगास्वामी ने थोड़ी हिचकिचाहट के साथ इधर-उधर देखा फिर हज़ार- हज़ार के दस नोट उठाकर अपने पाजामे की जेब में ठूँसे और तब उस आदमी के ऊपर से ट्रंक हटाने की कोशिश करने लगा। ट्रंक एक तरफ हटाने के बाद रंगा ने उस आदमी को उठाकर बिठा दिया। वह आदमी पीड़ा से कराहते हुए अपनी दाहिनी बाजू और छाती को मलने लगा। साथ-साथ वह रंगा को आशीर्वाद भी देता जा रहा था। रंगा ने नम्रता से हाथ जोड़े अपना हैंडबैग उठाया और उस डिब्बे से उतरकर अगले डिब्बे में चढ़ गया।

वहाँ उसने सिल्क की साड़ी में लिपटी एक अधेड़ आयु की स्त्री को मृत पड़ा देखा। वह शायद अकेले ही सफर कर रही थी, इसलिए आसपास का कोई आदमी उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रहा था। सभी अपनों की ही तलाश कर रहे थे। रंगा ने देखा कि उस स्त्री की बाँहों में सोने की चूड़ियाँ थी और गले में सोने का नेकलेस और काले मोतियों वाला मंगलसूत्र। एक हाथ में चमकती हुई सोने की अंगूठी भी थी। रंगा ने आगे बढ़कर सतर्कता से उसके गले का मंगलसूत्र उतारा और अपने बैग के कपड़ों के बीच छिपा दिया। अब वह उस डिब्बे में और रुकने का साहस न कर पया और जल्दी से नीचे उतर आया।

अगला डिब्बा प्रथम श्रेणी का था। वह उलटा पड़ा था। रंगा डिब्बे के ऊपर चढ़कर अन्दर पहुँचा और एक अंग्रेज को ट्रंकों, बैगों, बिस्तर, किताबों, फलों की टोकरी आदि के नीचे से निकलने की कोशिश करते देखा। अंग्रेज डिब्बे में अकेला ही था। रंगा ने एक-एक करके सामान एक तरफ हटाया और अंग्रेज को उठकर बैठने में मदद की। अंग्रेज ने अपनी आँखें उस पर टिका दीं तो रंगा ने भाग जाना चाहा लेकिन भागने का कोई रास्ता नहीं था। साथ ही वह जानना चाहता था कि उस गोरे को कोई चोट तो नहीं लगी। लेकिन वह घबरा भी बहुत रहा था क्योंकि गोरे को इतने पास से देखने का यह पहला अवसर था। इसलिए वह अंग्रेज के साथ आँखें मिलाते हुए डर रहा था। जब दोनों की आँखें मिल ही गईं तो रंगा ने पूछा, “आ
र यू आल राइट?“ गोरे ने जवाब दिया। “हाँ। थैंक्यू। “ रंगा ने भी जवाब में कहा, “थैंक्यू।”

“तुम नहीं आते तो मेरा बचना मुश्किल था। किसी डिब्बे में आग तो नहीं लगी?” अंग्रेज ने कहा।
रंगास्वामी को अंग्रेज़ी में जवाब देना मुश्किल लगा। वह पसीना-पसीना हो गया। वह चाहता था कि बैग से तौलिया निकालकर पसीना पोंछ ले। लेकिन तभी उसे बैग में रखे मंगलसूत्र, नेकलेस का ध्यान आया और वह चुपचाप उसी तरह खड़ा रहा। “डरो नहीं। तुम मित्र हो।” अंग्रेज ने उसके घुटने को छूकर उसे आश्वस्त किया। रंगास्वामी ने अंग्रेज को धन्यवाद कहा। ब्रिटिश अफसर जैसे-तैसे खड़ा हो गया और एक ट्रंक को खींचा और दरवाज़े से निकल कर डिब्बे पर चढ़ गया। तब उसने रंगा को बुलाया, “कम ऑन” ब्रिटिश अफ़सर ने उलटे पड़े डिब्बों और कराहते घायलों और कुछ दूरी पर खड़े गाँववासियों को देखा। फिर उसने हाथ बढ़ाकर रंगास्वामी को भी डिब्बे के ऊपर खींच लिया। फिर कहा, “फॉलो मी।” तब अंग्रेज आगे बढ़ चला। पीछे-पीछे अपना हैंडबैग लिए रंगास्वामी हो लिया। आखिरी डिब्बे तक पहुँचकर अंग्रेज ने रंगा को
कहा, “कम ऑन, जम्प।” तब दोनों नीचे कूद गए। नीचे आने के बाद ब्रिटिश अफ़सर ने उसे अपना विज़िटिंग कार्ड देते हुए कहा, “तुम बंगलौर जाने के बाद आकर मुझसे मिलना।” रंगास्वामी ने अंग्रेज से कार्ड लेकर हाथ मिलाया और ‘थैंक्यू’ कहा।

रंगास्वामी के सिर से जैसे कोई बोझ उतर गया। वह पास खड़े गाँववासियों के पास पहुँचकर पास के बस अड्डे के बारे में पूछकर बस अड्डे की तरफ बढ़ चला।

वह जैसे-तैसे एक बस में चढ़ा और अगली सुबह बंगलौर पहुँच गया। वह चाहता तो था कि दुर्घटनास्थल पर रुक कर कुछ लोगों की मदद करे, लेकिन पाजामे की जेब में रखे दस हज़ार रुपयों और हैंडबैग में रखे सोने के नेकलेस (मंगलसूत्र) ने उसे ऐसा नहीं करने दिया। बंगलौर पहुँचकर वह अपने बहनोई के घर गया। वह चाहता था कि अपनी बहन और बहनोई को रेल दुर्घटना के बारे में बताए, लेकिन सोने का नेकलेस और रुपए? उसका बहनोई एक किराने की दुकान पर क्लर्क था। यदि उसने रुपए और नेकलेस वापस करने की बात कही तो?

वह बैठकर कॉफी को धीरे धीरे पी रहा था कि एकाएक रेल दुर्घटना का पूरा दृश्य फिर से मन की आँखों के सामने आ खड़ा हुआ। वह व्यक्ति जिसके उसने हज़ार-हज़ार के दस नोट चुराए, गोरे चिट्टे रंग की मृत महिला का भूत उसका पीछा करता हुआ यहाँ तक पहुँच जाए तो? जब वह बैठा-बैठा यह सब सोच रहा था, उस दौरान उसका बहनोई काम पर जाने की तैयारी में जुटा था।
“भावा (बहनोई)” रंगास्वामी पुकार उठा।
“हूँ कहो!”

“जिस रेलगाड़ी पर मैं सफ़र कर रहा था, वह एक पुल पर पटरी से उतर गई थी। मैंने कुछ लोगों की मदद की। उनमें से एक ब्रिटिश अफ़सर भी था। उसने मुझे अपना कार्ड देकर कहा कि मैं उससे मिलूँ।” उसने इतना कहकर विज़िटिंग कार्ड बहनोई को पकड़ा दिया। बहनोई ने कार्ड को देखकर एकाएक कहा, “तुम किस्मतवाले हो। यह ब्रिटिश अफ़सर बंगलौर का कलक्टर है। वह तुम्हें कोई भी बड़ी सरकारी नौकरी दे सकता है।” उसने इतना कहकर पत्नी को आवाज दी, “ सुनती हो, तु
म्हारा भाई बड़ा अफ़सर बनने जा रहा है।”

बहनोई ने रंगा से कहा, “जल्दी से नहाओ और जाकर उससे मिलो।” इतना कहकर बहनोई चला गया।

रंगास्वामी भी नहा-धोकर तैयार हुआ और कलक्टर साहब से मिलने चल दिया।
अच्छी तरह बाल सँवारे, सफेद-चख धोती और कमीज पहने रंगास्वामी पैदल ही कलक्टर साहब के विशाल बँगले पर जा पहुँचा। जब उसने गेट पर खड़े चौकीदार को कार्ड दिखाया तो चौकीदार उसे साथ लेकर अन्दर पोर्टिको तक आया। तब उसे सोफे पर बैठने को कहा। अन्दर से कलक्टर साहब आए और गर्मजोशी से उसके साथ हाथ मिलाया। कलक्टर साहब ने तब शुद्ध अंग्रेज़ी में रंगा से उसके बारे में उसकी पृष्ठभूमि के बारे में पूछा। तब उससे पूछा कि अगर उसे कोई मदद चाहिए तो कहे। रंगास्वामी ने टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में कहा कि वह बंगलौर में व्यापार करना चाहता है और इसके लिए उसे थोड़ी सी जगह चाहिए। अगर जगह चिक्कापेट एरिया में हो तो बहुत अच्छा हो।”
 
रंगास्वामी ने अपने बहनोई और उसके मालिक को मदद करने को कहा ताकि वह किराना की दुकान खोल सके। धीरे-धीरे कुछ स
मय बीतने पर उसने कपड़े की दुकान खोल ली। तब एक हैंडीक्राफ्ट की दुकान भी खोल ली। उसके यहाँ सैकड़ों लोग काम करते थे।

वह अपने कर्मचारियों को अच्छा वेतन देने के साथ ही उनके दुख-सुख का भी ध्यान रखता था। बाद में कर्मचारियों के लिए छोटे-छोटे घर भी बनवा दिए। उसने चेन्नई में एक धनी व्यक्ति की बेटी के साथ विवाह किया। युद्ध के दिनों में उसने बहुत पैसा बनाया और एक सुन्दर घर बनवाया, जो बिल्कुल महल की तरह था। इस सबके बावजूद वह साधारण जीवन व्यतीत करता था। उसमें घमंड नाम मात्र को भी नहीं था। वह जरूरतमंदों की मदद करने को सदैव तैयार रहता था। उसने अपने नौकरों को कभी गुलाम नहीं समझा। वे सब उसके परिवार के सदस्यों के समान थे।

उसके दो बेटे और दो बेटियाँ थीं। जब उसका बेटा तीन वर्ष का था तो उसे अंग्रेज़ी और संस्कृत सिखाने के प्रबंध किए गए। वह तिरुपति वेंकटरमणस्वामी का सच्चा भक्त था और तिरुपति स्थित मन्दिर में हर वर्ष जाता था। उसने अपने सबसे बड़े बेटे का नाम भी वेंकटेश्वरस्वामी रखा। माता-पिता उसे ‘वेंकट’ कहकर पुकारते और मित्र ‘वेंकट स्वामी’, जब वेंकट छह वर्ष का हुआ तो उसे पोर्ट हाई स्कूल में दाख़िल करवाया गया। श्री देशपांडे हेडमास्टर थे। वह बच्चों के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे और चाहते थे कि उनके छात्र पूरे संसार को जान पाएँ। इसलिए स्कूल की लायब्रेरी बहुत ही विशाल थी। वह महान लोगों को स्कूल में आमंत्रित करते थे। साथ ही बच्चों को राज्य के विभिन्न क्षेत्रों को देखने के लिए भेजते थे। जैसे कि चित्रा दुर्ग, बलालारायमा दुर्ग, नंदी दुर्ग, श्रीरंगापट्टनम, बैलूर, सोमनाथपुर, गगनचुक्की, भार
तचुक्की आदि। इस ढंग से वह अपने छात्रों को इतिहास और भूगोल की शिक्षा दिया करते थे। ऐसे स्कूल में वेंकटस्वामी कार में आया-जाया करता था।

एक दिन वेंकट स्कूल से लौटा और कार से उतरते ही भागकर अपने पिता के पास पहुँचा, “अप्पा, हम रेलगाड़ी से तालागुप्पा जा रहे हैं।”
“कौन-कौन जा रहा है तुम्हारे साथ ?” रंगास्वामी ने पूछा।
“पूरी क्लास के बच्चे और तीन अध्यापक।” वेंकट ने जवाब दिया।
रंगास्वामी ने मन ही मन भगवान वेंकटरमन की प्रार्थना की और तब कहा, “उन्हें ट्रेन से जाने दो। तुम्हें मैं कार से भेज दूँगा।”
“अप्पा, मैंने रेलगाड़ी में कभी यात्रा नहीं की है। इस बार जाने दीजिए न।” बेटे ने जैसे प्रार्थना की।
“तुम जिद्दी होते जा रहे हो।” रंगास्वामी ने गुस्से से कहा। वेंकट ने एक शब्द भी होंठो से नहीं निकाला। वह सीधा अपनी माँ के पास रसोई में गया और उसे मनाकर अपनी तरफ कर लिया। अगले दिन वह हेडमास्टर के पास गया। हेडमास्टर औ
र पत्नी के ज़ोर देने पर आखिर उसे अपने पुत्र की माँग पूरी करनी पड़ी।

उन दिनों स्वतंत्रता संग्राम ज़ोरों पर था। टुमकूर रेलवे स्टेशन के पास ट्रेन काफ़ी धीमी गति से चल रही थी, जब उसका इंजन पटरी से उतरकर उलट गया। बाद में सारे डिब्बे भी उलट गए तेज आवाज़ें करते हुए। रंगास्वामी को जैसे ही टेलीग्राम से एक्सीडेंट की खबर मिली, वह टुरमूर की ओर अपनी कार में निकल लिया। पूरे रास्ते उसे लगता रहा, जैसे वह गोरे रंग की अधेड़ आयु की स्त्री उसका पीछा कर रही है। गले में वही सोने का भारी मंगलसूत्र पहने। रंगास्वामी ज़ोर-ज़ोर से सस्वर तिरुपति मन्दिर, मैसूर की चमुंडेश्वरी, श्रीरंगपटनम की रंगमाता, बंगलौर के धर्मरागा, कुडाली नरसिंह, चन्द्रागुथ येलम्मा आदि देवी-देवताओं की मनौतियाँ मनाने लगा।

टुमकूर पहुँचकर उसने उलटी पड़ी रेलगाड़ी देखी। स्टेशन पर उसे बताया गया कि घायलों को टुमकूर के अस्पताल में भरती करवाया गया है। अब वह सीधा अस्पताल की तरफ लपका। हेडमास्टर श्री देशपांडे अस्पताल के दरवाज़े पर ही खड़े थे। उसे देखते ही श्री देशपांडे ने हाथ जोड़ते हुए कहा, “आपका बेटा... “
“क्... क्या हुआ मेरे बेटे को ?” रंगास्वामी को इतना बोलना भी बहुत कठिन प्रतीत हुआ। “उसकी जान को कोई खतरा नहीं है। “ श्री देशापांडे ने दिलासा देते हुए कहा।
“वह कहाँ है?” रंगास्वामी जल्दी से जल्दी अपने बेटे को देख लेना चाहता था।
“मेरे
साथ आइए।” श्री देशपांडे आगे बढ़े और पिता रंगास्वामी को पुत्र के बेड के पास ला खड़ा किया। उसकी दाहिनी टाँग पर प्लास्टर चढ़ा था। पिता को देखकर वेंकट खुश हो गया। “अप्पा ! आप कब आए?”
पिता ने वेंकट के बालों में अंगुलियाँ फिराते हुए कहा, “अभी आया हूँ मेरे बच्चे। अपने से बड़ों की आज्ञा का पालन करना चाहिए। मैंने तुम्हें नहीं कहा था कि ट्रेन से न जाओ पर तुमने मेरी बात नहीं मानी।”

श्री देशपाँडे भी पछतावे में दिखने लगे। इतना कहने के बाद धर्मय्या ने थोड़ा आगे रुककर आगे कहा, “मैं स्वर्ग-नरक, पाप, पछतावे में विश्वास नहीं रखता। लेकिन रंगास्वामी के जीवन को देखने के बाद जान पड़ता है कि कहीं कोई अपरिचित शक्ति है जो पाप की सज़ा निर्धारित करती है। रंगास्वामी ने असंख्य लोगों की मदद की। ऐसे सच्चे आदमी के बेटे को अपनी एक टाँग गँवानी पड़ी उस एक्सीडेंट में। क्या ईश्वर निर्दयी है जो उसने एक बच्चे को अपाहिज बना दिया? मैं नहीं समझता कि रंगास्वामी द्वारा जो मृत स्त्री का सोने का नेकलेस और दस नोट लिए गए वह कोई बहुत बड़ा पाप था। मैं नहीं समझता कि वह कोई गलत बात थी। लेकिन इस घटना ने रंगास्वामी को जीवन भर भारी यातना दी।“ धर्मय्या ने बात समाप्त करते हुए मेरी तरफ देखा। उसे मेरी टिप्पणी की प्रतीक्षा थी। जब मैंने कुछ नहीं कहा, तो वह बोला, “अगर तुम रंगास्वामी की जगह होते तो क्या उसी की तरह व्यवहार करते?”
“उ
त्तर आपके प्रश्न में ही छिपा है,” मैनें कहा।

उसकी कहानी सुनते हुए मुझे हैरानी हो रही थी। वह यह सब मुझे क्यों सुना रहा है। रंगास्वामी ने कभी धर्मय्या की मदद की थी, इसलिए धर्मय्या के मन में उसके प्रति लगाव और अपनेपन का भाव था। मुझे लगा कि शायद इसलिए वह रंगास्वामी की आलोचना नहीं बर्दाश्त कर सकता था। इसलिए मैंने सारांश निकाला कि इस कहानी का नायक रंगास्वामी न होकर खुद धर्मय्या है। साथ ही मैंने यह भी अनुभव किया कि नायक शायद धर्मय्या भी नहीं। धर्मय्या और रंगास्वामी और कुछ न होकर मात्र प्रतीक हैं। वे आपके और मेरे प्रतीक हैं। आप मुझसे सहमत हों या न हों, अब यह आप पर निर्भर करता है।

 

२० मई २०१३

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