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संस्मरण

मालव-माटी की गंध का चितेरा कवि : नईम
डॉ. राजेन्द्र गौतम


नईम का सर्जक मन अभिव्यक्ति के एकाधिक माध्यम खोजता रहा है किंतु वे सभी माध्यम अंतत: जीवन की अभिव्यक्ति में एकाकार हुए हैं। शब्द-कर्म में जहाँ उन्होंने नवगीत, ग़ज़ल एवं छंद-मुक्त कविताओं में अपने को ढाला था वहीं अपने जीवन के अंतिम दो दशकों में उन्होंने काष्ठ-शिल्प में भी अद्भुत रचनाशीलता का परिचय दिया था। रचना-कर्म के तमाम वैविध्य के बावजूद नईम की ख्याति का विशिष्ट

आधार नवगीत रहा है। उनका मालव-मन इसी काव्य-रूप में उन्मुक्त अभिव्यक्ति पा सका है। यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि उनकी छ: दशकों की नवगीत-यात्रा में दोहराव कहीं नहीं है। कथ्य और शिल्प की नयी भंगिमाएँ उनके नवगीतकार व्यक्तित्व का विकासशील बिम्ब ही प्रस्तुत करती हैं। चालीस वर्ष पहले आए उनके संग्रह ‘पथरायी आँखें’ के गीतों की तुलना यदि नई सदी में प्रकाशित नए संग्रह के गीतों से करें तो इस तथ्य को बखूबी पहचाना जा सकता है। नईम का रचनाकर्म जब आरम्भ हुआ था नवगीत का विरोध बहुत तीव्र था। तब यह घोषणा की जा रही थी कि गीत अब एक अप्रासंगिक विधा है। इसमें युग-बोध की अभिव्यक्ति का सामर्थ्य नहीं है। नईम ने नवगीत के पक्ष में नारे तो नहीं लगाए लेकिन उनका लेखन इस चुनौती को दिया गया रचनात्मक उत्तर है।

नईम के गीत सच्चे अर्थों में सेक्यूलर (लोकपरक) गीत है क्योँकि उनमें मिट्टी की गंध प्रधान है। यों तो उनमें मालव-माटी के रंग अधिक चटख हैं तथापि उनका जुडाव समूचे भारतीय जन-मानस से है। नईम के गीत लोक के उल्लास के साक्षी भी हैं और उसके विषाद के सहभागी भी!

‘सूखे का हुआ कभी बाढ का
पहला दिन मेरे आषाढ का’

जैसी पंक्तियाँ जिस ग्राम-जन के घावों को सहलाती हैं, उसी का सगा उनके गीत का यह स्वर है –
उतरे भादों लगे क्वार दिन
आए हैं मौसम पकने के
चुप्पी मूँग, उड़द सन्नाटे
मिलजुल कर मेहनत ने काटे
शिकमी हों या जोतदार क्षण
आए हैं खेतों थकने के

नईम का नवगीत में अपना एक अंदाज है, एक निराली शैली है पर इस से उनकी प्रगतिशीलता प्रश्नचिह्नित नहीं होती क्यों कि वे कोरे शिल्पवादी नहीं हैं। यदि उनके गीतों में ‘रो रही ऋषि-पुत्रों-सी धारणाएँ’, दिग्भ्रमित दमयंती दिशाएँ’ तथा ‘पूज कर वट-वृक्ष सवित्री हवाएँ’ जैसे मिथकीय प्रयोग हैं तो बदलते, अर्थ-तंत्र और गहराते सांस्कृतिक संकट और क्रमश: करुणतर होते घर-परिवार के परिदृश्य के अंकन का उनका यह अंदाज दूसरा ही है—
मँझली माँ, सँझली दी, बड्की भौजाई
बजरे बूढर, सबार पिता, बडे भाई
देवता सिरहाने अराधते रहे हम-तुम

यदि उनके पिछले दो दशकों के गीतों का जायजा लिया जाए तो उनका एक अलग ही रंग दिखाई देता है। एकदम कबीर जैसी फक्कडता, फकीराना मस्तमौला अंदाज, धुर लोक-चेतना की जडों तक पहुँचा हुआ स्वर और उनकी ताजा टटकी शब्दावली नईम को अपने सम्कालीनों से बिल्कुल अलग कर देती है। उनकी कविता की यह ताजगी चौंकाने भर के लिये नहीं है, इसमे अर्थ की पैनी धार है। नईम किसी आँधी में नहीं उडे हैं, चाहे वह आँधी आधुनिकता की हो या उत्तर आधुनिकता की। लेकिन अपने समय से वे निरन्तर रू-ब-रू जरूर होते रहे हैं। तभी वे इस कटखने समय का नोटिस इस प्रकार ले सके थे :
नोटिस या वारंट न आया
आज न आया कोई सम्मन
इससे बेहतर दिन क्या होगा
पटियाला हो या फिर मोगा
लगता आज प्रसन्न-चित्त है
बंधु, देवता अपना मोगा
आए नहीं द्वार पर मेरे
अलस्सुबह से शेखो बरहमिन

अचानक याद आता है कि ऐसे गीत लिखने वाले इस कवि ने ४० साल पहले गाया था:
‘शाम वाली डाक से खत आज आया प्यार का!’
सादगी की प्रतिमूर्ति नईम ने जिंदगी के अनेक रंग जिये और जी कर ही उन रंगों को गीतों में उतारा। उनके गीतों में उतरा उनका ‘साधारण’ जीवन पाठक को अपने बहुत नजदीक लगता रहा है! रही बात उन्मुक्त ठहाके लगाने वाले इस फक्कड मस्तमौला फकीर के साथ बिताए क्षणों की याद की, व्यक्तिगत संस्म्र्णों की। वह अलग किस्सा है। सो फिर कभी...

अनुभूति में नईम की रचनाएँ

७ मई २००८

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