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संस्मरण

कवि वही जो अकथनीय कहे
कैलाश गौतम


डॉ. जगदीश गुप्त की यह पंक्ति कि ''कवि वही जो अकथनीय कहे'' अब सुनने को नही मिलेगी। इलाहाबाद की गोष्ठियों में अक्सर डा. साहब से बहुत कुछ सुना जाता था लेकिन इस कविता को वे खास तौर से सुनाते थे। पिछले लगभग आठ दस वर्षों से जिस तरह की जिन्दगी उनकी हो गयी थी उसे देखते हुए एक तरह का आश्चर्य होता था कि ऐसे में कैसे चले आये डाक्टर साहब। इन्हें नहीं आना चाहिये था लेकिन ऐसा हो नहीं सकता था कि चलने फिरने की सामर्थ्य रखने के बावजूद डाक्टर साहब कार्यक्रम में न उपस्थित हों। अगर उन्होंने हाँ कह दिया है तो अपनी हाँ की रक्षा वह स्वयं करेंगे¸ मौसम खराब हो तो क्या? माहौल खराब हो तो क्या? जगदीश गुप्त जीते जी हार मानने वालों में से नहीं थे।

शायद उनकी यही सहजता उनको वहाँ पहुँचा देती थी¸ जहाँ उनकी प्रतीक्षा की जाती थी। असुविधा¸ कठिनाई और बीमारी को हमेशा ठेंगे पर रखते थे जबकि बीमार गंभीर रूप से थे। बाई पास सर्जरी कराने से पहले भी और कराने के बाद तो और भी उन्हें अपने स्वास्थ्य के प्रति गंभीर हो जाना चाहिये था। लेकिन नहीं¸ उन्हें तो जीवन मूल्यों के तहत जीना था। हँसते हुए मुस्कुराते हुए और बोलते–बतियाते हुए। यही उन्होंने किया भी। शायद जीवन जीने की यही शैली उनकी संजीवनी थी। इस शैली के वे आदी थे। औरों की तरह घर में रहते हुए नहीं कहलवा देना उनके संस्कार में नहीं था। अपने इस संस्कार को वह ओढते बिछाते हुए जीवन भर दिखायी दिये। कभी–कभी तो सुबह के निकले आधी रात को ही घर पहुँचते थे – यहाँ भी वहाँ भी होते हुए। चेहरे पर न थकान न बोरियत न ऊब न झुँझलाहट बल्कि वही खिलखिलाहट वही ताजगी¸ वही विश्वास।

अपनी ही मित्र मंडली में डाक्टर साहब का यह कैडर अलग दिखायी देता था। ऐसा शायद इसलिए भी था कि संघर्ष उनकी घुट्टी में था। पिता के स्नेह से वंचित मातृ पोषित बचपन को सामाजिकता का संस्कार संघर्ष के साथ घलुआ में मिलता है। उन्हें भी सामाजिकता घलुआ में मिली थी। वह नहीं पूछते थे– कौन जाति किस कुल के कौन गाँव किस पुरखे बल्कि मिलते ही गद्गद और भाव विह्वल हो उठते थे। अच्छा अच्छा आप वहाँ के हैं¸ वो कैसे हैं? वो कैसे हैं? जैसे सवालों को सुनने वाला अपना सवाल भूल जाता था अपनी समस्या भूल जाता था और अपने को भी भूल जाता था केवल एकटक वह डा. गुप्त को ही निहारता रहता था¸ इस उत्कंठा के साथ अरे ये तो अपने नगर से इतना ज्यादा परिचित हैं? इनको पूछ रहे है उनको पूछ रहे हैं।

पहली बार मिलने वाला मिलकर सचमुच आश्चर्य में पड जाता था क्योंकि ऐसी हैसियत वाले व्यक्तित्व से अमूमन ऐसे व्यवहार की उम्मीद नहीं की जाती लेकिन दारागंज की गलियों में रहते हुए¸ चलते हुए उन्हें हर दम निराला की आहट मिलती रहती थी। यह आहट निराला के जीवन काल में जितनी प्रेरक थी उनके लिए उससे कही ज्यादा प्रिय प्रेरक हो गयी निराला के न रहने के बाद।

इस सहजता के लिए कभी–कभी डाक्टर साहब हल्के से मुस्कुरा के कहते भी थे कि दारागंज ने मुझे बहुत कुछ दिया है और इसके लिए मैं निराला जी का आभारी हूं। क्योंकि निराला जी ने यह सिद्ध कर दिया है कि सहज होकर जीना ही साहित्यकार की सबसे बडी क़सौटी है। बात भी सही है। रचनाकार के साक्षात्कार से ही उसके साहित्य की पहचान हो जाती है क्योंकि यह साक्षात्कार मार्गदर्शन का काम करता है। यही मिलने वाले को वहाँ तक पहुँचाता है। रचनाकार को जानने के बाद उसकी रचना को जानने समझने में काफी सहूलियत मिलती है। पन्ना दर पन्ना वैसे ही खुलता चला जाता है जैसे बोलते बतियाते रचनाकार खुलता चला गया था। यह विशेषता डा. जगदीश गुप्त में कूट–कूट कर भरी थी। इसी को वह अपना श्रेय और प्रेय दोनों मानते थे। धर्म और संस्कार की तरह¸ इसीलिए वह अपनी अस्वस्थता को भी ठेंगा दिखाते हुए जिन्दगी जीते थे। जिन्दगी ही महत्त्वपूर्ण थी उनके लिए¸ अस्वस्थता नहीं।

डॉ. साहब मेरे गुरू थे। एम. ए. में मेरा एडमिशन भी उन्हीं के चलते हुआ। नौकरी में आकर एम. ए. करना और वह भी रेडियो की नौकरी करते हुए बहुत मुश्किल था। उन दिनों हमारे विभाग के प्रोडयूसर हुआ करते थे श्री केशव चन्द्र वर्मा। केशव जी से मैंने एम. ए. करने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने एक पत्र लिखकर मुझे दिया डा. जगदीश गुप्त के लिए। तब डाक्टर साहब मोती महल में रहा करते थे। उन दिनों मैं भी दारागंज में ही रहता था¸ दीक्षित दरोगा जी के मकान में। पास में ही श्री नरेश मिश्र भी रहते थे और नरेश जी चूंकि हमरे विभागीय सहयोगी भी थे। उन्हीं के प्रयास से दरोगा जी वाला मकान मिला था। दरोगा जी के मकान से मोती महल की दूरी मुश्किल से सौ गज होगी। लेकिन कभी अपनी व्यस्तता तो कभी डाक्टर साहब के इलाहाबाद से बाहर होने के नाते केशव जी का पत्र हफ्तों क्या महींनों पडा ही रहा।

इसी बीच हिन्दी से एम. ए. करने के लिए हाथरस से अशोक शर्मा इलाहाबाद आये। उनसे जान पहचान हुए लगभग दो चार महीने हो भी गये थे। अशोक का एडमीशन हर हालत में होना ही था लेकिन कोई ऐसा सूत्र पकड में नहीं आ रहा था और समय दो ही चार दिन का रह गया था। उन दिनों डाक्टर साहब का यह नागवासुकी वाला मकान बन रहा था। उनके शिष्य क्षेत्रपाल जी से संपर्क किया गया लेकिन समय कम होने के कारण और डाक्टर साहब से सीधे सम्पर्क न हो पाने के कारण अशोक का नाम इस साल नहीं लिखाया जा सका। जब अशोक का ही नाम नहीं लिखा जा सका तो मैंने अपने लिए प्रयास बिल्कुल ही नहीं किया । लेकिन पत्र मैंने डाक्टर साहब को दे दिया¸ केशव जी वाला। हालाँकि अशोक का पूरा साल इलाहाबाद में खाली बीता लेकिन इस दौरान अशोक के इलाहाबाद में टिकने और रोजी रोटी के जुगाड में उमाकान्त जी की भूमिका काम कर गयी।

संयोग से एक गोष्ठी में जगदीश जी से मुलाकात हुई उन्होंने अशोक की कविताएं भी सुनी¸ उसे खूब सराहा भी लेकिन जब उमकान्त जी उनके सामने अशोक के एडमीशन की बात कहीं तो मुस्कुराये और बोले रत्नाकर और रसाल जी के बाद की पीढी क़े ब्रजभाषा के किसी कवि का छंद सुनाओ तो जानूँ कि आप ब्रज के इलाके के हैं। अभी अशोक सोच ही रहा था कि मालवीय जी बोल पडे अरे विस्वजू फिस्वजू का कोई छंद याद नहीं है और इतना कहकर मालवीय जी ठठा पडे। उसी वजन उसी अनुपात में जगदीश जी हँसे और हम और अशोक दोनों भकुआ की तरह चुप। उसी दिन हम दोनों का यह जानकारी भी हुई कि डा. जगदीश गुप्त के कविताओं का आदिम उपनाम विस्वजू है। इसी विस्वजू को अपने अंदाज में फिस्वजू तक पहुँचा दिया था।

चलते चलते रिक्शे पर बैठते हुए डाक्टर साहब ने भी एक जुमला और वैसा ही कसा जैसा उमाकान्त जी ने कसा था। उन्होंने मुझे और अशोक को सम्बोधित करते हुए कहा तुम दोनों बढिया चल रहे हो। बस अपने आप को बादल फादल की छाप से बचाए रखना। जगदीश जी का रिक्शा आगे बढ ग़या। लेकिन उमाकान्त जी का ठहाका और जोर से गूँज उठा। बाद में रास्ते में चलते हुए उमाकान्त जी ने बादल शब्द का रहस्य उजागर किया। वह भी शुरूआती दिनों में बादल उपनाम से गीत लिखा करते थे। इस घटना के करीब दो चार महीने बाद केशव जी के ही मार्फत मुझे सूचना मिली कि मैं तुरंत डा. जगदीश गुप्त से मिलूँ¸ गया¸ मिला। डाक्टर साहब ने कहा कि भाई मैं इस साल एक एडमिशन करवाना चाहता हूँ और इसे पक्का समझिये।

अब आप लोग तय करके बताइये। मेरी इच्छा यही थी कि हर हालत में अशोक का नाम लिखा जाय। क्योंकि उसका एक साल खराब हो चुका था। उसके सामने कैरियर का सवाल था। हुआ भी वही। अशोक का एडमिशन हो गया और मैंने एक साल बाद एडमिशन लिया। ये बातें मैं इसलिए कहे रहा हूं कि डा. जगदीश गुप्त की दृष्टि और सोच में इंसानियत का कुछ और ही स्वरूप रचा बसा था।

ऐसा स्वरूप विरलों को ही मिलेगा। सब में नहीं और खास तौर से नई पीढी क़े प्रति आगत पीढी क़े प्रति हमेशा मंगल कामना का ही भाव उनके मन में रहता था। जो एक बार जाता था वह बार बार जाना चाहता था। काम तो वह पूछते नहीं थे। पूछते थे हाल चाल। सुनते थे¸ सुनाते थे। जहाँ संशोधन की आवश्यकता समझते थे वहाँ सुनने सुनाने के क्रम में संशोधन भी करते चलते थे।

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