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ब्रसेल्स में भारत महोत्सव
डागर बंधुओं का गायनबसेरे से दूर थके-माँदे बटोही को देस की सोंधी गंध समेटे हुई शीतल बयार भला क्यों नहीं लुभाएगी? और अगर हवाओं पर सवार होकर संगीत के सुर आएँ, पकवानों की ख़ुशबू आए और अपने लोग भी आएँ तो सोने पे सुहागा! यूरोप का हृदय कहे जाने वाले बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में रही 7 अक्तूबर 2006 से लेकर 21 जनवरी 2007 तक भारत महोत्सव की धूम, और इन साढ़े तीन महीनों में हवाओं के रस्ते भारत से बहुत कुछ आता रहा।

मात्र 1 करोड़ की आबादी वाले इस छोटे से देश में भारतीयों की संख्या केवल 0.1 प्रतिशत ही है और शायद इसीलिए यहाँ के लोग भारत के बारे में बहुत उत्सुक हैं। स्थानीय लोगों में महोत्सव के प्रति उत्साह इतना था कि बहुत से कार्यक्रमों में 3000 से भी अधिक क्षमता वाला सभागार छोटा पड़ गया।

महोत्सव की शुरुआत की भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के अध्यक्ष डॉ. कर्ण सिंह ने दीप प्रज्वलन के साथ। इसके बाद हुआ नृत्य का अनूठा सामंजस्य जिसमें अलारमेल वल्ली का भरत नाट्यम और माधवी मुद्गल का ओडिसी एक दूसरे में ठीक वैसे ही घुले हुए थे जैसे भारत में अनेक संस्कृतियों की गंध! कार्यक्रम में स्वयं बेल्जियम की महारानी भी उपस्थित थीं।

महोत्सव का प्रमुख आकर्षण थी "भारतीय कला के 1500 वर्ष" नामक प्रदर्शनी जिसमें लगभग200 ई. पू. से लेकर 1300 ईस्वी तक की भारतीय मूर्तिकला का प्रदर्शन किया गया था। इनमें से अधिकांश मूर्तियाँ उड़ीसा, राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के कई संग्रहालयों से लाई गईं थीं। आयोजकों की सराहना करनी होगी कि उन्होंने मूर्तियाँ प्रदर्शित करने के साथ-साथ उनके विवरण और उनके पीछे छिपी कथाओं और दर्शन को भी बहुत रोचक ढंग से प्रस्तुत किया। बहुत से लोग तो यह देखकर इतने अभिभूत हुए कि यह सब पन्नों पर उतारकर ले गए।

रावण और सीताः नाट्य प्रस्तुतिपूरे महोत्सव में हज़ारों कलाकारों ने 100 से भी अधिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए। भारत के विषय में बहुत सारी कार्यशालाएँ भी लगीं। एक ओर बच्चे रंगोली सीखते और तबला बजाते, वहीं दूसरी ओर मम्मियाँ नए-नए पकवान बनाना और साड़ी पहनना सीखतीं और बच्चों के पापाओं को योग सीखने भेज देतीं। सबकी शिकायत थी कि इतना कुछ है भारत के बारे में जानने को, क्या-क्या करें?

साहित्य के कार्यक्रम हुए तो निदा फ़ाज़ली, लीलाधर जूगड़ी, अमित चौधरी और वी.एस. नायपॉल ने लोगों से बातें कीं और शर्मिला रॉय ने गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर की कविताएँ गाकर सुनाईं। कुछ नाटकों का मंचन भी किया गया, जिनमें गांधी जी के जीवन पर आधारित नाटक "सामी" प्रमुख था। इनके अलावा सन 1857  की क्रांति की पृष्ठभूमि में बनी फ़िल्म "द राइज़िंग" भी प्रदर्शित की गई।

संगीत के कार्यक्रमों की तो भरमार थी। महोत्सव के आरंभिक दिनों में डागर बंधुओं और अंतिम दिनों में गुंदेचा बंधुओं ने ध्रुपद गाकर समा बाँध दिया। पंडित जसराज ने अपनी चिर-परिचित शैली में "जय हो" का उद्घोष किया तो पूरा सभागार मानो चमत्कृत-सा रह गया और तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। वहीं संजीव अभ्यंकर की स्वर-लहरियों ने भी सबका मन मोह लिया। कला रामनाथ का उत्तर भारतीय शैली और डॉ. एन. राजम का कर्नाटक शैली में वायलिन वादन भी सबको मंत्रमुग्ध कर गया। पंडित हरिप्रसाद चौरसिया ने जब बंसी की धुन छेड़ी तो श्रोतागण अपनी कुर्सियों पर चिपके रह गए और फ़रमाइशों की लंबी सूची पंडित जी के सामने रख दी। राजस्थानी गाँवों से सपेरे आए, बंगाल से ढोल बजाते और नाचते-गाते लोग आए, बिहार से छाऊ नृत्य करते कलाकार और पंजाब से मतवालों की बल्ले-बल्ले टोली आई। सभी लोक कलाकारों ने सबका मन मोह लिया।

आशा भोंसलेजब शास्त्रीय संगीत था, लोक संगीत था तो भला बॉलीबुड संगीत कैसे पीछे रहता। ब्रसेल्स के चप्पे-चप्पे पर आशा जी की तस्वीर महीनों से चिपकी ही थी, और जब स्वयं आशा भोंसले अपने दल-बल के साथ आईं तो कार्यक्रम में उन्हें गाने का उतना मौका न मिला हो जितना दर्शकों को ताली बजाने का मिला!

महोत्सव की अंतिम प्रस्तुति थी उस्ताद ज़ाकिर हुसैन का तबला और पंडित वीकू विनायकम का घटम, साथ में मणिपुर के पुंग नामक ढोल को बजाते किशोर। अंत में जब तीनों ने एक साथ ताल से ताल मिलाना शुरू किया तो दर्शक झूमे बिना न रह सके और कार्यक्रम समाप्त होने के बाद भी अपने स्थान पर खड़े हो, अभिभूत होकर ताली बजाते रहे।

अधिकांश संगीत कार्यक्रमों के मध्यांतर में भारतीय खान-पान की व्यवस्था होती थी। लोगों ने समोसे, वड़े, भटूरे और लस्सी का भरपूर आनंद लिया।

यह बेल्जियम और आस-पास के देशों के लोगों को भारत के बारे में जानने का अच्छा मौका था। आज विकास की दौड़ में ऐसे सांस्कृतिक आयोजन ही तो हैं जो लोगों को एक दूसरे से जोड़ कर रखते है। बस, हवाएँ ऐसे ही आती रहें, जाती रहें।

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