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साहित्यिक निबंध

क्रांतिकारी घटना का साक्षी

वह बरगद
-कन्हैयालाल चतुर्वेदी
 


पुणे स्थित कृषि बैंकिग महाविद्यालय के बाहर चाफेकर बंधुओं का स्मारक

पुणे का कृषि बैंकिंग महाविद्यालय देश का एक उत्कृष्ट प्रशिक्षण केंद्र है। भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा संचालित इस प्रशिक्षण संस्थान ने देश विदेश में काफ़ी प्रसिद्धि प्राप्त की है। वहाँ पहुँच कर पाँच अगस्त की सुबह महाविद्यालय परिसर की परिक्रमा के लिए निकला। परिसर के दक्षिण में रिज़र्व बैंक का केंद्रीय अभिलेखागार है। वहाँ से गुज़रते समय एक बरगद के पेड़ पर नज़र पड़ गई। दिखने में तो वह सामान्य-सा ही लगता था, फिर भी उत्सुकता-वश नज़दीक जाकर उसे देखने की इच्छा हो गई। पेड़ के तने के पास ही एक सूचना पट्ट लगा था जिस पर लिखा था-
"यह वट-वृक्ष भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिकारी घटना का साक्षी है। पुणे के तत्कालीन कलेक्टर वाल्टर चार्ल्स रैंड ने प्लेग समिति के प्रमुख के रूप में पुणे स्थित भारतीय लोगों पर बहुत अत्याचार किए। दिनांक २२ जून १८९७ को शहीद दामोदर हरि चाफेकर अपने सहयोगियों के साथ इसी वट-वृक्ष के नीचे घात लगाए बैठे थे। उन्होंने जिस स्थान पर गोली मारकर रैंड की हत्या की, वह स्थान बैंकिंग कृषि महाविद्यालय परिसर के बाहर निकट ही है।"

यह पढ़ते ही पूरा शरीर रोमांचित हो गया। रोमांच, हर्ष, गौरव के भाव एक-एक कर मन में आने लगे। हर्ष और गौरव के भाव इसलिए कि जिस शिखर-संस्थान में मैं कार्यरत हूँ उसने क्रांतिकारियों के एक अनमोल स्मारक को सहेज कर रखा हुआ है। इन भावों के आवेग में गोते लगाते-लगाते मन और मस्तिष्क एकाएक सौ साल पीछे चले गए। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास के पृष्ठ मन-चक्षुओं में पलटे जाने लगे।

दावत की रात वटवृक्ष के नीचे

२२ जून १८९७ की अँधेरी रात को दामोदर हरि चाफेकर, उनके अनुज बालकृष्ण और एक साथी भिड़े इसी वटवृक्ष में छिपे चार्ल्स रैंड की प्रतीक्षा कर रहे थे। आज तो गणेश खिंड मार्ग का पूरा क्षेत्र दूर-दूर तक बसा हुआ है, पर उन दिनों यह एकदम सुनसान था। बरगद से उत्तर में लगभग आधे किलोमीटर की दूरी पर तब के अँग्रेज़ गवर्नर का बंगला बना हुआ था। बंगला रोशनी से जगमगा रहा था। इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया को गद्दी पर बैठे आज ही के दिन साठ साल पूरे हुए थे। अंग्रेज़ी के हुक्म से पूरे देश में उत्सव मनाया गया। गवर्नर के बंगले में भी ख़ास-ख़ास लोगों की दावत थी। रात बारह बजे जश्न ख़त्म हुआ। मेहमान लोग एक-एक कर निकलने लगे।

अंत में एक बग्घी पर पूना का प्लेग-कमिश्नर रैंड सवार हुआ। उसके पीछे एक और बग्घी में लेफ्टिनेंट आर्यस्ट अपनी पत्नी के साथ बैठ गया। रैंड पूना का जिलाधीश भी था, और इसलिए उसकी विशेष बग्घी जानी-पहचानी थी। बंगले के पास ही पेड़ों में दामोदर का एक और साथी छिपा बैठा था। रैंड की बग्घी के चलते ही उसने वहीं से संकेत कर दिया। संकेत मिलते ही क्रांतिकारी चौकन्ने हो गए।

पूना उस समय स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र बना हुआ था। लोकमान्य तिलक की सिंह गर्जना ने पूरे देश और विशेष कर पूना के जन-मानस को उद्वेलित कर रखा था। इसलिए सतारा के उप जिलाधीश चार्ल्स रैंड को पूना में प्लेग-कमिश्नर के नोत लगाया गया। रैंड ने आते ही दमन चक्र शुरू कर दिया। लोगों के घरों की बेवजह तलाशियाँ ली जाने लगी। जिस पर प्लेग का ज़रा भी शक होता, उसे शहर के बाहर तंबुओं में भेज दिया जाता। तंबुओं का वह अस्पताल साक्षात नर्क था। वहाँ जाने से मर जाना लोग ठीक समझते थे। रैंड के गुर्गे किसी भी घर में घुस जाते, जाँच-पड़ताल के नाम पर औरतों-बच्चों पर अत्याचार करते, और घर का सामान लूट ले जाते। पूरे शहर में हाहाकार मच गया।

लोकमान्य तिलक ने अपने अख़बार 'केसरी' में रैंड की इस पाशविकता का जमकर विरोध किया, पर सत्ता के मद में मदमाती सरकार पर कोरे शब्दों का क्या असर होनेवाला था? ताकत के घमंड में बौराए महिषासुरों को तो दुर्गा का रौद्र रूप ही ठीक कर सकता था। पूना के नौजवानों का रक्त उबल रहा था। चाफेकर परिवार के तीन पुत्र दामोदर, बालकृष्ण और वासुदेव भारत की स्वतंत्रता के उपासक और तिलक के अनुयायी थे। उन्होंने अपने घर में ही अखाड़ा खोल रखा था। अखाड़े में बलोपासना के साथ-साथ वे अपने मित्रों को आज़ादी और क्रांति का पाठ भी पढ़ाते थे। चाफेकर बंधुओं को रैंडशाही सहन नहीं हो रही थी। अंग्रेज़ों की उद्दंडता में उन्हें मातृभूमि के अपमान का बोध हो रहा था। इन युवकों ने रैंड और उसके सहयोगी ले आ़र्यस्ट को दंड देने का निश्चय कर लिया।

बरगद की नीचे घात

इसी संकल्प को पूरा करने के लिए रात के अँधेरे में, उस बियावान में गवर्नर की कोठी से कुछ दूर क्रांतिकारी इस बरगद के नीचे रैंड की प्रतीक्षा कर रहे थे। जैसे ही बग्घी नज़दीक आई दामोदर चाफेकर शेर की तरह उछल कर उस पर चढ़ गए। कोई कुछ समझ पाता उसके पहले उन्होंने पिस्तौल की एक गोली रैंड के सीने में उतार दी। पीछेवाली बग्घी पर बालकृष्ण चढ़ गए और एक ही गोली में ले आ़र्यस्ट को यमधाम पहुँचा दिया। आततायियों को दंड दे दामोदर, बालकृष्ण और अन्य क्रांतिकारी रात के अंधेरे में गा़यब हो गए।

दूसरे दिन पूना में सन्नाटा छा गया। चहुँ ओर शांति। सबके मन में हर्ष था, संतोष था। दमन चक्र और तेज़ी से चलने लगा। इस बार पूना की जनता इसके लिए तैयार थी। धर-पकड़ का दौर शुरू हो गया। दिन बीतने लगे। एक महीना बीत गया, किंतु रैंड और आर्यस्ट को दंड देनेवालों का कोई सूराग सरकारी खुफ़िया विभाग को नहीं मिल रहा था। खीझ कर अँग्रेजों ने क्रांतिकारियों की खोज-बीन पर खर्च हुआ सवा लाख रुपया पूना की जनता पर थोप दिया। लोकमान्य ने विरोध किया, उन्हें बंदी बना लिया गया। इसके बाद क्रांतिकारियों की सूचना देने पर बीस हज़ार रुपए का ईनाम घोषित कर दिया गया। सौ साल पहले के बीस हज़ार आज के बीस लाख के बराबर तो रहे ही होंगे।

यह लालच कोई कम नहीं था। चाफेकर भाइयों के ही साथी दो द्रविड भाइयों का मन विचलित हो गया। उन्होंने पुलिस को सूचना दे दामोदर पंत को पकड़वा दिया। मुकदमे का नाटक हुआ तथा १८ अप्रैल १८९८ को यरवड़ा जेल में दामोदर चाफेकर ने फाँसी का फंदा गले से लगा लिया। पर बालकृष्ण अभी भी पुलिस की पकड़ से बाहर थे। अंग्रेज़ों की पुलिस उनकी खोज में निरपराध लोगों पर जुल्म ढा रही थी। इससे व्यथित हो बालकृष्ण ने भी आत्मसमर्पण कर शहादत की ओर कदम बढ़ा दिया। सबसे छोटे वासुदेव ने देखा, कि बड़े भाई तो हुतात्मा हो गए और मझले भी उसी रास्ते पर बढ़ रहे हैं। अपने गद्दार साथियों गणेश शंकर और रामचंद्र द्रविड़ के प्रति उसके मन में क्रोध उमड़ पड़ा। उसने इन देश-द्रोहियों को सज़ा देने का निश्चय कर लिया। सब कुछ सोचकर वह अपनी माता के पास पहुँचा, और उनके पैर छूकर बोला,
"दोनों बड़े भाई तो देश के काम आ गए, अब मुझे भी आज्ञा दो।"

उस माँ का एक बेटा शहीद हो चुका था, दूसरा भी बलिदान के पथ पर चल चुका था और अब तीसरा बेटा भी उसी राह पर जाने की आज्ञा मांग रहा था। फिर भी वह हिचकिचायी नहीं, आखिरी पुत्र को भी आशीर्वाद देते हुए, उसने कहा, "जा बेटा जा, देश की सेवा से बढ़कर दूसरा कोई काम नहीं है।"

वेश बदलकर हमला

माँ का आशीर्वाद ले वासुदेव अपने मित्र महादेव रानडे के साथ वेश बदलकर द्रविड भाइयों के घर पहुँच गया। घर के दरवाज़े से उसने कहा, "चलो, तुम्हें थानेदार ने ईनाम की रकम लेने थाने बुलाया है।" दोनों लालची देशद्रोही जैसे ही घर के बाहर निकले, वासुदेव ने उन्हें अपनी पिस्तौल से देशद्रोह की पूरी सज़ा दे दी। इसके बाद वासुदेव और रानडे भी बंदी बना लिए गए। फिर मुकदमे का नाटक हुआ और पुन: हौतात्म्य का पुरस्कार वासुदेव और महादेव को मिला। पूना की जेल में ८ मई को वासुदेव चाफेकर और १० मई १८९९ को महादेव रानडे को फाँसी हो गई। इसी जेल में १६ मई को बालकृष्ण को फाँसी हुई। वहाँ अंग्रेज़ों द्वारा सौ साल पहले का बनाया हुआ स्मारक आज भी मौजूद है। पूना के एक प्रमुख मार्ग पर स्थित होने के बावजूद यह स्मारक अपने दुर्दिन देख रहा है।

१६ अगस्त २००६

  
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