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संस्मरण



दो चेहरे


मन्नू भंडारी 

31 अक्टूबर, 1984

साहित्य–अकादेमी का कोई कार्यक्रम चल रहा था। पहला सैशन समाप्ति पर था कि तभी डॉ• नगेन्द्र हड़बड़ाए से आए और सूचना दी कि इंदिरा गांधी के अंग–रक्षकों में से ही किसी ने उन पर गोलियां चलाई और उन्हें तुरंत मेडिकल इन्स्टिट्यूट ले जाया गया है। 

इंदिरा गांधी की हालत क्या है . . .कैसी है, इसकी कोई सूचना उन्हें भी नहीं थी, पर गोलियों के बाद . . .तुरन्त कुछ लोग टाइम्स ऑफ इंडिया के दफ्तर की ओर दौड़ गए पूरी सूचना लाने के लिए और वहां का सारा माहौल अजीब सी आशंकाओं से भर गया। कितनी बार आगाह किया था कि ऑपरेशन– ब्लू– स्टार के बाद कम से कम अपनी पर्सनल सिक्योरिटी में से तो सरदारों को हटा दीजिए, पर उनका एक ही जवाब रहता था कि 'नहीं, न तो मैं किसी पर अविश्वास करूंगी और न ही इस तरह का कोई भेदभाव करूंगी।' मिल गया विश्वास का फल? . . .राजनीति का खेल, जो न कराए सो थोड़ा। अपनी राजनीति का मोहरा बनाकर जिस भिंडरवाला का इंदिरा गांधी ने खड़ा किया, आखिर उसी के लोगों ने उन्हें हमेशा के लिए हटा दिया . . .तरह–तरह की टिप्पणियां . . .तरह–तरह के आरोप–प्रत्यारोप . . .तरह–तरह की आशंकाएं।

शाम को मृत्यु की सूचना मिलते ही आशंकाएं हकीकत में बदली और दूसरे दिन से ही दंगे शुरू हो गए। जिन्होंने देखते ही देखते भयंकर रूप धारण कर लिया मारने–मरवाने वाले कोई रहे हों, पर झेला तो सभी ने। दूसरे दिन शहर में कर्फ्यू लग गया। अगले दिन समाज–सेवी मित्र रेणुका मिश्रा का फोन मिला कि थोडे से काम करने वालों को और खाने का सामान और दवाएं जितना भी हो सके इकठ्ठा करके तैयार रहिए . . .त्रिलोकपुरी जाना है। त्रिलोकपुरी . . .निम्नमध्यवर्ग लोगों की बस्ती, जहां रात में भयंकर तबाही मची थी। रेणुका ने कर्फ्यू–पास और कुछ डॉक्टरों का प्रबंध कर लिया था।

त्रिलोकपुरी थाने के सामने बड़े–से मैदान में सारी रात कांपते–थरथराते लोगों का हुजूम, ध्वस्त वर्तमान और अंधकारपूर्ण–अनिश्चित भविष्य की दहशत लपेटे। उनके चेहरे कल रात त्रिलोकपुरी में हुए बर्बर कांड की गवाही दे रहे थे। खून से सने, घायल, अधजले लोगों को तो मैं देख भी नहीं सकती सो तीन–चार लोगों के साथ मैंने जिम्मा लिया चाय बनाने का। थाने के पीछे बड़े–बड़े पत्थर जोड़कर चूल्हा बनाया . . .ढेर सारी लकड़ियां जलाई और थाने से ही मिले एक बड़े भगोने में पानी चढ़ा दिया। सामान टटोलते हुए देखा कि चाय की पत्ती और चीनी तो है पर दूध तो गायब . . .न पाउडर न मिल्कमेड। अब? बिना दूध के चाय कैसे दी जाएगी और कर्फ्यू में दूध मिलेगा कहां? साथ ही यह भी लग रहा था कि घायलों के लिए जैसे तुरंत मेडिकल–एड ज़रूरी थी वैसे ही बचे हुए लोगों के लिए – जिन्होंने पूरी रात खुले मैदान में काटी थी, चाय ज़रूरी थी। पर दूध? तभी थाने के एक सिपाही ने बताया कि पास में ही एक खटाल (जहां गाएं–भैंसें रखी जाती हैं, जिनको दुहकर सारे शहर में दूध भेजा जाता है) तो है। कर्फ्यू की वजह से दूध भी सारा वही पड़ा होगा, पर वे देंगे नहीं।
"क्यों?"
"मारनेवाले भी तो साहब ये ही लोग थे। मांगने पर दूध की जगह दो–चार डंडे न जमा दें।"
दूसरे सिपाही ने रास्ता सुझाया – "आप औरतें जाइए। दूध न भी दिया तो कम से कम मार–पीट तो नहीं करेंगे।"
अजीब विडंबना थी . . .एक ओर बर्बाद होते दूध की टंकियां और दूसरी ओर भूखे, कुम्हलाए, दहशत भरे चेहरे, जो भी हो, निपटा जाएगा . . .एक बार जाकर देख तो आएं। हम दो लोग गए। पहले गाड़ी में से ही झांककर देखा . . .सामने एक तख्त पर दूध की टंकियां रखी थीं। कुछ दूर एक खटिया पर तीन लोग बैठे थे, पग्गड़ बांधे, अधेड़, शायद चुपचाप ही थे। हिम्मत करके हम दोनों उतरीं। चारों ओर का जायजा लेते हुए उनके पास जाकर, आवाज़ में भरसक याचना घोलकर अपनी मांग रखी – "पांच लिटर दूध दीजिएगा?"
उन्होंने ऊपर से नीचे तक हमें अपनी तीखी नज़रों से देखा–परखा फिर एक सूखा–सा प्रश्न – "किसलिए?"
प्रश्न चाहे बेहद रूखाई से पूछा गया था पर उसमें खतरे जैसी कोई बात नहीं लगी तो मैंने साफ–साफ ही कहा, "आप भी जानते हैं कि कर्फ्यू में हम यहां क्या करने आए हैं? जो हुआ सो हुआ पर अब तो यह इन्सानियत का तकाज़ा है कि उन लोगों की जितनी भी हो सके मदद की जाए।" कहते ही मुझे खुद अपनी बात बड़ी हास्यास्पद लगी। जिन्होंने मारा उन्हीं से मदद की याचना, पर स्थिति ही ऐसी थी। कुछ क्षणों तक चुप्पी छाई रही। मुझे लगा जैसे बिना शब्दों के आंखों ही आंखों में तीनों में वार्तालाप हो रहा था कि बोलने वाला अपनी किसी भीतरी दुविधा से उबर रहा था। समझ पाना सचमुच मुश्किल था। अजीब स्थिति थी – हम जवाब की प्रतीक्षा में और वे शायद जवाब देने की दुविधा में। थोड़ी देर बाद बेहद ठंडे स्वर में उसी व्यक्ति ने कहा – "ठीक है ले जाइए।" स्वर में और चाहे जो हो, बर्बाद होते दूध में से पांच लिटर दूध बिक जाने की खुशी कतई नहीं थी। उठकर वह तख्त की ओर बढ़ा तो एकाएक हमें ध्यान आया कि दूध लेने के लिए कोई बर्तन तो लाए ही नहीं, सो बड़े झिझकते हुए अपनी मांग को थोड़ा और आगे सरकाते हुए कहा – "थोड़ी देर के लिए अपनी कोई टंकी भी हमें दे दीजिए . . .उसके लिए भी आप पैसे रख लीजिए, काम खत्म होते ही हम टंकी लौटा जाएंगे।"

उसके बढ़ते कदम कुछ ठिठके . . .माथे पर तीन सलवटें उभर आई। मुझे लगा इसी की आड़ में शायद अब वह मना कर देगा। पर नहीं, वह आगे बढ़ा और बिना नापे–तौले एक छोटी टंकी हमारी ओर बढ़ा दी।

"हमारा काम तो पांच लिटर में चल जाएगा। आप किसी से नाप कर दे दीजिए।"
"ले जाइए, बच्चों के काम आ जाएग।" इतना सुनते ही मेरे साथ वाली महिला ने झपटकर टंकी ली और गाड़ी की ओर लपक ली। मैं हिसाब करने के लिए पर्स खोलकर वही खड़ी रही। कुछ पूछती, उसके पहले ही हाथ से नकार का इशारा करते हुए वह बोला – "रहने दीजिए . . .रहने दीजिए। यह मत समझिये कि हम लोग इन्सान नहीं है, इन्सान तो हम भी है पर . . ."
अब अपने को रोक पाना मेरे लिए संभव नहीं था सो इस 'पर' की डोर पकड़कर पूछ ही बैठी, "अच्छा, यह तो बताइए कि कल यहां हुआ क्या? क्यों इतनी बर्बरता से . . ."
"मत पूछिए . . .मत पूछिए, वरना अभी फिर . . ." मेरी बात को बीच में ही काटकर सारी उदारता और मानवीयता को दरकिनार कर एकाएक ही वह भड़क उठा और उसकी आंखों के डोरे सुलगने लगे।" पूछिए इनसे कि क्या होता रहा इनके यहां दो दिन तक? दो रात तक इनके यहां जो भांगड़े होते रहे . . .दिए जले . . .आतिशबाजियां होती रही . . .हमारी मां को धोखे से गोलियों से भूनकर ऐसा जश्न मना रहे थे ये लोग यहां कि बर्दाश्त नहीं हुआ हमसे। इत्ते बरस हो गए हमको यहां रहते . . .शादी–ब्याह, तीज–त्यौहार तक देखे पर ऐसा जश्न . . .और पूरा का पूरा मोहल्ला . . .तो साहब हमारी रगों में भी पानी तो नहीं बहता न? जब बर्दाश्त के बाहर हो गई सारी बात तो आ गए गांव के सारे लोग और ठिकाने लगा दिया।" एकाएक ही उसके चेहरे पर क्रोध और घृणा में लिपटी अजीब सी बर्बरता फैल गई और आंखें अंगारों की तरह सुलगने लगीं। बात आगे बढ़ती इसके पहले ही मैं लौट पड़ी। साथ वाली महिला तो इसी बात से बेहद प्रसन्न थी कि आखिर दूध ले ही आए हैं, पर ये? गाड़ी के चलते ही वह चाहे पीछे छूट गया पर रंग और भाव बदलता उसका चेहरा . . .उसकी सुलगती आंखें मेरे मन पर चिंपकी चली आई और जब तक पानी नहीं खौल गया, एक अजीब सा द्वंद्व मेरे मन में भी खौलता रहा। याद आई मृत्यु की सूचना मिलने वाली रात, कमला नगर से मेरी एक मित्र का फोन आया . . .'मन्नू जी, जानती है, मृत्यु की सूचना मिलने के कोई दो–तीन घंटे बाद ही सरदारों के कुछ लड़के खुलेआम सड़क पर उछल–उछलकर चिल्लाने लगे – 'कुत्ती ने गड्डी ते चढ़ा दित्ता . . .कुत्ती ने गड्डी ते . . .. .' यह जानते हुए भी कि इस घटना के पीछे राजनीति की कितनी कड़ियां जुड़ी हुई हैं – सुनकर अच्छा भी लगा था। खैर . . .जैसे ही चाय तैयार हुई, दिमाग से ये सारी उलझने झाड़ी–पोंछी और काम शुरू किया।

चाय से भरी बड़ी सी एल्युमिनियम की केटली मेरे हाथ में थी और तीन–चार लड़कियों ने अपनी–अपनी चुन्नी में खाने का सामान भर रखा था। हम एक–एक के पास जाते, उनके बरतन मांगते और सदस्यों के हिसाब से चाय और खाने का सामान दे देते। थोड़ी–सी देर में मैं एक बुजुर्ग से सरदारजी के पास खड़ी थी। उनके सिर के खुले सफेद केश . . .कुर्ते के खुले बटनों से झांकते छाती के सफेद बाल . . .बिल्कुल भावहीन, पथराया चेहरा। अभी तक के देखे चेहरों से कुछ अलग तरह का। पास में तीन औरतें, ललाट तक घूंघट काढ़े और कुछ छोटे–छोटे बच्चे।

"सरदारजी, कोई बर्तन हो तो दीजिए . . .मैं चाय दे देती हूं।"
न कोई उत्तर न चेहरे पर कोई भाव मैंने जरा ऊंची आवाज़ में अपनी बात दोहराई।
"चाय ले लीजिए सरदारजी . . .थोड़ा सुकून पहुंचेगा!"
"सुकून?" उस पथराए चेहरे से आवाज़ फूटी। "तुम चाय से सुकून देने आई हो बिब्बी? अरे, जिस बाप की आंखों के सामने उसके तीन–तीन जवान बेटों को साफों से बांधकर ज़िंदा जला दिया गया हो, उसे तुम्हारी चाय सुकून देगी?' न आंखों में कोई नमी न चेहरे पर कोई भाव! सुनते ही मैं तो सकते में आ गई। एक बाप कह रहा है . . .ऐसे भावहीन और पथराए चेहरे से? और उस पथराए चेहरे ने जैसे पत्थर का बना दिया . . .बिल्कुल जड़, न चाय देते बन रहा था . . .न जवाब देते और न ही आगे बढ़ते। ऐसी भयंकर त्रासदी . . .जिसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती . . .उसे इस व्यक्ति ने भोगा है!

"तुम ही बताओ बिब्बी, कितनी बार हम उजड़ेंगे और कितनी बार बसेंगे? . . .पंजाब से लुट–पिटकर आया था . . .सबकुछ तबाह हो गया था पर इन बच्चों को बचा लाया था। तब ये बच्चे छोटे–छोटे थे पर मेरी बाहों में ज़ोर था बिट्टी . . .बाहों में ज़ोर और मन में हौसला था। जवान था न मैं। खुद मेहनत मज़दूरी करके इन्हें पाला–पोसा, बड़ा किया . . .काम–धंधे से लगाया . . .शादी–ब्याह किए, पर अब? आज इन तीन–तीन बेवाओं और उनके छोटे–छोटे बच्चों को कौन पालेगा? कैसे बड़े होंगे ये बच्चे? अब तो इन बाजुओं में भी ज़ोर नहीं रहा।" और कोहनी मोड़ कर उसने अपनी एक बांह उठाई। लगा, कभी ये बाहें ज़रूर गठीली रही होंगी और इस तरह मोड़ने पर इनमें मछलियां उभर आती होंगी . . .आज तो वहां
झुर्रियों भरा मांस झूल रहा था। पर यह सब कहते समय न उसकी आंखों में कोई आंसू था, न चेहरे पर कोई दहशत, सिर्फ एक प्रश्न था, और फिर तो लगा जैसे उसका वजूद ही एक प्रश्न में बदल गया, एक अनुत्तरित प्रश्न में।

शाम को घर लौटते समय न तो और लोगों की बातें मेरे ज़हन में उतर रही थी, न वहां किए गए काम और हालात के ब्यौरे। उस दिन सुना एक निरापद नारा भी – "हिंदू –मुस्लिम भाई–भाई . . .सिखों की अब करो सफाई" जिसने काफी देर तक चमत्कृत कर रखा था . . .धुंधला गया। बस मन में अगर कुछ खुद कर रह गया तो सरदारजी का वह पथराया चेहरा, जिसकी झुर्री–झुर्री पर मनुष्य की क्रूरता और बर्बरता की कहानी लिखी थी और लिखा था उनका एक अनुत्तरित प्रश्न! पर क्या करूं जब–तब इस चेहरे को काटता हुआ ग्वाले का वह चेहरा भी उभर ही आता जिसकी क्रोध से सुलगती आंखों से भी एक प्रश्न उभर रहा था – 'धोखे से हमारी मां को गोलियों से भूनकर जश्न मनाओगे . . .ऐसा जश्न . . .ऐसा जश्न?' एक–दूसरे को काटते उन चेहरों से उस समय मन में जो द्वन्द्व उपजा था, उससे मैं बरसों तक मुक्त नहीं हो पाई . . .बस सिर्फ संदर्भ बदलते रहे?

(हंस से साभार)
 
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