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संस्मरण

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वैसाखी, यमुना और बच्चे
डॉ. कविता वाचक्नवी
 


गर्मी अभी जलाने वाली नहीं हुई थी। आँगन में सोना शुरू हो चुका था। आँगन इतना बड़ा कि आज के अच्छे समृद्ध घर के दस-ग्यारह कमरे उसमें समा जाएँ। एक ओर छोटी-सी बगीची थी। आँगन और बगीची की सीमारेखा तय करती, तीन अँगुल चौड़ी और आधा बालिश्त गहरी, एक खुली नाली थी, जिसे महरी सींक के झाड़ू से, आदि से अंत तक एक ही 'स्ट्रोक' में साफ़ करती आँगन की दो दिशाएँ नाप जाती थी। नीचे हरी-हरी काई की कोमलता, ऊपर से बहता साफ़ पानी...। मैं कल्पना किया करती कि चींटियों के लिए तो यह एक नदी होगा... और मैं चींटी बन जाती अपनी कल्पना में। फिर उस नन्हें आकार की तुलना में इस तीन अंगुल चौड़ी नाली के बड़प्पन की गंभीरता में, एक फ़रलांग की दूरी पर बहती यमुना याद आती। ...याद आता उसके पुल पर खड़े होकर नीचे गर्जन-तर्जन, भँवर, पुल के खंभों का दोनों दिशाओं में काफी बाहर की ओर निकला भाग, उनसे टकराती, बँटकर बहती धाराएँ। पुल पर खड़े-खड़े मैं इतना डूब जाती थी कि लगता पुल बह रहा है और मैं निरंतर आगे-आगे बहे जा रही हूँ...जंगला थामे खड़ी। आज भी डर लगता है। मैं जिसे भी यह समझाने की कोशिश करती, सब हँसते। इसीलिए जब कभी वहाँ से गुज़रती, एकदम बीचोबीच होकर पुल के किनारों की ओर चलने में मुझे हर समय भय लगता। आज भी वैसा ही है। सड़क के बीच 'डिवाइडर' पर खड़े होकर 'ट्रैफ़िक' रुकने की प्रतीक्षा करनी पड़े तो चक्कर आ जाता है... गिर ही जाऊँ, इसलिए उस से सटकर नीचे सड़क पर ही खड़े होना बेहतर लगता है।

नाली को नदी और स्वयं को चींटी बनाकर जाने कितनी बार मैंने नाली सूखने की प्रतीक्षा की होगी। और यह वह ऋतु थी जब दोपहर दो बजे तक के रसोई के कामकाज निपटने के बाद पाँच बजे तक नाली आराम करती-करती ऐंठना शुरू हो जाती। अप्रैल से ज्यों-ज्यों धूप बढ़ने के दिन आने लगते, दोपहर बाद ही से नाली का हरित-सौंदर्य बुढ़ापे की खाल-सा सूखा व बेजान होकर दीवारों से अंदर की ओर मुड़ने लगता। पपड़ियाँ बनकर तुड़ाते-मुड़ते वह मुझे विचलित करता रहता। मुझे पानी के नीचे काई के लंबे-लंबे हरे तंतु कोमलता से बहते ऐसे लगा करते थे, जैसे नदी की धार के विपरीत मुँह करके सिर का पिछला भाग पानी में ढीला छोड़ देने पर लंबे-लंबे बाल सुलझे-से होकर धार में लहराते-तिरते हैं। पर अप्रैल आते-आते नाली कुरूप हो जाती।

नदी और नाली! कोई संयोग नहीं। कोई मेल नहीं। बिल्कुल ही बेमतलब बात हो गई। होली में नाली रंग-बिरंगी हो जाती, उस पर स्वच्छ पानी बहता तो उसमें होली के छींटें देख मुझे हरी घास पर गिरे, बिखरे फूलों की रंगीन पाँखुरियाँ याद आतीं। (पर आज यह सब क्यों याद आ रहा है?) तो यों, होली व बैसाखी आकर नाली के 'रंग-ढंग' बदल जातीं। जब कभी घर में पुताई होती, नाली उसमें भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती, बिना हील-हुज्जत के। इस नाली को नदी का रूप तब और भी मिलता, जब आती वैसाखी। हमारे यमुना की रेत में पगे कपड़े पछारकर, पानी सारी रेत नाली के छोर पर छोड़ देता- तो और भी असली रूप लगता उसका। किताबों में 'डेल्टा' पढ़ा-ही-पढ़ा होगा उन दिनों, क्योंकि 'डेल्टा' का रूप भी मैंने नाली के उल्टे बहाव की कल्पना करके वहीं समझने की कोशिशें की थीं- हमारे बीस लोगों के परिवार के कपड़ों की रेत खाई बैसाखी की दुपहरी की नाली में।

आज फिर बैसाखी है। पर वे दिन अतीत बन गए हैं। 'केबल' का एक 'चैनल' 'दरबार-साहब'  (स्वर्ण-मंदिर) से गुरुबाणी का सीधा प्रसारण 'फेंक' रहा है। मन में बैसाखी उमगती ही नहीं अब। उमगती हैं- केवल यादें, जिनसे जोड़-जोड़ कर मैं आज के बच्चों के लिए पश्चाताप से उमड़ती-तड़पती रहती हूँ। कितनी चीज़ों से वंचित हैं ये। न ये खुली नाली वाले आँगन जानते हैं, न छतों पर सोना, न आँगन में देर रात तक चारपाइयाँ सटाए खुसर-पुसर बतियाना, न गर्मी में बान की चारपाई पर केवल गीली चादर बिछा कर सोने का मज़ा,  न सत्तू का स्वाद, न कच्ची लस्सी, न कड़े के गिलास, न चूल्हे की लकड़ियों के अंगार पर फुलाई गरमागरम पतली छोटी चपातियाँ, न भूसी में लिपटी बर्फ़ की सिल्ली से तुड़वाकर झोले में टपकाते लाई बर्फ़, जिसे झोले सहित गालों से छुआया जा सकता है और ज़्यादा ही शैतानी की नौबत आ जाए तो चुपके से, घर पहुँचने से पहले, चूसा भी जा सकता है, न गर्मियों में सूर्यास्त के बाद ईंटों जड़े आँगन में बाल्टियों से पानी फेंकना, ताकि खाना खाने और सोने के लिए आँगन में चारपाइयाँ डाली जाने से पूर्व 'हवाड़' निकल जाए और ठंडा हो जाएँ, न इस प्रक्रिया में जहाँ-तहाँ खड़े होकर अपने बाल्टी भर-भर पानी उड़ेलने, भीगने व भागने की आज़ादी का रोमांच व मज़ा। ये तो बंद बाथरूम में नहाते हैं- शयनकक्ष के भी भीतर। कभी-कभी मौका लगता तो ४०-४५ फुट लंबे चिकने बरामदे में खूब पानी फैलाकर फिसला-फिसली का खेल या 'खुरे' की नाली में कपड़ा ठूँस कर डेढ़ बालिश्त गहरी तलैया का मज़ा, जिसमें एक-दूसरों पर खूब पानी फेंकने, धक्का-मुक्की करने और हाथों की छपाकियों से पानी उड़ाने.....हो-हल्ला करने से बाज़ नहीं आते थे हम। मैं अपने बच्चों के लिए कलपती हूँ कि कितना कुछ नहीं देखा इन्होंने। हमारा बचपन भी इन बच्चों की विरासत में न आया। इन सारी कारगुज़ारियों में हैंडपंप और टोंटी, दोनों ही पानी का अवदान देते न अघाते। दोनों 'खुरे' के भीतर मुख किए आमने-सामने डटे थे। इतना सब होते-हवाते 'हैंडपंप' का पानी इतना ठंडा हो जाता कि एक गिलास पीने में दाँत 'ठिर' (ठिठुर) जाते। आज 'बोर-वेल' के पानी के 'टैस्ट' करवाने के बावजूद हाथ के नल्के की गुंजाइश नहीं मिलती, मोटर से चलाते हैं और पीने में घबराते हैं।

हमारे लिए वैसाखी कमरों से शाम की मुक्ति के पर्व मनाने आती थी। दादी जी, जिन्हें हम 'भाब्बी जी' कहकर बुलाते थे, पिछली ही रात ताकीद कर देतीं, ''कुड़ियों! जे सवेरे जमना जी जाणा होए ते रात्री छेत्ती सो जाणा, गल्लां वा करदियाँ रहंगा। छड्ड जाणै नईं ते आप्पां - जे नाँ उठ्ठियाँ ते।'' (अर्थात- लड़कियों! यदि न उठीं तो हम घर में ही छोड़ जाएँगे।) दादी जी दुल्हन बनकर नन्हीं-सी बालिका के रूप में ही इस घर आई थीं। परिवार की सबसे बड़ी वधू। सास थी नहीं। तीन-तीन गबरू-गँवार और 'पेंडू' देवर। पहला संबोधन इस खानदान में आते ही दादी को 'भाब्बी' का मिला। उन्हीं की देखा-देखी अपने बच्चे भी 'भाब्बी' कहते। हमें झाई जी ने 'भाब्बी जी' कहना जीभ पर चढ़वाया।

सुवख्ते मुँह-अंधेरे उठ जाती थीं भाब्बी जी, वड्ढे झाई जी, विजय, दीदी (बुआ), पम्मी, चाची जी, मैं कद्दू (छोटे भाई का प्यार का नाम) और चाचा लोग। हालाँकि बिस्तर से उठने की ज़री इच्छा नहीं होती थी। हम हर बार कहते- ''असीं नईं जाणाँ'' (हमें नहीं जाना)। दीदी कहतीं, ''फेर रोवोगियाँ'' (बाद में रोती रह जाओगी) और अपनी पतली-पतली नाज़ुक उँगलियों वाले नन्हें-नन्हें हाथों से हमें गुदगुदी करके उठा देतीं। झोलों में पिछली रात ही कपड़े वगैरह भर लिए जाते थे। हम तीनों बच्चे अधमुँदी आँखों से खीझे-खीझे, नाक और गालों को ऊपर चढ़ाए ऊँह-ऊँह, डुस-डुस करते, हाथ पकड़े हुए, लगभग लाद-लूदकर ले जाए जाते। तारे अभी आकाश में होते थे। हम में से कोई पूछता, ''जमना किन्नी दूर हैगी अजे?'' (यमुना अभी कितनी दूर और है)। भाब्बी जी डपटतीं, ''सौ वारी सखावै, जमना 'जी' आक्खी दै। चज्ज नल नाँ वी लित्ता नईं जांद्दा, ते चल्ले ने वसाखी न्हाणं'' (सौ बार सिखाया है, जमुना 'जी' कहते हैं, ठीक से नाम भी नहीं लिया जाता और चले हैं वैसाखी नहाने)। वहाँ पहुँच डुबकियाँ लगाती भीड़, दूर दूसरी ओर नहाते पुरुष, महिलाओं-बच्चों का शोरगुल... सारी नींद उड़ा देता। धीरे-धीरे, सहमते-सहमते हाथ पकड़कर 'जमना जी' में उतरना, पैर रखते ही रेत का दरक जाना, या पैर का धीरे-धीरे और-और अंदर गड़ना, डराने के लिए काफी होता। ठंडा पानी छू-छू कर हमारे दुस्साहस को उकसाता। हमें तो कपड़े पहने ही पानी में उतरना होता था। ब्याहता स्त्रियाँ कंधों के नीचे बगलों में पेटीकोट बाँध लेतीं। ढँकने योग्य भाग ढँक जाता, लगभग घुटनों तक का। हम सभी  घेरा बनाकर एक-दूसरे के हाथ पकड़ लेते। एक साथ पानी के भीतर जाते एक साथ उठ खड़े होते। कूल्हों तक के पानी में उतरना निरापद माना जाता था। वैसे आसपास भीड़ के कारण यों भी डर कम रहता। इतने पानी के माप में पहुँचना यानी यमुना के मध्य भाग के एक ओर का तीसरा भाग। हम लोग, यानी बच्चे, तो फिर पानी से निकलने का नाम ही नहीं लेते थे। पौ फटने को होती तो सब लोग जल्दी मचाते और हम में से कोई तर्क देता कि अभी तो उँगलियाँ भी बूढ़ी नहीं हुई हैं। पेल-पाल कर हमें निकाला जाता। घर से फर्लांग भर ही दूरी थी, अतः हमें वहाँ खुले में कपड़े नहीं बदलने दिए जाते थे- हम चाहते भी यही थे। उन्हीं भीगे टपकते कपड़ों में चमकीली, हल्के हरे-नीले रंग की रेत आँज कर, रेत सनी चप्पलें पहने घर लौटते।

वैसाखी के सारे आयोजनों में इतना-भर मतलब का लगता। बाकी दिन क्या पका, क्या हुआ, वह कुछ भी नहीं लगता। या याद हैं तो ''जट्टा आई वसाखी'' का गीत और पंजाबी भंगडे-गिद्दे,  'वारणे' के छोटे-छोटे फ्लैश। अब घर जाते हुए दिल्ली में बस की खिड़की से झाँकने पर यमुना का पराई-सी लगना तो दूर, यमुना रही ही नहीं, दीखती है। नीचे नदी में किसी खड्डे में मैले पानी का ज़रा-सा जमाव है बस। यमुना का अपना पानी कहीं नहीं सूझता है। नगर के लिए वह 'सीवर-लाइन' फेंकने का गड्ढा-भर है। अभी कुछ साल पहले दिल्ली में एक स्कूल-बस के यमुना में गिरने से बच्चों की मौत का भयानक समाचार कई दिन की दहशत भर गया था। देश में यमुना से इतनी दूर के हिस्से में बैठे, न अपनी स्मृतियों की यमुना से यह मेल खाया, न दुर्घटना से पहले देखी यमुना के उस रूप से, जिसमें पानी नदारद था और ट्रकों से रेत लादने के लिए उन्हें सूखी नदी में उतारा गया था।

वैसाखी अब फिर आई है। मुझे अपने पैतृक नगर अमृतसर के सरोवर और जलियाँवाला बाग़ के लाश-भरे कुएँ के साथ-साथ अपनी यमुना की यादें ही आती है। और इन्हीं के सहारे वैसाखी बीत गई है। यमुना की एक रूप टोकरी में कृष्ण के साथ जुड़ा है... बालक कृष्ण को बचाने वाली यमुना। रंग-स्थली यमुना का एक दूसरा रूप है, 'निराला' की 'यमुना के प्रति' की यमुना का भी एक रूप है और एक रूप मेरी यादों में बसी यमुना का है।

पर मेरे बच्चों के पास यमुना की कोई याद नहीं। इनमें से कोई कान्हा के गीतों वाली यमुना को कैसे तलाशेगा? कैसे लिखेगा कोई 'यमुना के प्रति'? वैसाखी की असली संजोने लायक स्मृतियाँ बनी ही नहीं इनकी। हाँ, इस युग में स्कूल-बस यमुना में गिरने से पूरी बस के बच्चे मारे अवश्य गए थे- इतना तो अख़बार और इतिहास याद रखेंगे। मैं नहीं जानती मरा कौन है। क्या यमुना? क्या बच्चे? क्या स्मृतियाँ? क्या भविष्य? या बचपन? स्मृति विहीन भविष्य के लिए कौन कान्हा गुँजा सकता है बंसी की धुन? या कैसे बजेंगी झाँझरें रुनझुन? हमारी पाँचवी कक्षा की पाठ्य-पुस्तक वाली वह कविता तो पच्चीस वर्ष पहले से ही हटा दी गई है। सुनाऊँ?
''यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे, मैं भी इस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे
ले देती यदि मुझे बाँसुरी तुम दो पैसे वाली, किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।''
औरों को भी याद आती हो यह शायद!!

१४ अप्रैल २००८

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