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संस्मरण

प्रथम पुण्यतिथि (२१ अगस्त) पर विशेष
 

साझी विरासत की कड़ी.. कुर्रतुल ऐन हैदर
कृष्ण कुमार यादव


पाश्चात्य और प्राच्य संस्कृति की अद्भुत संगम कुर्रतुल ऐन हैदर न सिर्फ‍ उर्दू साहित्य वरन समूचे भारतीय साहित्य की एक अग्रणी और मूर्धन्य कथाकार थीं। २१ अगस्त २००७ की शाम, मौत इतनी खामोशी से उन्हें अपने आगोश में लेकर चली गई, कि कोई कुछ सोच भी न पाया। इतिहास, दर्शन, राजनीति, अध्यात्म, सभ्यताओं के संघर्ष और सांस्कृतिक परिवर्तनशीलता पर बेबाकी से अपने विचार रखने वाली कुर्रतुल ऐन हैदर ने सदैव से रचनात्मक विविधता में रंग भरे, फिर चाहे वह उपन्यास, कहानी, लेख, समीक्षा, संस्मरण, आत्मकथा, रिपोर्ताज, अनुवाद, पेटिंग या फ़ोटोग्राफ़ी हो।

साझी संस्कृति की संवाहक कुर्रतुल ऐन हैदर, इस्मत चुगताई और अमृता प्रीतम के बाद अकेली ऐसी साहित्यकार थीं, जिनके पास विभाजन की पीड़ा और नारी संवेदना की पीड़ा समान रूप से विद्यमान थी। कमलेश्वर जी ने कभी इस तिकड़ी हेतु कहा था कि- ''अमृता प्रीतम, इस्मत चुगताई और कुर्रतुल ऐन हैदर जैसी विद्रोहिणियों ने हिन्दुस्तानी अदब को पूरी दुनिया में एक अलग स्थान दिलाया। जो जिया, जो भोगा या जो देखा, उसे लिखना शायद बहुत मुश्किल नहीं, पर जो लिखा वह झकझोर कर रख दे, तो तय है कि बात कुछ ख़ास ही होगी।''

'ऐनी आपा' के नाम से मशहूर कुर्रतुल ऐन हैदर सांप्रदायिकता का उपचार वह सदैव साझी संस्कृति में ढूँढ़ती रहीं। तभी तो वे बेबाकी से लिखती हैं कि- ''मिली-जुली संस्कृति किसी अख़बार की सुर्खी नहीं, जो दूसरे ही दिन भुला दी जाए। यह तो दुनिया के इतिहास का शीर्षक है जो अपनी जगह सुरक्षित है और दूसरी संस्कृतियों को अपनी ओर खींचता है।'' वस्तुत: कुर्रतुल ऐन हैदर के चिंतन के दायरे को देश-विदेश भ्रमण, लोगों से मुलाक़ात और अध्ययन से विस्तृत आयाम मिले। उन्होंने दुनिया के उतार-चढ़ावों, बँटवारों, कौमों के पतन को नज़दीक से देखा और महसूस किया। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में भी ये तथ्य व घटनाएँ प्रतिबिम्बित होती हैं। उनके पात्र दर्शन की बातें करते हैं और अपने सुख-दुख को इतिहास के दर्पण में तौलते हैं। कुर्रतुल ऐन हैदर का यह विशिष्ट अंदाज ही कहा जाएगा कि वे वर्तमान से फौरन ही अतीत की वादियों में लंबी छलाँग लगा जाती थीं। अपनी रचनाओं में भूत, भविष्य और वर्तमान को सँजोकर वे एक जादुई माहौल तैयार करती थीं। यहाँ पर वे इस्मत चुगताई के करीब थीं, जो अपने पात्रों की परतें तुरन्त नहीं खोलतीं, अपितु उनसे संवाद करते हुए धीरे-धीरे ऐतिहासिक गर्तों के बहाने उनमें डूबती जातीं। उनकी रचनाओं में व्याप्त पात्रों की दार्शनिक अंदाज़ की बातें हर किसी की समझ में नहीं आतीं। अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाये जाने पर उन्होंने तीखी प्रतिक्रिया करते हुए हिन्दू-मुसलमान दोनों को खरी-खरी सुनाई थी। कबीर को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा था कि-'अरे, इन दोउ राह न पाई।'

२० जनवरी १९२७ को उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जनपद में जन्मीं कुर्रतुल ऐन हैदर मूलत: बिजनौर जनपद स्थित नहटौर के एंग्लो-इण्डियन जागीरदार घराने से थीं। उनके पिता सज्जाद हैदर यलदरम उर्दू साहित्य के प्रथम कहानीकार होने के साथ-साथ ब्रिटिश शासन के राजदूत की हैसियत से अफ़ग़ानिस्तान, तुर्की इत्यादि देशों में तैनात रहे थे, तो माँ नज़र सज्जाद हैदर भी एक मशहूर साहित्यकार थीं। कुर्रतुल ऐन हैदर ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा लालबाग, लखनऊ स्थित गांधी स्कूल में प्राप्त की व तत्पश्चात अलीगढ़ से हाईस्कूल पास किया। लखनऊ के मशहूर आई. टी. कालेज से बी.ए. व लखनऊ विश्वविद्यालय से ही उन्होंने एम.ए. किया। बाद में उन्होंने लंदन के हीदरलेस आर्ट्स स्कूल में शिक्षा ग्रहण की। चूँकि कुर्रतुल ऐन हैदर को साहित्यिक परिवेश बचपन से ही मिला था सो अल्पायु में उनका लेखन कार्य आरम्भ हो गया। कहा जाता है कि उन्होंने अपनी पहली कहानी मात्र छ: वर्ष की अल्पायु में ही लिखी थी, पर वह कहीं प्रकाशित नहीं हो सकी। 'बी चुहिया' उनकी प्रथम प्रकाशित कहानी है और १८ वर्ष की आयु में उनका प्रथम कहानी संग्रह 'शीशे का घर' प्रकाशित हो चुका था। अगले ही वर्ष १९ वर्ष की आयु में उनका प्रथम उपन्यास 'मेरे भी सनमखाने' प्रकाशित हुआ। कुर्रतुल ऐन हैदर ने उस समय लिखना आरम्भ किया, जब आधुनिक उपन्यास हिन्दी साहित्य में अपनी जड़ें जमा रहा था।

मात्र २० वर्ष की आयु में कुर्रतुल ऐन हैदर ने न सिर्फ़ मुल्क का बँटवारा देखा बल्कि साझी संस्कृति का वातावरण भी बिखरते देखा। इस बँटवारे ने उनके परिवार को छिन्न-भिन्न कर दिया और उनके भाई-बहन व रिश्तेदार पाकिस्तान पलायन कर गए। लखनऊ में अपने पिता की मौत के बाद कुर्रतुल ऐन हैदर भी अपने बड़े भाई मुस्तफा हैदर के साथ पाकिस्तान पलायन कर गईं। बँटवारे की टीस कुर्रतुल ऐन हैदर को सदैव सालती रही और भारत से उनका लगाव बना रहा। वैसे भी साझी संस्कृति की हिमायती हैदर का मज़हबी आधार पर बने पाकिस्तान में जाकर बसना स्वयं में विरोधाभास था। फिर वह वहाँ ज़्यादा दिन कैसे टिक पातीं, सो १९५१ में वे लंदन चली गईं। वहाँ स्वतंत्र लेखक व पत्रकार के रूप में वह बी.बी.सी. लंदन से जुड़ीं तथा दि टेलीग्राफ की रिपोर्टर व इम्प्रिंट पत्रिका की प्रबंध संपादक भी रहीं। कुर्रतुल ऐन हैदर इलेस्ट्रेड वीकली की सम्पादकीय टीम में भी रहीं।

१९५६ में जब वे भारत भ्रमण पर आईं तो उनके पिता जी के अभिन्न मित्र मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने उनसे पूछा कि क्या वे भारत आना चाहती हैं? कुर्रतुल ऐन हैदर के हामी भरने पर उन्होंने इस दिशा में कोशिश करने की बात कही और अन्तत: वे वह लंदन से आकर मुम्बई में रहने लगीं। आजीवन अविवाहित रही कुर्रतुल ऐन हैदर सदैव से एक आज़ाद ख़याल की शख़्सियत थीं। निहायत नफीस, विनोदप्रिय और साथ में सख़्त मिज़ाज कुर्रतुल ऐन हैदर अदम्य जीवन प्रवाह की गाथाकार थीं। वह एक साथ प्रगतिशील भी थीं, आधुनिक भी और परंपरावादी भी। वर्ष १९५९ में जब उनका बहुचर्चित उपन्यास 'आग का दरिया' प्रकाशित हुआ तो इसकी तपिश से पाकिस्तान में उनके खिलाफ़ तूफ़ान उठ खड़ा हुआ। इस उपन्यास पर हिन्दू संस्कृति व दर्शन के प्रचार-प्रसार का आरोप था। वस्तुत: इस उपन्यास के माध्यम से कुर्रतुल ऐन हैदर ने ईसा पूर्व चौथी शताब्दी से लेकर १९४७ तक की भारतीय समाज की सांस्कृतिक और दार्शनिक बुनियादों को समकालीन परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित करते हुए अपनी वैविध्यपूर्ण रचनाशीलता का एक ऐसा आकर्षक, भव्य और गंभीर संसार निर्मित किया, जिसका चमत्कार सारे साहित्यिक जगत ने महसूस किया। इस उपन्यास में उन्होंने हिन्दुस्तानी संस्कृति के बारे में एक जगह लिखा कि -''हिन्दू संस्कृति की ख़ासियत यह है कि इसमें कोई किसी को हुक्म नहीं देता है कि यह करो, वह करो, यह तो करना ही है।''

कुर्रतुल ऐन हैदर ने उर्दू साहित्य को बढ़ावा देने के लिए अथक प्रयास किये। साहित्य अकादमी में उर्दू सलाहकार बोर्ड की वे दो बार सदस्य भी रहीं। विज़िटिंग प्रोफ़ेसर के रूप में वे जामिया इस्लामिया विश्वविद्यालय व अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और अतिथि प्रोफ़ेसर के रूप में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से भी जुड़ीं रहीं। उनके बहुचर्चित उपन्यास 'आग का दरिया' को वर्ष १९८९ में भारतीय साहित्यिक जगत के सर्वोच्च सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाज़ा गया। इससे पहले उर्दू साहित्य में ज्ञानपीठ पुरस्कार मात्र फिराक गोरखपुरी को ही मिला था।

कुर्रतुल ऐन हैदर से पूर्व भारत में उर्दू साहित्य में जो शून्यतापूर्ण उदासी थी, उसमें उन्होंने अपनी रचनाओं से नया रंग भरा और उसे बुलंदियों तक पहुँचाया। अपने साहित्यिक जीवन में १२ उपन्यास, ४ कथा संग्रह, रिपोतार्ज व जीवनी लिखकर हिन्दी-उर्दू साहित्य के बीच एक सेतु की भूमिका निभाने वाली कुर्रतुल ऐन हैदर की प्रमुख कृतियों में-मेरे भी सनमखाने, आग का दरिया, सफीन-ए-गम-ए-दिल, कारे जहाँ दराज, आखिर-ए-शब के हमसफ़र, गर्दिशे रंगे चमन, शीशे का घर, चाँदनी बेगम, पतझड़ की आवाज़, सितारों के आगे, दास्तान-ए-अहदे-गुल, यह दाग उजाला, सीता हरण, चार नावें लेट, चाय का घर, अगले जनम मोहे बिटिया न कीज्यौ इत्यादि का नाम लिया जा सकता है। उनके साहित्य का अंग्रेज़ी व कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी हुआ।

कुर्रतुल ऐन हैदर की एक ख़ासियत यह थी कि वे अपने उपन्यासों के शीर्षक चर्चित शेर या लोक संस्कृति में रंगे गीतों की गुनगुनाती पंक्तियों से उठाती थीं। गालिब के चर्चित शेर-'ये इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजै, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है' से उन्होंने अपने बहुचर्चित उपन्यास 'आग का दरिया' शीर्षक लिया तो एक पारंपरिक लोकगीत से 'अगले जनम मोहे बिटिया न कीज्यौ' शीर्षक लिया। कुर्रतुल ऐन हैदर को यद्यपि साहित्य विरासत में मिला पर उनकी रचनाओं में उनके अध्ययन, मनन, चिन्तन, दूरदर्शिता और मानवीय जीवन के करीब रहकर सोचने का भी प्रमुख हाथ है। कुर्रतुल ऐन हैदर को उनकी प्रखर रचनाधर्मिता हेतु पद्मभूषण (२००५), ज्ञानपीठ पुरस्कार (१९८९), पद्मश्री (१९८४), साहित्य अकादमी सम्मान (१९८५), सोवियतलैण्ड नेहरू पुरस्कार (१९८९) व इकबाल सम्मान (१९८७) से नवाज़ा गया।

उर्दू की मशहूर साहित्यकार व उपन्यासकार रहीं कुर्रतुल ऐन हैदर हिन्दी-उर्दू की मिश्रित परम्परा की कड़ी थीं। वे इस बात को संजीदगी के साथ महसूस करती थीं कि हिन्दी-उर्दू की मिली-जुली परम्परा ही दोनों देशों को तरक्की के रास्ते ले जा सकती है। ऐसे में जब पाकिस्तान ने विशुद्ध इस्लामी संस्कृति पर आधारित संगीत के सृजन पर ज़ोर दिया तो कुर्रतुल ऐन हैदर ने इसे मिश्रित परम्परा के विरुद्ध बताते हुए पाकिस्तान संस्कृति प्रसारण विभाग के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया। कुर्रतुल ऐन हैदर ने इस मिश्रित संस्कृति के अंदाज़ को यों जिया- ''बच्चा मुसलमान के घर होता है, गीत कृष्ण-कन्हैया के गाए जाते हैं, मुसलमान बच्चे बरसात की दुआ माँगने के लिए मुँह नीला-पीला किए गली-गली टीन बजाते हैं, साथ-साथ चिल्लाते हैं-''हाथी घोड़ा पालकी, जय कन्हैया लाल की।'' मुसलमान पर्दानशीं औरतें जिन्होंने पूरी उम्र किसी गैर मर्द से बात नहीं की, जब ढोलक लेकर बैठती हैं तो लहक-लहक कर अलापती हैं- ''भरी गगरी मेरी ढलकाई तूने, श्याम हाँ तूने।''

लखनऊ की दुर्दशा पर उन्होंने अपनी पीड़ा भी व्यक्त की कि-''तहजीब के शहर की तहज़ीब पता नहीं कौन चुरा ले गया?'' फिर भी जब कभी वह लखनऊ आतीं तो यहाँ के गली-कूचों में घूम-घूम कर पुरानी यादों को ताज़ा करतीं। कुर्रतुल ऐन हैदर की रचनाओं में घूम-फिर कर अवध व लखनऊ और यहाँ की गंगा-जमुनी तहज़ीब के ज़िक्र दिखते हैं। अवधी की पृष्ठभूमि में रचे गए 'मेरे भी सनमखाने' में कुँवर इरफान अली और रक्षंदा के ज़रिये उन्होंने क्रमशः परंपरागत मूल्यों और नई संस्कृति के टकरावों का रोचक वर्णन किया है तो 'चाँदनी बेगम' लखनऊ रेड रोज़ की कोठी के ईद-गिर्द रचे बसे और परिवर्तित होते समाज, रिश्तों व चरित्र की तस्वीरें पेश करती हैं। उनके बहुचर्चित उपन्यास 'आग का दरिया' में भी लखनऊ की सरज़मीं व तहज़ीब का विस्तृत वर्णन है। 'स्ट्रीट सिंगर्स ऑफ लखनऊ एण्ड अदर स्टोरीज` में गंगा-जमुनी तहज़ीब को कहानियों में बखूबी ढाला गया है। कुर्रतुल ऐन हैदर की रचनाओं में मानवीय बेबसी व पीड़ा की ऐसी वास्तविक व यथार्थ अभिव्यक्ति हुई है कि पात्रों के साथ पाठक का स्वत: एक हमदर्द जुड़ाव हो जाता है।

ज्वलंत मुद्दों पर ज़बरदस्त पकड़ के साथ-साथ कुर्रतुल ऐन हैदर के लेखन में विद्रोह का भी स्वर था। उन्होंने परम्पराओं को जिया तो दकियानूसी से उन्हें निजात भी दिलाई। एक नारी होने के चलते कुर्रतुल ऐन हैदर ने अपनी लेखनी समकालीन समाज में नारी की स्थिति पर भी चलाई। वे मानती थीं कि समाज का एक बड़ा वर्ग स्त्री को "सेक्स" का पर्यायवाची बनाकर उसे "यौन प्राणी" मात्र के रूप में देखता है अर्थात पुरुष को विषयी, निरपेक्ष व स्वायत्त रूप में एवं स्त्री को विषय, अन्य, सापेक्ष व पराधीन रूप में माना जाता है। कुर्रतुल ऐन हैदर इस मत पर विश्वास रखती थीं कि नारी देह न तो कोई प्रदर्शन की चीज़ है, न मनोरंजन की और न लेन-देन की। वे नारी देह की बजाय उसके दिमाग पर ज़ोर देती थीं। उनका मानना था कि दिमाग़ पर बात आते ही नारी पुरुष के समक्ष खड़ी दिखाई देती है, जो कि पुरुषों को बर्दाश्त नहीं।

आज कुर्रतुल ऐन हैदर हमारे बीच नहीं रहीं पर उनके धारदार विचार,  चाहे वह जातिवाद, संप्रदायवाद के बहाने साझी संस्कृति की बुनियाद को कमज़ोर करने वाले हों या विज्ञापनों के बहाने नारी को एक भोगवादी वस्तु के रूप में पेश करने वाले हों, सदैव प्रासंगिक हैं। साझी संस्कृति में आस्था के साथ न सिर्फ़ उन्होंने उर्दू-हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया अपितु हमें अपनी ऐतिहासिक विरासतों से जोड़ते हुए एक नए समाज का सपना भी दिखाया। कुर्रतुल ऐन हैदर को मानवीय संवेदनाओं से ओतप्रोत, परम्परा व आधुनिकता एवं साझी संस्कृति की संवाहक के रूप में, एक ऐसी प्रगतिशील साहित्यकार व लेखिका रूप में याद रखा जाएगा, जिसने तमाम विरोधों के बावजूद अपनी लेखनी को सच्चाई व यथार्थ से परे नहीं होने दिया। समकालीन समाज में जिस रूप में कट्टरपंथी विचार बढ़ रहे हैं, उनके प्रतिकार हेतु कुर्रतुल ऐन हैदर के 'आग के दरिया' की तपिश कभी नहीं खत्म होगी।

२५ अगस्त २००८

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