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फ़ीजी में हिंदी

भाषा, साहित्य एवं संस्कृति उद्भव एवं विकास
—डॉ. विवेकानंद शर्मा


प्रथम प्रवासी भारतीय श्रमिक के फीजी में अपना पग रखते ही हिंदी का प्रवेश यहाँ हो गया था। क्यों कि अधिकांश श्रमिक भारतवर्ष के हिंदी भाषी प्रदेशों से यहाँ आए थे अतः यहाँ उन्हीं की ही भाषा स्थापित हुई और इस तरह हिंदी भारतीयों की प्रमुख भाषा बनी। आज प्राथमिक पाठशालाओं से लेकर विश्वविद्यालय तक पढ़ाई जाने वाली हिंदी फीजी की एक महत्वपूर्ण भाषा है तथा समाचार माध्यमों में भी इसका महत्वपूर्ण योगदान देखा जा सकता है।

प्रवासी भारतीयों का आगमन
फीजी में प्रथम प्रवासी भारतीयों का आगमन सन १८७९ ई के १५ मई को हुआ। तब से लगातार लगभग चालीस वर्षों तक वे मज़दूरों के रूप में यहाँ आते रहे। सन १९१६ ई तक ६०,००० से भी अधिक प्रवासी भारतीय फीजी पहुँचते रहे और श्रमिकों के रूप में इस छोटे से द्वीप को आबाद करते रहे।

भारतवर्ष तब ब्रिटिश सरकार के आधीन था। भारत से दूर सुदूर पूर्व में प्रशांत महासागर के दक्षिण प्रांगण में ४०० से भी अधिक छोटे-छोटे द्वीपों का समूह फीजी भी ग्रेट ब्रिटेन का एक उपनिवेश था। गन्ना उत्पादन के लिए यह देश अत्यधिक अनुकूल एवं उपयुक्त पाया गया। पड़ोसी देश ऑस्ट्रेलिया की एक चीनी कंपनी फीजी में गन्ने का व्यापार सँभाल रही थी। गन्ना-खेतों पर काम करने के लिए सही श्रमिक मिल नहीं रहे थे।

देश के आदिम निवासी खेत में काम करना नहीं चाहते थे। यह उनकी प्रकृति के विपरीत था। वे मौज-मस्ती और आज जियो कल देखा जाएगा की भावना से ओत-प्रोत थे। फिर भला वे खेत में क्यों काम करते? देश में प्राकृतिक संपदा की कमी नहीं थी। यहाँ के समुद्र और नदियों में विभिन्न प्रकार की मछलियों की बहुतायत रही और छोटे बड़े वनों में जड़-पदार्थ की कमी कभी भी नहीं रही। जीविका के लिए तो उन्हें आवश्यक वस्तुएँ स्वतः ही उपलब्ध थीं। फिर भला मेहनत मशक्कत कर जीविकोपार्जन की आवश्यकता ही कहाँ रही? गन्ना के खेतों में मजदूर बनकर कड़ी मेहनत करना उनके स्वभाव के विपरीत था।

पास-पड़ोस के कुछ अन्य द्वीपों से भी श्रमिक लाए गए। लेकिन उनके द्वारा भी गन्ने की खेती बढ़ाई नहीं जा सकी। कुछ अन्य देशों से भी श्रमिक आयात किए गए, लेकिन उनका भी समय गन्ने के मीठे और स्वादिष्ट रस चूसने में अधिक बीता, खेतों में मरना उन्हें नहीं भाया। अंततः भारतवर्ष से प्रवासी भारतीयों को ही इस कार्य संपादन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त समझा गया क्यों कि वे मॉरिशस, सूरीनाम, गुयाना जैसे उपनिवेशों में अपनी योग्यता पहले ही प्रकट कर चुके थे। अतः यह स्वाभाविक था कि फीजी में गन्ने की खेती को सफल बनाने के लिए भारत से ही श्रमिक आयात किए जाएँ। शासकों का निर्णय कार्य रूप में परिणत हुआ और यहाँ की गन्ना-कंपनी को इस ओर आशातीत सफलता मिली।

हज़ारों प्रवासी भारतीय श्रमिक फीजी लाए गए और पाँच वर्षों का शर्तबंदी जीवन व्यतीत कर उनमें से अधिकांश गिरमिटिया यहीं बस गए - गन्ने की खेती को और भी अधिक बढ़ावा मिला। 'शर्तबंद अथवा अग्रीमेंट के अंतर्गत आने के कारण वे शर्तबंदी मज़दूर कहलाए और अंग्रेज़ी का तत्सम शब्द अग्रीमेंट बिगड़ कर गिरमिट हो गया। गिरमिट काटने वाले गिरमिटिया कहलाए।

गिरमिट काल में साहित्य रचना नगण्य ही रही है। चालीस वर्षों के इस अंतराल में रामायण, महाभारत, आल्हखंड जैसे महाकाव्यों से संबंधित कथाएँ कहा-सुनी जाती रहीं, साथ ही अन्य प्रेरक एवं मनोरंजक किस्सा-कहानी भी समय काटने का माध्यम रहीं। पूरे गिरमिट काल में अव्यवस्थित ढंग से हिंदी साँस लेती रही, हिंदी जीवित रही। इन दिनों पारंपरिक एवं तत्कालीन परिस्थितियों पर आधारित लोकगीतों का ही बोल-बाला था जो विशेषतः लोक रीतियों को पुष्ट करता रहा, उनका संरक्षण और संवर्धन करता रहा।

गिरमिट काल के पश्चात हिंदी का विकास
सन १९१६ में गिरमिट प्रथा का अंत हो गया लेकिन १९२० तक उसका प्रभाव बना ही रहा। दैनिक जीवन में कोई विशेष बदलाव नहीं आया। लेकिन हाँ, १९२० के बाद अनेक परिवर्तन होने लगे - लोगों के जीने की व्यवस्था में सुधार होने लगा, अपनी संतति के भविष्य को सँवारने-सुधारने के उपाय सोचे जाने लगे। जहाँ-तहाँ पाठशालाओं की स्थापना का प्रबंध होने लगा, लोगों के सोचने-विचारने में भी परिवर्तन आने लगा। व्यवस्थित एवं उन्नत जीवन जीने का संघर्ष ज़ोर पकड़ने लगा। भारतवर्ष से हिंदी की किताबें मँगाई जाने लगीं। किस्सा-कहानी, नाटक-नौटंकी, मेला-ठेला आदि के माध्यम से हिंदी का प्रचार-प्रसार बढ़ने लगा। लोगों में अपने व्यक्तित्व, अपना परिचय आदि बनाए रखने की ओर ध्यान अधिक आकर्षित होने लगा।

पाठशालाओं के साथ लिखित साहित्य की ओर भी ध्यान आकर्षित होना स्वाभाविक था। पाठशालाओं में औपचारिक रूप से पढ़ाए जाने के लिए तथा स्वयं का ज्ञान संवर्धन हेतु किताबें मँगाई जाने लगीं। फलस्वरूप सदाबृज-सारंगा, गुलबकावली, गुलसनोवर, हातिमताई, सिंहासन बत्तीसी, बैताल-पचीसी, बाला-लखंदर जैसी सहज ग्राह्य पुस्तकों का प्रचार-प्रसार बढ़ने लगा।

किस्सा-कहानी के कारण बैठकें जमने लगीं। आल्हखंड, भरथरी, सारंगा आदि की स्वर-लहरियाँ गूँजने लगीं। मंदिरों का निर्माण होने लगा, रामायण पाठ होने लगे, आल्हा की बैठकें जमने लगीं और साथ ही धार्मिक अनुष्ठान भी होने लगे। धर्म प्रचार हेतु ब्राह्मण-पुरोहित आगे बढ़े, पुरुषों और महिलाओं की मंडलियाँ गाँव-गाँव में बनने लगीं और फिर राम-नवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, दीवाली आदि त्यौहारों का समय-समय पर आयोजन होने लगा, बैठकें जमने लगीं।

धार्मिक पर्वों और उत्सवों की अभिवृद्धि के साथ-साथ, राष्ट्र के अनेक इलाकों में रामलीला और दशहरा का भी आयोजन होने लगा। रामायण, प्रेम सागर, विश्राम सागर, आल्हखंड जैसे ग्रंथों ने जहाँ हिंदी भाषा को बनाए रखने की प्रेरणा देने लगे वहीं औपचारिक रूप से हिंदी पढ़ने-पढ़ाने के प्रति भी प्रबुद्ध-समुदाय का ध्यान खींचा। प्रायः सभी भारतीय पाठशालाओं में पढ़ाने का माध्यम हिंदी ही बनी और वर्षों पर्यंत चौथी कक्षा तक इन पाठशालाओं में हिंदी ही शिक्षण का माध्यम रही।

हिंदी की स्थापना में बहुत से लोगों ने हाथ दिया। कई पढ़े-लिखे हिंदी-प्रेमी अपनी रचनाएँ भी हिंदी में करने लगे और जैसे-तैसे उनके प्रकाशन की भी व्यवस्था होने लगी। स्वाभाविक ही था इस प्रवाह को सुनियोजित एवं व्यवस्थित करने के लिए तथा स्थानीय लोगों के उत्साहवर्धन के लिए हिंदी-प्रेस और हिंदी समाचार पत्रों को बढ़ावा दिया जाए। जागृति, फीजी समाचार, शांतिदूत, प्रशांत समाचार सामने आए। इन समाचार पत्रों के सहारे फुटकर पत्र-पत्रिकाएँ भी प्रकाशित होने लगीं।

काल विभाजन
उद्भवः सन १८७९-१९२० ई.

फीजी में जब १८७९-१९२० तक भारतवर्ष से गन्ने के खेतों तथा चीनी मिलों में काम करने के लिए भारतीय श्रमिक लाए जाते रहे तो वे साधारण जन अपने साथ अपनी भाषा, संस्कृति एवं धर्म लाए। फीजी के लिए श्रमिकों को भारत के विभिन्न प्रांतों से लाकर कलकत्ता से पानी के जहाज़ों द्वारा फीजी लाया जाता रहा। कलकत्ता से आख़िरी बार अपनी मातृभूमि से विदा होने के कारण इन बिछुड़े हुए लोगों को कलकतिया और एक ही जहाज़ में सभी को एक साथ सफ़र करने के कारण जहाजी भाई कहा जाने लगा। कलकतिया एवं जहाजी भाई शब्दों ने फीजी में आए प्रवासी भारतीयों को आत्मीयता के बंधन में बाँध कर और भी क़रीब ला दिया। इनमें से अधिकांश लोग हिंदी बोलते थे, कुछ लोग लिखते-पढ़ते भी रहे इसलिए हिंदी ही प्रवासी भारतीयों की संपर्क भाषा बनी।

फीजी में हिंदी के इस उद्भव काल को गिरमिट काल कहना ज़्यादा समीचीन होगा। यह काल हमारे पूज्य पूर्वजों के लिए उत्पीड़न, शोषण एवं निराशा का काल था। इन्हें इंसान कम, पशु अथवा गुलामों से भी गिरे हुए रूप में औपनिवेशिक मालिकों ने देखा। उनका व्यवहार भी अधिकांशतः अमानुषिक, क्रूर, अत्याचार तथा अन्यायपूर्ण था। तब हिंदी पढ़ना-पढ़ाना बिल्कुल कानून विरोधी माना जाता था। फिर भी अपने को राम जी जैसे वनवासी मानते हुए धर्म की भावना से ओतप्रोत भारतीयों ने अपनी भाषा की ज्योति जलाए रखने का दृढ़ संकल्प लिया। इस बीच दीनबंधु-सी एफ एंड्रूस जैसे अच्छे अंग्रेज़ पादरी भी इस देश में आए और प्रवासी भारतीयों के प्रति गहन संवेदना एवं सहिष्णुता का व्यवहार किया। शिक्षा के क्षेत्र में विशेष बल दिया जाने लगा और लोगों ने तुलसी की रामायण को अपने दामन से बाँधे रखा। जिन लोगों को हनुमान चालीसा, रामायण की चौपाई, कबीर के दोहे याद रहे, साथ ही पूजा-पाठ के कुछ मंत्र, संस्कृत के कुछ श्लोक, ग्राम्य जीवन की कुछ कहावतें, मुहावरे और लोकोक्तियाँ याद रहीं, कबीर, सूर, मीरा, रैदास और तुलसी के भजन-कीर्तन याद रहे और महिलाओं को जो लोक-गीत याद थे उन सभी का इस काल में भरपूर प्रयोग किया गया। दिन भर के कठिन परिश्रम के बाद शाम को अथवा रविवार की छुट्टी के दिन इन्हें जब भी कुछ समय मिलता एकत्रित होकर अपने उक्त ज्ञान एवं स्मृतियों को एक दूसरे को परस्पर सुनते-सुनाते।

विकास कालः
सन १९२१-१९७० ई.

अपने इस विकास काल में हिंदी लगभग पूर्णरूप से प्रवासी भारतीयों की संपर्क भाषा का स्थान ले चुकी थी। औपनिवेशिक अधिकारियों एवं कर्मचारियों को भी भारतीयों को समझने और समझाने के लिए उनकी भाषा सीखनी पडी। यहाँ तक कि बहुत से आदिम निवासी भी कुछ-कुछ हिंदी बोलने और समझने लगे। कालांतर में हिंदुस्तानियों का संपर्क फीजी वासियों और अंग्रेजों से अधिक बढ़ जाने के कारण उनकी भाषाओं के शब्द प्रचुर मात्रा में हिंदी में प्रविष्ट हुए। हिंदी के शब्द समूह में बहुत-से देशज शब्द भी प्रविष्ट हुए। गिरमिट, फुलावा, कंटाप, दरेसी, कम्यर, बेलो जैसे शब्द फीजी में ही पैदा होकर हिंदी में समाहित हो गए।

फीजियन भाषा के तलनवा, डालो, ऊबी, चिकाउ, तानोवा, विनाका, तेईतेई, केरेकेरे, लेंगा, तुई जैसे अनेक शब्दों को हिंदी ने अपने में समाहित कर लिया। अन्य भाषाओं के सपहिया, दरूका, निगोंची, आरकाठी, सलूका, दारू, सुल्लू, उकलोई जैसे सैंकडों शब्द हिंदी का शब्द भंडार भरने लगे।
हिंदी के इस विकास काल में पं. अयोध्या प्रसाद किसानों के नेता के रूप में उभरे। इन्होंने गन्ने के किसानों के लिए किसान संघ बनाकर किसानों की माली हालत सुधारने में बहुत बड़ा योगदान दिया। पंडित जी मात्र किसान नेता ही नहीं थे अपितु हिंदी के एक अच्छे विद्वान भी थे। मैथिली शरण गुप्त की रचना भारत-भारती के द्वारा आपने प्रवासी भारतीयों में एक उत्साह, प्रेरणा तथा नवस्फूर्ति जगाई। हम क्या थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी, जैसी प्रेरक वाणी से उन्होंने लोगों के व्यक्तित्व को जगाया तथा उनकी अपनी पहचान को सुरक्षित करने पर बल दिया।

शर्तबंदी प्रथा से मुक्त होकर प्रवासी भारतीयों ने अपने तथा अपनी पीढ़ियों के भविष्य की चिंता की। उन्हें लगा कि मात्र किसानी कर लेने से, कुछ अच्छे मकान और संपत्ति एकत्रित कर लेने से ही काम नहीं चलेगा, अपितु जीवन को संपन्नता प्रदान करने के लिए विद्या की भी आवश्यकता होगी। पंडित-पुरोहित, किस्सागोई, भजनीक आदि तो जैसे-तैसे हिंदी का प्रचार-प्रसार कर ही रहे थे लेकिन तुलसी रामायण ने लोगों में हिंदी की जान फूँक दी। गाँव-गाँव, बस्ती-बस्ती में रामायण की चौपाइयाँ, सूर-तुलसी के भजन, महिलाओं के मधुर लोक-गीत अब गूँजने लगे थे। वातावरण में सत्यनारायण व्रत कथा, हनुमान-रोठ, सूर्य पुराण भी स्पंदित होने लगे।

आर्य-समाज, सनातन धर्म, ईसाई मतावलंबियों तथा सामाजिक संस्थाओं के द्वारा विद्यालयों की स्थापना होने लगीं। देश के अनेक भागों में इन धार्मिक एवं संगम जैसी सामाजिक संस्थाओं ने इस ओर भारी योगदान दिया। बाद में इस्लामी एवं सिख भाइयों ने भी कुछ विद्यालयों की स्थापना की।

इस युग में पंडित कमला प्रसाद मिश्र जैसे प्रकांड भाषाविद् एवं अद्वितीय कवि का अवतरण हुआ। पंडित जी ने हिंदी, संस्कृत, अंग्रेज़ी, रूसी, फ़ारसी, अरबी और हिब्रू जैसी अनेक भाषाएँ पढ़ीं और उनके साहित्य का अध्ययन किया। फीजी में पंडित जी ही एकमात्र ऐसे महान कवि हुए जिन्होंने उच्च कोटि की हज़ारों कविताओं की रचना की। पंडित जी की कविताएँ छायावाद के महान कवियों के समकक्ष आसानी से रखी जा सकती हैं। पंडित जी की कविताओं ने सिर्फ़ कल्पनाओं में विहार नहीं किया अपितु धरती पर उतर कर यथार्थ का चित्रण करते हुए अनेक व्यंग्य रचनाएँ हमें प्रदान कीं। पंडित जी की कविताएँ छायावादी संस्कार से कभी बँधी नहीं रहीं। उनका काव्य-संसार निरंतर विकासशील रहा इसलिए उनकी काव्य भाषा पर छायावादोत्तर व्यक्तिवादी और प्रगतिवादी कविता के मुहावरे को भी स्पष्ट पहचाना जा सकता है। पंडित जी की अनेक कविताओं में फीजी का प्राकृतिक सौंदर्य शब्दबद्ध है। उसके सुंदर और मनोरम समुद्र-तट, सदाबहार मौसम, दूर-दूर तक फैली हरियाली, नदियाँ और पहाड़ सभी उनकी कविताओं में रूपाकार लेते हैं।

फीजी की मिट्टी की सुगंध से ओत-प्रोत प्रकृति का यह चित्रण उनके राष्ट्र प्रेम का ही द्योतक है। पंडित जी साहित्य रचना के साथ-साथ पत्रकारिता की ओर भी ध्यान रखते रहे। उन्हें लगता था कि फीजी में प्रवासी भारतीयों की अस्मिता की रक्षा के लिए हिंदी पत्रकारिता की भी बड़ी आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति आपके द्वारा संपादित साप्ताहिक रुजागृति और बाद में जय फीजी के प्रकाशन में होती है। जय फीजी के माध्यम से पंडित जी ने फीजी में हिंदी भाषा और साहित्य की ज्योति को निरंतर जलाए रखने का महान गुरु कार्य संपन्न किया। पंडित जी अपने साथ-साथ देश के अनेक लोगों को हिंदी में कविता, कहानी, दोहे, रसिया, चौताल तथा अन्य प्रकार के लोक-गीतों एवं ग्राम्य वार्ताओं को लिखने के लिए प्रेरित करते रहे और लिखवाते भी रहे।

हमारे धार्मिक, सामाजिक, एवं सरकारी विद्यालयों में अन्य विषयों के साथ शनैः शनैः हिंदी भी अपना स्थान बनाने लगी और अब समस्त राष्ट्र में हिंदी की जड़ें सामान्यतः सुदृढ़ हो चली थीं। हिंदी मात्र ग्राम्य संस्कृति की ही भाषा नहीं रही अपितु राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक आदि मंचों की भी भाषा बन गई।

वर्तमान काल
सन १९७० से आज तक

विजय दशमी सन १९७० ई. को ब्रिटिश शासनाधिकार से फीजी स्वतंत्र हो गया। आज ही के दिन प्रथम बार हिंदुओं ने विजय दशमी के साथ-साथ फीजी की स्वतंत्रता धूमधाम से मनाते हुए रामकथा से संबंधित ३० झाँकियाँ और १२ घोड़ों की सवारियाँ राम की सवारी नामक जलूस में निकाली। इन्हीं दिनों हिंदी महापरिषद फीजी की भी स्थापना हुई जिसके प्रमुख संरक्षक नवोदित राष्ट्र के प्रधान मंत्री रातू सर कमिरोसे मारा, संरक्षक प्रतिपक्षी दल के नेता जनाब सद्दीक कोया तथा प्रस्थापक अध्यक्ष हिंदी विद्वान पं. विवेकानंद शर्मा हुए। इसी दशक में नागपुर भारत में प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन भी आयोजित हुआ जिसमें मॉरिशस के साथ-साथ फीजी ने भी बड़ी संख्या में अपना प्रतिनिधित्व प्रदान किया। इसी महा सम्मेलन में मॉरिशस तथा फीजी के ज़ोरदार प्रस्ताव के फलस्वरूप हिंदी यूनेस्को की एक औपचारिक भाषा स्वीकार कर ली गई। इसका अच्छा प्रभाव फीजी के प्रवासी भारतीयों पर भी पड़ा और फीजी में अनेक समाचार पत्र और पत्रिकाएँ उभर कर सामने आईं। इन्हीं दिनों जय फीजी, प्रशांत समाचार, सनातन संदेश और उदयाचल आदि का प्रकाशन आरंभ हुआ। अनेक विद्यालयों में हिंदी एक प्रमुख विषय के रूप में पाठयक्रम में लाई गई। हिंदी की अनेक रचनाएँ प्रकाशित होने लगीं और राष्ट्र कवि पं. कमला प्रसाद मिश्र के साथ-साथ जोगिंन्दर सिंह कंवल, बाबू हरनाम सिंह, ईश्वरी प्रसाद चौधरी तथा अन्य कई हिंदी रचनाकार उभरकर सामने आए।

इन्हीं दिनों पं. विवेकानंद शर्मा जी की भी अनेक रचनाएँ प्रकाशित हुईं जिनमें जब मानवता कराह उठी, प्रशांत की लहरें, प्रधान मंत्री रातू मारा, गुलाब के फूल, फीजी में सनातन धर्म के सौ साल का इतिहास, आदि उल्लेखनीय हैं। आप ही की रचनाएँ विश्वकोश भारतीय संस्कृति, अनजान क्षितिज की ओर, प्रशांत की लहरें (नवीन संस्करण) और फीजी के राष्ट्र कवि पं. कमला प्रसाद मिश्र के काव्य संग्रह ने हिंदी साहित्य की अभिवृद्धि में अपना नाम दर्ज़ कराया।

अभी तक रेडियो फीजी एकमात्र रेडियो स्टेशन था। लेकिन अब नवतरंग, रेडियो फीजी टू और बूला एफ.एम. ९८ हिंदी कार्यक्रम प्रसारित करने के लिए सामने आए। अब तो चौबीसों घंटे हिंदी कार्यक्रम प्रसारित होने लगे हैं। फीजी वन दूरदर्शन भी दिन में एक बार हिंदी में समाचार प्रस्तुत करता है और हर रविवार को झरोखा। समाचार पत्र के रूप में शांति दूत अग्रणी बना रहा और कुछ फुटकर समाचार पत्र भी सामने आए लेकिन अधिक समय तक ठहर न सके।

'संस्कृति एकमात्र निरंतर प्रकाशित होने वाली पत्रिका भी हिंदी साहित्य एवं संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए देश की सेवा के प्रति कटिबद्ध है। संस्कृति के साथ-साथ हिंदी महापरिषद फीजी एक और मासिक बुलेटिन लहर प्रकाशित कर नि:शुल्क वितरित कर रही है।

संस्कृति से साभार

१६ सितंबर २००६

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