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					होली आई होगी-दिनेश
 
 खेतों में 
					बालें झूमी होंगी! नये गुड़ की महक आम के बौरों की खुशबू से मिल 
					मादक हो उठी होगी। मटर ने सारी मिठास अपने दानों में भरी होगी। 
					अलसी ने प्रकृति से सारे रंग माँगे होंगे। और सरसों ने ओढ़ लिया 
					होगा मदन का पीत वसन। नयी शकरकंद और नयी आलू, लोगों ने अलाव 
					में भूनी होगी। रात-रात भर 'खों-खों' करती घूमती लोमड़ी ने 
					गर्माहट पा खों-खों करना कम किया होगा। खेत सींचने के लिए बनी 
					नालियों में घास बड़ी हो गयी होगी और सवेरे घास की पत्तियों पर 
					सतरंगे मोती जगमगाये होंगे। इन मोतियों के स्पर्श ने मचार्इ 
					होगी सारे बदन में फुरफुरी। और, बहका होगा मन किसी गीत की गुन 
					गुन में!
 फिर, आर्इ होगी बसंत पंचमी। औरतों ने 'पियरी' पहनी होगी। बच्चे 
					सबेरे ही बड़े-से-बड़ा रेंड का पेड़ खोजने निकल पड़े होंगे, जिसे 
					उन्होंने होली जलाने के स्थान पर गाड़ा होगा। फिर वे निकले 
					होंगे, घर-घर ने उपले दिये होंगे, होली में रखने के लिए। तबसे 
					होली जलाने के दिन तक उन्होंने होली में कुछ न कुछ डाला होगा। 
					जो चीज एक बार होली में चली गयी होगी उसे किसी ने वापस नहीं 
					उठाया होगा। बच्चों की निगाहों ने जंगल के सूखे पेड़ों तथा 
					गन्ने के खतों में से गन्ने की सूखी पत्तियों के बोझ खोजे 
					होंगे, जिन्हें वे मौका ताक उठा लाये होंगे, और होली मैया को 
					समर्पित कर दिए होंगे। बचपन के कुछ दृश्य नेत्रों में घूम रहे 
					हैं- कुछ बच्चे हमारे घर से बाबा की रजार्इ तथा गद्दे लेकर भाग 
					रहे हैं। बाबा उनका पीछा कर रहे हैं। उनके और बच्चों के बीच 
					साठ पैंसठ साल की दूरी है। बाबा के मुँह से धमकियाँ और गालियाँ 
					पहाड़ी झरने-सी झर रही हैं। बच्चे उनकी पकड़ में आने से पूर्व 
					होली तक पहुँच जाते हैं, और 'होली मैया की जय' कह सब कुछ होली 
					की भेंट कर देते हैं। वे खिलखिलाते हुए अलग खड़े होते हैं और 
					बाबा होली को नमस्कार कर वापस आ जाते हैं।
 
 जैसे-जैसे होली जलाने का दिन निकट आया होगा, ऐसी घटनाएँ बढ़ी 
					होंगी। कर्इ बार तो घर के बच्चों ने ही दूसरों को अपने यहाँ के 
					उपलों के ढेर, पेड़ों की सूखी डालियाँ, बबूल के पेड़ दिखाये 
					होंगे। रातों रात बच्चे बबूल के पेड़ काट लाये होंगे और होली की 
					भेंट कर दिये होंगे।
 
 होली के एक दो दिन पहले तो बच्चे बहुत ही ढीठ हो गये होंगे, और 
					झुण्ड के झुण्ड आकर हमला-सा कर दिये होंगे- उपलों के ढेर पर, 
					शुरू हो रहे खलिहान पर। यदि लोग बिना मारपीट किये अपनी जुबान 
					तथा बाहुबल से कुछ वापस छीन सके होंगे तो ठीक, नहीं तो सब कुछ 
					होली पर चढ़ गया होगा।
 
 फिर आर्इ होगी शिवरात्रि। कुछेक समर्थ लोग दूर-पास के प्रसिद्ध 
					शिव मंदिरों में जल चढ़ाने चले गये होंगे। बाकी ने गाँव के सबसे 
					पुराने पीपल को चुना होगा जिसकी जड़ों के पास पचासों साल से 
					बद्रीनाथ, केदार नाथ जैसे सुदूर तीर्थ स्थलों से लाये 'शंकर 
					भगवान' रखे रहते हैं। फिर लोग नहाने के पश्चात यहीं जल चढ़ाने 
					आये होंगे। कोशिश यह रही होगी कि पुरूष वर्ग आठ नौ बजे तक जल 
					चढ़ा दें।
 
 फिर आयी होंगी स्त्रियाँ, झुण्ड की झुण्ड। शंकर और 
					पार्वती-वंदना के गीत गाते हुए। उनकी चहल के गीत गाते हुए। कुछ 
					ने छींटदार ब्लाउज पहने होंगे और बाकी ने कमीजें। उन्होंने तेल 
					लगाकर बाल भी सँवारे होंगे, मोटी माँग भरी होगी, लगायी होगी 
					टिकुली, और पहनी होगी पटहेर से खरीदी हुर्इ चोटियाँ। हर एक के 
					पास रहा होगा जल भरा लोटा और उसमें उन्होंने डाला होगा गाय का 
					दूध, ताजी बेरें, मदार के फूल, धतूरे का फल, बेल के पत्ते, जौ 
					की बालें, आम के बौर, गन्ने की गडेरियाँ, गेंदे के फूल और दस 
					पाँच पैसे। वे आयी होंगी झुण्ड की झुण्ड और उन्होंने पहले पीपल 
					के तने के पास थोड़ा सा जल चढ़ा 'शंकर भगवान' को हाथ जोड़ा होगा। 
					फिर प्रदक्षिणा की होगी पीपल की। हर बार थोड़ा-सा जल शंकर भगवान 
					पर चढ़ाया होगा, पाँच परिक्रमा पूरी होने के बाद लोटे की बची 
					समाग्री चढ़ा दी होगी। फिर वे हाथ जोड़ अलग हो गयी होंगी। तब 
					मारा होगा झपट्टा बच्चों ने बेर और गडेरियों का प्रसाद पाने 
					को।
 
 जल चढ़ा-चढ़ा कर औरतों का झुण्ड पीपल की छाया में बैठा होगा और 
					गाये गये होंगे गीत भोले बाबा की उदारता के। जल बह कर कीचड़ बना 
					होगा, और यह कीचड़ युवती भाभियों के हाथों का स्पर्श पा चंदन बन 
					गया होगा, जिसका लेप पाने को तरसे होंगे, पीपल के पास से 
					गुजरते पुरुष। पुरुषों ने कीचड़ लगने से बचने के लिए छीना-झपटी 
					की होगी और मन ही मन चाहा भी होगा कि कीचड़ लग भी जाये। इसी 
					बहाने 'उनका' स्पर्श तो मिले। जब भी किसी ने कीचड़ लगाने में 
					सफलता पार्इ होगी, बाकी सब उपस्थित नारियों की खिलखिलाहट का 
					कलरव गूँजा होगा और उस लिपे-पुते पुरूष के भाग्य से दूसरों ने 
					ईर्ष्या की होगी। बौराये आमों के पल्लवों के पीछे से झाँक, मदन 
					ने अपने हन्ता के सामने ही अपने फैलते प्रभाव को मुस्करा कर 
					देखा होगा। बसंत पंचमी से ही लोगों ने प्रियाओं का स्पर्श चाहा 
					होगा। शिवरात्रि तक इस आकांक्षा ने पाँव फैलाये होंगे। भाभियों 
					ने ताड़ा होगा मौका और कर दी होगी गागर खाली देवरों के ऊपर। 
					उनके स्पर्श से मधु रस बना यह जल, देवरों के मन को बहुत भीतर 
					तक रससिक्त कर गया होगा। और क्यों नहीं, ''फागुन माँ तो जेठ 
					देवर लागै!''
 
 फिर आर्इ होगी होली। पुरोहित ने पत्रा देख बताया होगा होली 
					जलाने का समय। लोग ढोल, मजीरा, करताल ले होली के चारों ओर 
					इकट्ठा हुए होंगे। वे अपने साथ हरे चने के फलियाँ लगे पौधे, जौ 
					के बाल लगे पौधे और बर्रे के फूल वाले पौधे लाये होंगे। फिर 
					जलार्इ गर्इ होगी होली। होली की लपटों ने चाँद से गले मिलना 
					चाहा होगा। होली की आँच ने शीत को विदा कर दिया होगा। लोगों ने 
					होलिका मैया और भक्त प्रह्लाद के गीत गाये होंगे, चने और जौ के 
					पौधे और बर्रे के फूल होली में झुलसाये होंगे। जौ तथा चने के 
					यही झुलसे दाने 'प्रसाद' बने होंगे। बर्रे के झुलसे पौधे लोग 
					अपने घर ले गये होंगे, छत में खोंसने को।
 
 थाल से बड़े चाँद ने धरती को दूध से नहलाया होगा और पकते अन्न 
					की खुशबू ने लोगों को मस्त कर दिया होगा। उन्होंने रात भर 
					'फाग' तथा 'चौताल' गाया होगा।
 
 दूसरे दिन सबेरे औरतों ने होली की पूजा कर आग माँगी होगी और 
					साथ ही होलिका मैया से माँगा होगा, साल भर चूल्हे की आग हर दिन 
					जलाने का सौभाग्य।
 
 हिरण्यकश्यप जैसे राक्षस की बहन 'होलिका' प्रहलाद को जला देने 
					के लक्ष्य से आग में बैठी थी। वह पूज्य कब से हो गयी भला 
					सोचिये! प्रहलाद के तेज से जलने से वह पूज्य हो गयी थी क्या? 
					खैर!
 
 दूसरे ही दिन आया होगा 'फगुआ'। पहले तो मनचलों के दल ने ढोल 
					बजा- 'कबीर' गाते हुए घर घर घूमना शुरू किया होगा। घर की 
					मजूरिनों ने उन पर गोबर तथा कीचड़ फेंका होगा। 'अबीर' के साथ 
					पुरुषों और गोबर के साथ औरतों के मन का सारा कलुष बह गया होगा।
 
 बच्चों ने पूड़ियों और गुझियों की आशा लगायी होगी। 'परजा' ने 
					अपना हक माँगा होगा। लोगों ने घोले होंगे रंग। नेह से गुलाबी, 
					सरसों के फूलों से पीले, कन्हैया के बदन से नीले, राधा के 
					होठों से लाल और आम की पत्तियों से हरे। गुलाल और बुक्के का 
					मिश्रण तैयार किया गया होगा। भाँग की गोलियाँ और शरबत तैयार 
					हुआ होगा। पानों के बीड़े लगाये गये होंगे।
 
 बच्चों ने अपने प्रिय जानवरों से होली-होली खेली होगी, 
					बुजुर्गों पर रंग डाल पाँव छुये होंगे। तब तक निकले होंगे तीन 
					समानान्तर दल, बच्चों के, औरतों के और पुरूषों के। औरतों ने सब 
					पर नेह-रंग बरसाये होंगे। और फिर उनके झुण्ड के झुण्ड गीत गाते 
					हुए घर-घर घूमे होंगे। आँगन, घर-द्वारा, खलिहान रंग उठे होंगे। 
					पान से रँगे होंगे होंठ, अबीर से रँगा होगा मुखड़ा, रंग से भीगा 
					होगा तन, रंग उठा होगा मन का कोना-कोना।
 
 पुरुषों का दल घर-घर घूमता सबको इकट्ठा करता पहुँचा होगा बड़ों 
					के दरवाजे। वहाँ तिरपाल बिछा होगा। ठण्डर्इ बँटी होगी। पान 
					बँटे होंगे। बड़ी-बड़ी पिचकारी से जमात पर रंग डाला गया होगा। 
					लोगों ने हल्के से अबीर लगा उनका अभिवादन किया होगा। फिर फाग 
					गाये गये होंगे। ढोल, मजीरा, चिमटा और करताल बजे होंगे। 
					गाते-गाते लोगों के गरदनों की नसें फूल गयी होंगी।
 
 उनके चेहरे अबीर से रँगे होंगे। बुक्के के छोटे-छोटे टुकड़ों ने 
					सूरज की किरणों को चारों ओर चमकाया होगा। लाल, हरे, नीले, 
					गुलाबी रंगों ने मिल एक नूतन 'हर्ष' रंग की सृष्टि की होगी। 
					हवा अबीर और रंग से गुलाबी, हरी, नीली हो गयी होगी।
 
 मेरे गाँव में होली आर्इ होगी और मैं यहाँ विदेश में रंग का 
					पैकेट लिए घूम रहा हूँ कि कोर्इ दिखे तो उसे रंग लगा दूँ।
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