मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


संस्मरण

२७ मई, जयंती के अवसर पर

अविस्मरणीय पदुमलाल पन्नालाल बख्शी
--डॉ. मोहन अवस्थी


सन १९५० की घटना हैं मैं आगरा विश्वविद्यालय से संबद्ध वीएसएसडी कालेज कानपुर में बीए का छात्र था। मैंने हमारे गीत शीर्षक एक कविता मधुमय गीत वही जो अपने दुखमय भाव प्रकट करते हैं हिंदी की प्रसिद्ध पत्रिका सरस्वती में भेजी थी। मेरी वह रचना सरस्वती के जून १९५० अंक में छपी। इलाहाबाद आकर पढ़ने की इच्छा तो मेरे मन में इतनी प्रबल थी कि नवीं कक्षा से ही अपने सपनों के इलाहाबाद में विचरता था। परंतु भाग्यवश ऐसी घटनाएँ घटीं कि बीए उत्तीर्ण कर के भी दो वर्ष के अंतराल के बाद अर्थात सन १९५३ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय का विद्यार्थी बन सका।
सरस्वती के संपादक

जब मैं इलाहाबाद आया तब सरस्वती के संपादक थे पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी एवं देवीदयाल चतुर्वेदी मस्त। पदुमलाल पन्नालाल बख्खी का नाम बरसों से सुनता आ रहा था अतः उन्हें देखने की बहुत ललक थी। पं महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सन १९२० में जब सरस्वती से पूर्ण अवकाश ग्रहण किया था। तब अपने उत्तराधिकारी के रूप में उन्होंने बख्शी जी का नाम संस्तुत किया था। बख्शी जी ने पत्रिका की गरिमा को बरकरार रखा। लेकिन बख्शी जी बहुत स्वाभिमानी थे। ५ साल बीते थे कि मालिकों की एक छोटी सी बात पर वह सरस्वती से त्यागपत्र देकर अपने घर चले गए। दो साल बाद मालिकों ने अनुनय विनय कर के उन्हें बुलाया। और वे आए। परंतु कुछ पारिवारिक समस्याओं के कारण जनवरी १९२९ में उन्हें सरस्वती पुनः छोड़नी पड़ी। सन १९५० तक झटके खाते खाते सरस्वती की हालत बहुत बिगड़ गई थी। अतः इंडियन प्रेस के मालिकों ने जब १९५१ में बख्शी जी से फिर प्रार्थना की तो उन्होंने सरस्वती का संपादन कुछ शर्तों के साथ स्वीकार किया। एक शर्त यह थी कि वे इलाहाबाद में स्थायी रूप से नहीं रहेंगे। इसलिए उनके साथ पं देवीलाल चतुर्वेदी मस्त को संयुक्त कर दिया गया था। जब मैं इलाहाबाद आया और इंडियन प्रेस में जाकर सरस्वती के संपादक से मिला तो मेरी भेंट मस्त जी से हुई। उन्होंने पहले तो बहुत रूखा व्यवहार किया लेकिन धीरे धीरे आदरणीय मस्त जी से मेरे पारिवारिक संबंध हो गए और मैं उनके घर का एक सदस्य सा बन गया।

बख्शी जी से भेंट

एक दिन २६ फरवरी १९५४ को मैं इंडियन प्रेस गया तो मस्त जी ने एक बुजुर्ग सज्जन से मेरा परिचय इस तरह कराया- बख्शी जी ये वही अवस्थी जी हैं जिनकी रचनाएँ सरस्वती में छप रही हैं। बख्शी जी ने मुझे देखा और मुस्कुरा कर बोले- अच्छा, और फिर सरस्वती पत्रिका के बारे में बातचीत करने लगे। मेरे मन में प्रसन्नता भरी उत्सुकता का जो ज्वार उमड़ा उसे क्या बताऊँ। मैं बख्शी जी के सान्निध्य में इंडियन प्रेम में शाम ५ बजे तक बैठा फिर उन्हीं के साथ मस्त जी के घर आया। घर पर कालिका प्रसाद अवस्थी कई साहित्यकारों के साथ बख्शी जी से मिले और प्रार्थना की, "हम लोगों ने एक निराला परिषद बनाई है। उसकी बैठक की अध्यक्षता करने के लिए चलने की कृपा करें। बख्शी जी ने उपेक्षा पूर्वक कहा मैं कहीं नहीं जाऊँगा। तब यह तय हुआ कि बैठक वहीं कर ली जाय। अतः उनमें से एक सज्जन जाकर बाकी सदस्यों को बुला लाए और बख्शी जी की अध्यक्षता में वह गोष्ठी चली। मैं आठ बजे तक वहाँ उपस्थित रहा फिर छात्रावास वापस आया।

३ मार्च सन १९५४ को बख्शी जी इलाहाबाद पुनः आए मस्त जी के निवास स्थान पर उनसे भेंट हुई। मैने निवेदन किया- बख्शी जी मेरी इच्छा है कि कल आप और मस्त जी मेरे यहाँ भोजन करने की कृपा करें। बख्शी जी ने बिना किसी संकोच के कह दिया- ठीक है। इलाहाबाद के प्रसिद्ध दैनिक भारत के संपादक शंकर दयालु श्रीवास्तव से भी मेरी जान पहचान हो गई थी। अतः मैंने उन्हें भी आमंत्रित कर दिया। दूसरे दिन मेरे कमरा नं ६३ में बख्शी जी मस्त जी और श्रीवास्तव जी आ गए। ७ मार्च १९५४ के अँग्रेजी समाचार पत्र लीडर तथा हिंदी के अमृत पत्रिका एवं भारत में यह समाचार छपा। छात्रावास में सबने पढ़ा तो अंतेवासियों के दिलों में मेरा सम्मान बहुत बढ़ गया। वे लोग यह तो जानते थे कि मेरी कविताएँ प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में छपती हैं लेकिन उन्हें यह भी आभास हो गया कि बख्शी जी जैसे लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार से मेरे व्यक्तिगत संबंध हैं।

इस समाचार की दूसरी प्रक्रिया और भी विचित्र हुई। हमारे छात्रावास के अधीक्षक थे डॉ. संत प्रसाद टंडन। डॉ. टंडन राजश्री पुरुषोत्तमदास टंडन के पुत्र थे। पुत्र होने का अभिमान उनकी चालढाल और लबो लहजे में छलतकता रहता था। उन दिनो विश्वविद्यालय में आज जैसी अनुशासन हीनता और भ्रष्टाचार तो था नहीं। उच्च अंक प्राप्त किए हुए छात्रों को छात्रावास में प्रवेश योग्यता के आधार पर मिल जाता था। हाँ नए प्रवेशार्थियों को खाली कमरों में ही अवस्थित किया जाता था। और यह करना अधीक्षक की इच्छा पर था। जब मेरा प्रवेश छात्रावास में हो गया तो मुझे थ्रीसीटेड कमरा नं ६३ दिया गया। सिंगल सीटेड कमरे भी खाली थे लेकिन वे कमरे अधीक्षक ने मुझसे कम अंक पाए हुए छात्रो को दिये थे। जब मैंने अधीक्षक डॉ. टंडन से मिलकर इसका कारण जानना चाहा तो उन्होंने रोष से कहा, यह अधीक्षक का अधिकार है और वह कारण बताने के लिए बाध्य नहीं है। जब बख्शी जी का कमरा नं ६३ में आने का समाचार छपा तो अधीक्षक ने मुझको बुलवाया। मैं पहुँचा तो बोले। इतने बड़े बड़े साहित्यकार आपके यहाँ आए और आपने मुझे सूचित तक नहीं किया। मेरे मन में अधीक्षक के पिछले बर्ताव के कारण क्षोभ था अतः मैंने उत्तर दिया- हाँ आए थे और मिलकर चले गए थे। कमरे में ठहर नहीं गए थे। यदि ठहरे होते तो नियमानुसार मैं अधीक्षक जी को अवश्य सूचित करता। मैं चला आया। एक सप्ताह के अंदर अधीक्षक जी ने मेरे पास लिखकर भेजा कि एक रूम खाली है आप यदि चाहें तो उसमें जा सकते हैं। मैंने जवाब में यह लिख दिया कि अब मैं परीक्षा के दिनों में यह परिवर्तन करने की जहमत नहीं उठाना चाहता। जुलाई में जब मुझे रूम मिलेगा तभी लूँगा।

बख्शी जी का संपादन कौशल

सन १९५४ का ही वाक्या है। उत्तर प्रदेश सरकार ने एक लिपि सुधार कमेटी बनाई थी। उसने अनेक ऊल जलूल सुझावों से भरी एक आदर्श लिपि प्रस्तुत की थी। मैंने उसके विरोध में हिंदी की यह चिंदी शीर्षक लेख लिखकर मस्त जी को दिया। लेख उन्होंने पसंद कर के प्रकाशनार्थ रख लिया। थोड़े दिन बाद नई कविता नामक प्रथम संकलन छपकर सरस्वती में समालोचन के लिए आया। मस्त जी तो लगा कि इसकी आलोचना फौरन होनी चाहिए उन्होंने मुझसे कहा इसकी समीक्षा ज़रा विस्तार से कर डालो। अतः मैंने नई कविता की समीक्षा लिख दी। दो दिन बाद बख्शी जी आ गए। मैं मस्त जी के घर गया तो देखा बख्शी जी सरस्वती के आगामी अंक में प्रकाशित होने वाली सामग्री पर नज़र डाल रहे हैं। मैंने बख्शी जी तथा मस्त जी को नमस्कार किया। मस्त जी ने बख्शी जी से कहा - बख्शी जी इसमें अवस्थी जी के भी दो लेख हैं। बख्शी जी ने मेरे दोनो लेख फाइल में से निकाल लिए। पढ़ने लगे। वह पढ़ रहे थे और मैं उनकी मुखमुद्रा देख रहा था। मुझे आभास हुआ कि उनके अधरों पर एक गूढ़ मुस्कान खेल रही है। कुछ देर बाद उनकी तल्लीनता भंग हुई। उन्होंने सिर ऊपर उठाया आँखें बंद कीं मानो कहीं खो गए हों फिर आँखें धीरे से खोलीं और खामोशी तोड़ते हुए बोले वाह महाराज, आपके लेख पढ़कर तो पंडित महावीर प्रसाद की व्यंग्य शैली का स्मरण हो आया। दोनो ही लेख छपने चाहिए। फिर एक सलाह दी। देखिए आप यूनिवर्सिटी में पढ़ते हैं और आपकी यूनिवर्सिटी के ही अध्यापक नई कविता के कर्ता धर्ता हैं। इसलिए मेरी राय है कि यह नई कविता एक समीक्षा शीर्षक लेख आप कल्पित नाम से दें। अतः मैंने उस लेख पर घनश्याम मुरारी राजमराल चड्ढा नाम दे दिया। मुझे बख्शी जी के संपादन कौशल की पहली झलक देखने को मिली। एक ही व्यक्ति के दो लेख छपने का अनौचित्य भी दूर हो गया। और लेखक का हित साधन भी हुआ।

 

३१ मई २०१०

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।