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इतिहास

कला में आज़ादी के सपने
—मिथिलेश श्रीवास्तव

शहीद स्मारक पटना
देवी प्रसाद राय चौधरी का मूर्तिशिल्प।


सरदार पटेल मार्ग नई दिल्ली पर प्रदर्शित देवी प्रसाद राय चौधरी का एक और मूर्ति शिल्प नीचे

आज हमारी कला पर भले ही बाज़ार और व्यापारी हावी हो गया है, पर स्वाधीनता संघर्ष के दिनों में अनेक कलाकार आंदोलन से जुड़े थे। नंदलाल बसु और यामिनी राय गांधी जी से बहुत प्रभावित थे। देवी प्रसाद राय चौधरी के बनाए हुए स्वाधीनता संबंधी स्मारक कला और स्वाधीनता संघर्ष से जुड़ाव के अनोखे प्रमाण हैं।

सन बयालीस की अगस्त क्रांति को आज केवल 'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो' या 'करो या मरो' के क्रांतिकारी नारी के लिए याद किया जाता है। लेकिन वास्तविकता इतनी सी नहीं थी। क्रांतिकारियों पर बरपाए गए क्रूरतम अत्याचार की कहानी पटना में स्थापित 'शहीद स्मारक' आज भी आते-जाते लोगों को सुना जाता है। ग्यारह अगस्त १९४२ की शाम पटना सचिवालय पर तिरंगा फहराने के इरादे से गए एक जुलूस पर पटना जिले के कलेक्टर आर्चर ने गोली चलवाई थी। सात लोग मारे गए थे और अनेक घायल हुए थे। यह शहीद स्मारक उन्हीं सात शहीदों की स्मृति है, जो स्कूल के विद्यार्थी थे। बिहार में 'अगस्त क्रांति' की व्यापकता का एक बड़ा कारण इन सात छात्रों की हत्या से उपजा भारी जनरोष भी था।

पटना का यह शहीद मूर्तिशिल्प कला का एक अनोखा नमूना है क्यों कि इसमें आज़ादी की लड़ाई के तीव्रतर दौर में हुए क्रूर अत्याचार की एक झाँकी है और शहीदों के खून का जोश और उसका तनाव मूर्तियों की बनावट में है। 'शहीद स्मारक' प्रतीकात्मक तौर पर उस त्याग को दर्शाता है जो स्वतंत्रता संग्राम में भारत के लोगों ने किया। इसके शिल्पी थे प्रसिद्ध कलाकार देवी प्रसाद राय चौधरी।

देवी प्रसाद राय चौधरी का परिवार उत्तर बंगाल में ज़मींदार था। लेकिन राय चौधरी का मन कलाकार का था। उनके गुरु थे अवनींद्र नाथ ठाकुर। अवनींद्र नाथ के शिष्यों में नंदलाल बोस, क्षितींद्र नाथ मजूमदार, यामिनी राय, असित कुमार हालदार आदि थे। जिनका नाम भारतीय कला के इतिहास में अमर है। देवी प्रसाद राय चौधरी को अपनी पहचान बनाने में काफ़ी संघर्ष करना पड़ा था। मद्रास के आर्ट स्कूल में वे अठ्ठाइस वर्ष तक रहे। मूर्तिशिल्पी के रूप में उन्होंने काफ़ी नाम कमाया। स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों की झाँकियाँ और आज़ादी के महापुरुषों की प्रतिमाएँ उन्होंने काफ़ी बनाई। इससे आज़ादी की लड़ाई और उसके महत्व की ओर उनके रुझान का पता चलता है।

आज़ादी के आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के सामाजिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विचारों और संघर्षों की प्रतिध्वनि देवी प्रसाद राय चौधरी के मूर्तिशिल्प और शहीद स्मारकों में मिलती है। 'द्रावणकोर मंदिर में हरिजन प्रवेश उद्घोषणा', 'ध्वंस देवता', 'अंतिम प्रहार', 'भूख से पीड़ित', 'श्रम की विजय' आदि कांस्य में बने मूर्तिशिल्प इसका प्रमाण हैं। उनकी बनाई बड़ी मूर्तियों में सर सुरेंद्र नाथ बैनर्जी, महात्मा गांधी और मोतीलाल नेहरू की प्रतिमाएँ असाधारण मानी जाती हैं। महात्मा गांधी की थकी हुई दुर्बल आकृति उस सारे आंतरिक बल को लिए हुए है, जिसने स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्र का नेतृत्व किया। सूझ-बूझ से रखे गए कैक्टस से उलझती उनकी चादर मार्ग की बाधाओं का सामना करने की उनकी विकट संकल्पशक्ति का प्रतीक है।

सन १९५४ में राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय के परिसर में मुक्ताकाश में स्थापित कांस्य की मूर्ति 'श्रम की विजय' की चारों आकृतियाँ एक बड़े काम में जुटे हुए लोगों के शरीर की रचना का सटीक अध्याय हैं। इस मूर्ति में निर्मित मानव समूह की सबसे ख़ास बात है इसकी सर्वव्यापी अपील, चट्टान उलटने के काम की कठिनाई और गति का आभास।

'स्वतंत्रता स्मारक' देवी प्रसाद राय चौधरी का एक और शहीद स्मारक है, जो दिल्ली में तीनमूर्ति मार्ग और सरदार पटेल मार्ग जहाँ मिलते हैं, वहाँ सड़क के किनारे लगा है। इसकी स्थापना १९८२ में हुई थी यानी राय चौधरी की मृत्यु के बाद। पटना में स्थापित शहीद स्मारक का ही यह एक बड़ा संस्करण है जिसे बनाने का काम जवाहर लाल नेहरू ने देवी प्रसाद राय चौधरी को सौंपा था। देवी प्रसाद का दावा था कि इतनी मनुष्य आकृतियों वाली यह मूर्तिशिल्प विश्व में अपने ढंग की सबसे बड़ी रचना है। २९ मीटर लंबी सतह पर चार मीटर ऊँची ग्यारह आकृतियों वाला यह संयोजन 'अनेकता में एकता' का प्रतीक है। हर आकृति अपनी शारीरिक बनावट और विशिष्ट पहनावे के द्वारा एक-एक ख़ास राज्य का प्रतिनिधित्व करती है। इसमें सबसे आगे लंबी-सी छड़ी हाथ में लिए आगे बढ़ती हुई आकृति महात्मा गांधी की है। लोग इसे नमक सत्याग्रह से जोड़कर भी देखते हैं।

शंखो चौधरी (१९१६) लघु और बड़े आकार के मूर्तिशिल्प की रचना समान खूबी से कर सकते हैं। कांसे में गढ़ी हुई महात्मा गांधी की प्रतिमा(कार्ल खंडेलवाल के शब्दों में)  राष्ट्रपिता का सबसे उत्कृष्ट मूर्तिशिल्प है। यह मूर्तिशिल्प ब्राजील में है। शंखों का बनाया खान अब्दुल गफ़्फार खान का पोर्ट्रेट शैली का मूर्तिशिल्प भी महत्वपूर्ण है। अंग्रेज़ों के खिलाफ़ देशव्यापी असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने वाले अन्य कलाकारों में भवेशचंद्र सान्याल भी थे जो सन १९२९ में हुए लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने कलकत्ता से गए थे।

लाहौर में सान्याल को लाला लाजपत राय की प्रतिमा बनाने का काम सौंपा गया था। लाहौर उन्हें इतना पसंद आया कि वे वहीं रह गए। आज़ादी के बाद देश का बँटवारा हुआ और उन्हें लाहौर को अलविदा कहकर दिल्ली लौटना पड़ा। शताब्दी के पूर्वार्ध में राष्ट्रीय आंदोलन ने यामिनी राय और नंदलाल बसु जैसे दो महान कलाकार भारत में पैदा किए। वे दोनों एक दूसरे महान कलाकार अवनींद्र नाथ ठाकुर के शिष्यों में थे। यामिनी राय और नंदलाल बसु उस कला आंदोलन की देन थे जो देशभक्त की तरह सोचता, समझता और काम करने की इच्छा से प्रेरित था।

नंदलाल बसु की दृष्टि उनको महात्मा गांधी के बहुत निकट लाई। कहा जाता है कि महात्मा गांधी के संपर्क में आने के बाद नंदलाल बसु की कला में एक नया मोड़ आया। राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत बसु 'असहयोग आंदोलन', 'नमक-कर विरोध आंदोलन' आदि में सक्रिय भूमिका में थे। आज़ादी की लड़ाई के दौरान पारंपारिक और राष्ट्रीय अवधारणाओं के मेल से जो आधुनिक अवधारणाएँ संकल्पित हुई थीं, उनका प्रभाव तत्कालीन कलाकारों की कला में आ रहा था। हाशिए पर रख छोड़ी गई स्त्रियों की क्षमता और शक्ति को गांधी जी ने पहचाना और आज़ादी की लड़ाई में उसका सदुपयोग किया। नंदलाल बसु के हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में बनाए एक विशेष पोस्टर शृंखला में औरत की आध्यात्मिक शक्तियाँ चित्रित हुईं थीं।

दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद गांधी १९१५ में कुछ समय के लिए शांति निकेतन में ठहरे थे जहाँ उनकी भेंट रवींद्रनाथ टैगोर से हुई थी। 'मैं ऐसा साहित्य और ऐसी कला चाहता हूँ जिसमें करोड़ों लोगों से संवाद की संभावना हो।' यह महात्मा गांधी का कला दर्शन था। नंद लाल बसु की कला की सारी प्रेरणा भारतीय संवेदना की प्रतीक थी। १९३६ में महात्मा गांधी अपने विचारों को फलितार्थ देखना चाहते थे। इसलिए अखिल भारतीय कांग्रेस के अधिवेशन में ग्रामीण कला और क्राफ्ट की एक कला प्रदर्शनी लगवाई गई थी। परिकल्पना गांधी की थी और नंदलाल बसु ने उसे साकार किया था। महात्मा गांधी ने उस अधिवेशन के पहले नंदलाल बसु को सेवाग्राम में बुलवाया और अपना दृष्टिकोण समझाया। हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में भी इसी प्रकार की प्रदर्शनी की रचना हुई थीं। दोनों ही जगहों पर गांधीवादी कला दृष्टि अभिव्यक्त हुई। दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि उन प्रदर्शनियों की कोई निशानी बची नहीं है।

कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में नंदलाल बसु और यामिनी राय, दोनों ने मिलकर कुछ म्यूरल बनाए थे। यामिनी राय उन दिनों बंगाल के पटुआ लोक परंपरा में काम कर रहे थे। इसके भी कोई अवशेष नहीं बचे हैं।

महात्मा गांधी के कहने पर गुस्र्दासपुर (पंजाब) के रहने वाले चित्रकार सोभा सिंह दिल्ली छोड़कर हिमाचल प्रदेश की अंद्रेटा में जाकर बसे। वहाँ कांगड़ा घाटी के सौंदर्य को अपने चित्रों में उतारते रहे। 'अमर म्यूज़ियम' जम्मू में उनकी पंद्रह कलाकृतियाँ रखी हुई हैं। बंगाल के प्रसिद्ध मूर्तिशिल्पी राम किंकर बैंज भी अपनी कला में भारतीय मिथकों के माध्यम से राष्ट्रीय और सांस्कृतिक एकता की झाँकी दिखाते थे। दूसरे और तीसरे दशकों में नंदलाल बसु और बंगाल स्कूल के अनेक कलाकारों को गांधीवादी अवधारणाएँ प्रिय रहीं।

उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में ब्रिटिश कला शैली के विरोध में अवनींद्र नाथ टैगोर के नेतृत्व में राष्ट्रीय शैली का एक कला आंदोलन बंगाल स्कूल के नाम से शुरू हुआ। बंगाल-स्कूल के कलाकारों की जड़ें भारतीयता में थीं। बंगाल का विनाशकारी सूखा हो, युद्ध हो, ध्वंस हो, सांप्रदायिक दंगे हों, भूख हो, आज़ादी की लड़ाई हो, देश का बँटवारा हो, विस्थापितों की समस्याएँ हों, सभी उनकी कला का विषय बनें।
 

१६ अगस्त २००५ (उत्तर प्रदेश से साभार)

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