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निबंध


सत्य का दीया तप का तेल
-चंद्रशेखर
 

कहते हैं कि पाँच भौतिक तत्वों ने परस्पर मिल-जुलकर इंसान जैसी अनोखी चीज़ का निर्माण किया। ये तत्व हैं - मिट्टी, पानी, आग, हवा और आकाश। छोटा-सा दिखने वाला दीये के निर्माण में भी इन्हीं तत्वों - मिट्टी, पानी, आग, हवा और आकाश का योगदान है। अपनी गाँव का हीरा कुम्हार ताल-तलैया से, चिकनी मिट्टी लाता है। डंडे से पीटकर उसे महीन करता है। थोड़ा-थोड़ा पानी डालकर उसे कर्मकार गूँथता है। खर-पतवार और कंकरी-पथरी निकालकर उसका "लोना" बनाता है। इसके बाद बहुत सहज ढंग से उसे चाक पर रखता है। चाक के बगल में बैठकर वह डंडे के सहारे उसे चक्रवत तेज़ चलाना शुरू करता है। अपने दोनों हाथ चाक के बीचो-बीच रखे "लोना" के चारों ओर अपनी कलात्मक अँगुलियाँ घुमाता है। हीरा कुम्हार के मन की बात और उसकी अँगुलियों की करामात है कि वह एक निर्जीव चाक के माध्यम से बड़े-बड़े घड़े बनाता है या छोटे-छोटे दीये। दीपावली के समय वह असंख्य दीया बनाने में जुटा है। उसे देखकर लगता है कि पृथ्वी रूपी चक्र चक्रवत चल रहा है और सृष्टि का नियामक बड़े इम्तिहान के साथ बैठकर अपनी मनचाही मूर्तियाँ गढ़ रहा है। "दिनकर" का ताप ही गीले दीये को सुखाकर पुष्ट करता है। आवां में सूखे गोबर की मधुर मद्धिम आग में यह दीया पकता है। इस प्रकार दीया अपनी वर्तिका को हवा की सहेली बनाकर शून्य यानी आकाश में जलता रहता है। दीया की निर्मित में माटी, जल, आग, समीर और गगन बड़े करीने से सहयोग करते हैं।

ताप और प्रकाश का संवाहक

विज्ञान की बात है कि सूर्य स्थिर है, पृथ्वी चलती है। सूर्य एक ही समय पृथ्वी के आधे भाग को प्रकाश देता है और शेष को अंधकार। सूर्य मूलत: ताप और प्रकाश का संवाहक है, किंतु विशुद्ध ताप और प्रकाश में किसी जीवन का उद्भव संभव नहीं हो सकता। जीवन के उद्भव के लिए एक ही कोशिश में प्रकाश और अंधकार का अवांतर से बना रहना अनिवार्य है। सूर्य इसीलिए अपनी प्रिया धरती को एक साथ प्रकाश और अंधकार से संपृक्त किए रहता है, जिससे वह अपनी कोख से सभी प्रकार के जीवन को संभव बना सके। जब उत्स ही प्रकाश और अंधकारमय है, तब उसकी निर्मित भी प्रकाश और अंधकारमय होगी ही, इसलिए धरती की संतान आदमी को नैसर्गिक रूप से अपने विवेक के कारण अंधकार से जूझने और झगड़ने की आदत पड़ जाती है। सूर्य भी इस अभियान में धरती की संतान - आदमी की सहायता करता है। अपनी संतान दीया को आदमी की कुटिया में सजाकर सूर्य सोचता है कि जहाँ मैं नहीं पहुँच सका, वहाँ मेरी संतान दीया ही अपनी महीन रोशनी से मेरी अवस्थिति को बनाए रखे हुए है

साधारण वस्तु नहीं हैं दीया

दीया साधारण वस्तु नहीं हैं। कठिन, बेजोड़, श्रमसाध्यजनित इसकी निर्मित है। दीया बनाने वाला कुम्हार, तेल निकालने वाला तेली, घी निकालनेवाला अहीर, पोली वाला, बत्ती बनाने वाली घर की बुढ़िया, इन सबके तन-मन, नेह-निष्ठा, आस्था, विश्वास समन्वित रूप से दीये को लौ के रूप में उजागर होते हैं। तब दीया के रूप में सूर्य का वंशज ग़रीब की कुटिया में जन्म लेता है। तमिस्रा रजनी के निविड़ अंधकार की स्फीत छाती को विदीर्ण करते देखा जा सकता है कि निपट अकेले इस दीये में अथाह धैर्य एवं अपरमित साहस है। इसके निष्कंप लौ में अंधेरे के विरूद्ध संघर्ष का महान अभियान परिलक्षित होता है। लगता है कि सूर्य अपनी ज्योतिर्मयी देह को लक्ष-लक्ष दीए के रूप में विभक्त करके हर कुटिया के अंधेरे पर विजय प्राप्त करने के निमित्त अपने को नि:स्व करने पर उतारू है। अंधेरे से जूझता दीया रात भर जलता है और प्रात: पौ फटते ही सूर्य को अपनी ज्योति प्रतिदान के रूप में देकर न जाने कहाँ विलीन हो जाता है। सूर्य और दीया की परस्पराश्रित यह अवस्थिति अनादिकाल से अनवरत विद्यमान है। संध्या से ही अविराम जलता दीया उषाकाल की लालिमा से मिलाप करता है एवं नित्य प्रात: प्रस्फुटित सूर्य की रश्मियाँ अपनी ज्योति-मंजूषा के संध्या दीप-लौ में संजोकर रख देता है। अवांतर से, एक लघु ज्योति का दूसरी महाज्योति में विलय की यह प्रक्रिया अंधकार पर अनवरत दबाव बनाए रखने की उसकी विजय-यात्रा है। हमारी पुरातन सभ्यता का यह ऐतिहासिक क्षण है। अमा की निविड़ रजनी में आदमी के श्रम, स्नेह, आस्था और विश्वास के हाथों बनाई गई दीप की जलती लौ की अपनी अनूठी कहानी है। भारतीय परिवेश की सामाजिक, जातीय एकात्मकता की परिणति है यह।

दीये की विजय यात्रा

अपनी विजय यात्रा में अकेला निर्भय जलता दीया प्रति वर्ष में एक बार कार्तिक की अमा रात्रि में विजय-पर्व का मनोरम रूप धारण करता है, क्यों कि अमावस्या में ही दुर्भय अंधकार को दूर भगाने की प्रकाश की सबसे अधिक उपादेयता होती है। इस प्रकार, दीया का जन्म एक लोकोत्सव बन जाता है। इसकी लौ में अनेक मिथक, प्रतीक एवं बिंब जुट जाते हैं मानो आदमी और दीया का मनोभाव एकाकार होकर स्नेह-श्रद्धा, लोक-परलोक और मृण्मय-चिन्मय की सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ कैवल्य में तिरोहित हो जाता है। रावण की पराजय के बाद विजय-श्री धारण करके कानन-बिहारी राम के अयोध्या लौटने की बात हो, यमराज की पूजा कर अकाल मृत्यु की विकृति से बचने की लालसा हो, स्वस्थ बन शतायु वर्ष जीने की अभीप्सा में धन्वंतरि की आराधना करनी हो, चौदहवीं की रात में नरकासुर के वध के उपरांत आनंद मनाना हो, सागर से लक्ष्मी के प्रकट होने की बेहद खुशी हो, कृषि संस्कृति के संवर्धन के प्रतीक गोवर्धन की उपासना हो, भाई-बहन की शुचिपूर्ण संबंधों की चरम-परिणति की बेला हो, ये सब इसी दीया की लौ में आज भी निर्बाध भासमान हैं। श्रीराम एक अकिंचन बनवासी-से उपेक्षित युवक के रूप में अकेले दीया की भाँति कांट-कुश, कांकड़-पाथर भरे-बीहड़ बन में अपने साहस की लौ जलाते घूमते हैं। निर्मम, आततायी समग्र आंध्रालय के एकछत्र सम्राट रावण से लोहा लेते हैं। अपने बूते अनगढ़, अशिक्षित जनजातियों का एक सुसंस्कृत समाज बनाते हैं और लंका विजय के बाद अपनी विजय का सारा श्रेय बानर, रीछों में बाँट देते हैं। दीया का अभेद्य संबंध सूर्यवंशीय श्रीराम से हैं।

चिन्मयता का प्रतीक : दीया

सूर्य श्री शोभा जीवन, प्राण मधु, तेज, अपने स्वार्थ के लिए दूसरे राष्ट्र पर कर डाले तो इससे होने वाले विनाश के परिणाम की कल्पना ही भयानक होगी। इस तरह मानव की सभ्यता, संस्कृति एवं जीवन के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लग जाएगा। विगत दो महायुद्धों में क़रीब दस करोड़ लोगों की हत्या की गई। विश्व-विख्यात वैज्ञानिक आइंस्टीन से एक बार किसी पत्रकार ने पूछा कि तीसरे महायुद्ध में पृथ्वी का क्या होगा? आइंस्टीन ने कहा कि तीसरे महायुद्ध के बारे में तो नहीं बता सकता, परंतु चौथे महायुद्ध के बारे में अवश्य बता सकता हूँ। पत्रकार के पूछने पर आइंस्टीन ने उत्तर दिया, "चौथा महायुद्ध होगा ही नहीं, क्यों कि तीसरे महायुद्ध में इतना विनाश होगा कि चौथे महायुद्ध के लिए कोई बचेगा ही नहीं।"

विनाश के कगार पर

ऐसी आधुनिक जीवन पद्धति, सभ्यता एवं शिक्षा किस काम की जिसमें मानव की सभ्यता एवं जीवन ही विनाश के कगार पर खड़ा हो। भौतिक जगत में मानव ने चाहे जितनी प्रगति कर ली हो, किंतु सात्विक चिंतन, भावनात्मक एकता और आध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में मानव विनाश का ही आज भीषण ख़तरा बना हुआ है।

मानव जाति की उत्पत्ति को हज़ारों वर्ष गुज़र चुके हैं, फिर भी अभी तक वह जंगली जानवरों की तरह खून का प्यासा है। विश्व विख्यात नाटककार बर्नाड शॉ ने एक जगह कहा था कि मानव का निर्माण करने का प्रयोग असफल रहा ऐसा समझकर एक दिन ईश्वर समूची मानव जाति को ही समाप्त कर देगा। निराशा के कारण हमें ऐसा लगता है, किंतु ईश्वर का प्रेम स्वार्थी नहीं हैं, वह अब भी आस लगाए हुए हैं कि मानव जाति एक दिन सही मार्ग पर आ जाएगी।

विश्व विख्यात दार्शनिक सुकरात मनुष्य के सद्गुणों को ही ज्ञान मानते थे। श्रीमद्भगवद गीता के अनुसार ज्ञान का अर्थ पंडिताई या पुस्तकीय विद्या नहीं हैं। ज्ञान का अर्थ है सद्गुण। ऐसी शिक्षा जो मनुष्य में सद्गुणों की खान उत्पन्न कर सके वही सच्ची शिक्षा है। भारतीय संस्कृति के मूल में ऐसे ही उदात्त विचारों की रसधारा आज भी विद्यमान है। वर्तमान युग की प्रतिस्पर्धा एवं विषम परिस्थितियों में भी यह धारा सूखने नहीं पाई हैं।

आशा की जा सकती है कि अंततोगत्वा ऐसी मानव सभ्यता का उदय होगा, जिसमें जाति, धर्म, संप्रदाय एवं देश की सीमाओं को तोड़कर समूची मानव जाति में एकरूपता, परस्पर प्रेम, करुणा, सहिष्णुता आदि संजोए उच्च मानव धर्म का प्रादुर्भाव हो। तभी यह पृथ्वी इंसान के जीने योग्य बन सकेगी और हमें अपने आपको मानव कहे जाने पर गर्व होगा।

 
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