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संस्मरण

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सरस्वती संपादक के रोचक प्रसंग
-मोहन चंद्र मंटन
 


‘सरस्वती’ के संपादन-काल में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी से जुड़े कई रोचक प्रसंग हैं। वे कर्त्तव्यनिष्ठ संपादक थे। ‘सरस्वती’ का संपादन प्रारंभ करने पर उन्होंने ये संकल्प किये थे-
१.समय की पाबंदी,
२.‘सरस्वती’-संचालकों का विश्वासभाजन बनने की चेष्टा,
३. अपने हानि-लाभ का महत्व और
४. न्याय-पथ पर दृढ़ रहना।
अपने संपादन-काल में उन्होंने इन संकल्पों को अपने कठोर परिश्रम से पूर्ण किया। इस दिशा में उन्हें बहुत सफलता भी मिली। आचार्य द्विवेदी के ही प्रयास से ‘सरस्वती’ के अंक सदा समय से निकलते रहे। चाहे कभी पूरा अंक भी उन्हें स्वयं क्यों न लिखना पड़ा हो, प्रेस कॉपी उन्होंने सदा समय से भेजी। वे छह-छह महीनों तक की सामग्री तैयार करके रखते थे, ताकि वे कभी रुग्ण भी हो जाएँ तो अंकों का क्रम बना रहे। अवकाश-ग्रहण करते समय भी उनकी तैयार की हुई अंक सामग्री आने वाले संपादक के लिए उपादेय सिद्ध हुई।

नये लेखकों को प्रोत्साहन देना-

उन्होंने अपनी संपादन-व्यवस्था इतनी सुचारु रूप से चलायी कि दिन प्रतिदिन ‘सरस्वती’ का प्रचार बढ़ता गया। नये लेखकों को वे बहुत प्रोत्साहित करते थे। उन्हें नये-नये विविध विषयों पर लिखने को प्रेरित करते थे। उनकी मूल रचनाओं को संशोधित करके उन्हें निखारकर प्रकाशित करते। कुछ लेखक उनकी रचना-संशोधित नीति से रुष्ट भी हुए। उन्होंने ‘सरस्वती’ में लिखना भी छोड़ दिया, किंतु द्विवेदीजी ने उसकी परवाह नहीं की। उन्हें तो लेखों को पाठकोपयोगी बनाना था। उनकी इस नीति से जहाँ ‘सरस्वती’ की ग्राहक संख्या बढ़ी, वहीं उन्होंने नये लेखकों का एक बड़ा दल भी अपने लिए जुटा लिया।

नये लेखकों को वे प्रोत्साहित करने के लिये कभी अनुवाद का काम दे देते थे। उन्होंने एक बार पं. विशंभर नाथ ‘कौशिक’ को रवीन्द्र नाथ की कहानियों का संग्रह अनुवाद के लिये दिया और कहा, ‘जो कहानी तुम्हें सर्वोत्तम लगे, उसका ‘सरस्वती’ के लिए अनुवाद कर डालो', पर साथ ही हिदायत कर दी कि ‘पुस्तक में कहीं भी न तो निशान लगें न स्याही के धब्बे’। इन्हीं कौशिकजी ने जब एक बार द्विवेदीजी से छपाने के लिए भेजी अपनी कहानी के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, ‘कहानी सुंदर है अवश्य छापूँगा।’ वे नये लेखकों को जब अपनी ‘सरस्वती’ में स्थान दे देते तो उनका नाम ‘सरस्वती’ की ‘फ्री लिस्ट’ में लिखवा देते। उन्हें सूचित करते कि अब ‘सरस्वती’ उन्हें नियमित रूप से भेजी जाएगी,’ फिर उन्हें यथायोग्य पारिश्रमिक भी भेजते।

प्रलोभन से विचलित न होना-

उनके संपादन-काल में ‘सरस्वती’ में कुछ छपाना या किसी का जीवन-चरित्र छपवाना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी। इसीलिए उन्हें बहुत से सज्जन प्रलोभन भी देते। कोई कहता, यदि वे उनकी इच्छित सामग्री छाप दें तो दुपट्टा दूँगा, तो दूसरे सज्जन पैरगाड़ी देने बाज न आते। एक बार किसी सज्जन ने शक्कर की थैलियाँ इस शर्त के साथ दीं कि वे उनके बारे में एक लेख छाप दें। कुछ दिन बाद वे जब द्विवेदीजी के पास आये तो उन्हें द्विवेदीजी ने थैलियाँ लौटा दीं और कहा, ‘वे वैसी की वैसी हैं, और यह भी कहा, ‘सरस्वती’ किसी के साथ सौदा नहीं करती।

द्विवेदीजी इस बात को भी हर्गिज नहीं सह सकते थे कि कोई व्यक्ति उन्हें धूर्तता या रौब से प्रभावित कर सके। एक पी.एच.डी. महोदय ने उन्हें अपना लेख इस शर्त पर भेजा कि इसके संशोधन में कोई उर्दू शब्द न रखें। द्विवेदीजी ने लौटती डाक से उन्हें उत्तर भेजा कि वे अपनी संपादन-नीति में किसी की कोई भी शर्त नहीं मानते। एक बार किसी प राजवंश का एक सचित्र प्रसंग ‘सरस्वती’ में छपा, जिससे उक्त वंश के एक कुमार ने द्विवेदीजी को कुछ पुरस्कार देना चाहा। द्विवेदीजी ने उन्हें सूचित किया, ‘अपना कर्त्तव्य मानकर ही मैंने यह छापा। मैं पुरस्कार का अधिकारी नहीं हूँ, हाँ, पुरस्कार ही देना चाहते हैं तो ‘सरस्वती’ को दें।’ यह था उनका निर्लोभी व्यक्तित्व।

आलोचनाओं का प्रकाशन-

लेकिन द्विवेदीजी सर्वदा लोगों को रूखे ही लगे हों, ऐसा भी नहीं है। एक बार उन्होंने काशी नागरी प्रचारिणी सभा की हिंदी पुस्तकों की खोज रिपोर्ट की आलोचना ‘सरस्वती’ में छपा दी, तो सभा के सभी लोग विशेषकर केदारनाथ पाठक उनसे बहुत कुपित हुए। जुही पहुँचकर वे जैसे ही द्विवेदीजी को कोसने लगे तो उन्होंने उनका सत्कार मिठाई और ठंडे पानी से करते हुए कहा, ‘आप दूर से थके-माँ माँदे आ रहे हैं। हाथ-मुँह धोकर जलपान करें फिर यह लाठी और मेरा मस्तक है।’ पाठकजी शर्म से पानी-पानी होकर रह गये। फिर उन दोनों का सौहार्द्र आजीवन बना रहा। ऐसी ही घटना बालमुकुंद गुप्त के साथ भी घटी। एक बार बालमुकुंद गुप्त और द्विवेदीजी का ‘भाषा की अनिस्थरता’ पर विवाद हो गया। एक-दूसरे पर किये गये आक्षेप ‘सरस्वती’ और ‘भारत-मित्र’ में छपे, पर इस विवाद का अंत भी बहुत मधुर ढंग से हुआ। गुप्तजी द्विवेदीजी से बहुत प्रभावित हुए व कानपुर के प्रसिद्ध पत्र ‘जमाना’ के संपादक मुंशी दयानारायण निगम के साथ द्विवेदीजी से मिलने जुही जा पहुँचे। द्विवेदीजी ने उन्हें हृदय से लगा लिया। निगम साहब ने उन्हें गुप्तजी का परिचय दिया तो गुप्तजी ने द्विवेदीजी से क्षमा माँगी। फिर उन दोनों का सौहार्द्र सदा के लिए बना रहा।

मित्रों का सम्मान-

अपने मित्रों का द्विवेदीजी सदा सम्मान करते थे और उनके किये गये अहसान कभी नहीं भूलते थे। कानपुर जुही कला में, जहाँ रहकर वे सन् १९०४ में ‘सरस्वती’ का संपादन करते थे, उनके एक मित्र बाबू सीता राम थे, जिन्होंने द्विवेदीजी की संकट के समय आर्थिक सहायता भी की थी। उनके बारे में एक बार द्विवेदीजी ने पंडित गिरधर शर्मा ‘नवरत्न’ को लिखा था, 'ऊपर भी हमारे सीताराम हैं और नीचे भी सीताराम।’

द्विवेदीजी जब झाँसी में थे तभी कविवर मैथिलीशरण गुप्त अपने चाचा के साथ उनसे मिलने आये। उनके छोटे से मकान के दरवाजे में लगी चिक पर द्विवेदीजी की नाम-पट्टी लटकी थी और दूसरी ओर पट्टी पर लिखा रहता था- ‘सवेरे भेंट न हो सकेगी।’ गुप्तजी उनसे मिलने तिपहर पहँचे। कुछ प्रतीक्षा के बाद द्विवेदीजी उन्हें आते हुए दिखे। निकट आते ही उन्होंने गुप्तजी को अंदर बुलाया। जब गुप्तजी ने उनसे कहा, ‘हम तो सवेरे ही आने वाले थे पर पता चला कि आप संध्या को ही मिलते हैं’, तो द्विवेदीजी ने हँसकर कहा, ‘हाँ, हम सवेरे ‘सरस्वती’ का काम करते हैं और कुछ लेख लिखते हैं फिर अवकाश नहीं पाते। पर जब आप इतनी दूर से आयें हैं, तो क्या हम आपसे नहीं मिलते।’

अपने कार्य की नियमितता पर वे कभी बाधा नहीं पहुँचने देते थे। अतिथियों को भी उनकी यह बात पता थी। पर एक बार जुही में पं. केशव प्रसाद मिश्र उनसे मिलने गये। द्विवेदीजी ने उनका खूब-सत्कार किया। सुबह उठकर मिश्रजी देखते क्या हैं कि द्विवेदीजी उनके लिए पानी का लोटा लिये खड़े हैं। इस पर मिश्रजी बहुत लज्जित हुए। द्विवेदीजी बोले, ‘तुम मेरे अतिथि हो।’ लेकिन फिर उन्हें दस बजे कुछ पुस्तकें देकर बोले, ‘अब पाँच बजे तक मुझसे बात न करें, इस बीच इन्हें पढ़ें और आर्मी प्रेस के मैनेजर भगवान दासजी से बातें करें। कहकर वे अपने संपादन कार्य में जुट गये।

सहयोगियों के प्रति प्रेम

हरिभाऊ उपाध्याय तीन वर्ष तक ‘सरस्वती’ में द्विवेदीजी के सहायक रहे थे। वे उनके साथ बड़ी निष्ठा और तपस्या से काम करते थे। रात-दिन पूरा करके शीघ्र ही काम निपटा देते। तब द्विवेदीजी कहते, ‘आप इतनी जल्दी काम करके क्यों दे देते हैं? जो जरूरी होगा उसके लिये स्वयं कह दूँगा। शेष काम आराम से कीजिए।’ इससे उनकी अपने सहयोगियों के प्रति सौहार्द्र भावना प्रकट होती है। एक बार की घटना है कि एक संपादक ने द्विवेदीजी से एक रचना इस शर्त के साथ माँगी कि रचना न धार्मिक हो, न सामाजिक और न आर्थिक। इस पर द्विवेदीजी हँसे और बोले, ‘इस तरह तो सभी विषय निकल गये, फिर यह रचना काहे पर की जाए? क्या गधे पर, मजे की बात यह कि सचमुच उन्होंने फिर’ ‘गर्दभ काव्य’ की रचना की, जो ‘हिंदी बंगवासी’ में छपी। द्विवेदीजी अपने पास आयी हुई रचना-सामग्री पहुँचते ही उसकी स्वीकृति या अस्वीकृति की सूचना दे देते थे। तत्काल पत्रों और रचनाओं को पढ़कर अपनी राय भी भेजते।

द्विवेदीजी और ‘सरस्वती’ अभिन्न संबंध

संपादकाचार्य पं. अम्बिका प्रसाद बाजपेयी ने ठीक ही कहा था कि द्विवेदीजी और ‘सरस्वती’ दोनों का अभिन्न संबंध था। यदि द्विवेदीजी को ‘सरस्वती’ नहीं मिलती और ‘सरस्वती’ को द्विवेदीजी नहीं मिलते तो कहा नहीं जा सकता कि तब उनकी चर्चा किस रूप में होती और हिंदी की जो उन्नति आज हो रही है, वह दीखती या नहीं? खड़ी बोली हिंदी का क्या स्वरूप होता? द्विवेदीजी की अटूट लगन, उनका बहुभाषा ज्ञान, नये लेखकों को प्रोत्साहन देना और पाठकों को ज्ञानवर्द्धक पाठ्य-सामग्री जुटाना- ये सब उनके महान गुण थे, जिनके कारण‘सरस्वती’ अपने युग में महान कीर्तिमान स्थापित कर सकी। देश की सभी भाषाओं की उत्कृष्ट पत्रिकाओं के समकक्ष हिंदी की यह अकेली पत्रिका बनी। इसका श्रेय जाता है संपादन के उस ब्रह्मा- द्विवेदीजी को, तभी तो संपादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़करजी भी उन्हें गुरु-तुल्य मानते थे। ‘सरस्वती’ का प्रत्येक अंक उसके संपादक के विलक्षण व्यक्तित्व का प्रतिबिंब है।

 

३ मार्च २०१४

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