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निबंध

1प्रवासियों में हिंदी साहित्यः दशा और दिशा
सुषम बेदी

इस लेख के शीर्षक के दो पहलू है... एक तो प्रवासियों में हिंदी साहित्य का पठन-पाठन और दूसरा रचना - कर्म। पहला पहलू बहुत महत्त्वपूर्ण है और अच्छा साहित्य किस तरह यहाँ के लोगों तक पहुँचाया जाए, किस तरह उसको उपलब्ध कराया जाए, यह एक बड़ी समस्या है हमारे लिए। यह सच है कि जिन लोगों को रुचि है ही वे भारत से मँगवा लेते हैं या आते-जाते अपने और दोस्तों के लिए ले आते हैं। पर यहाँ भारतीय माल को बेचनेवाले अगर साहित्य की पुस्तकें भी उपलब्ध करा सके तो यह सवाल हमेशा माँग और बिक्री के सवाल से जोड़ दिया जाता है और बात जहाँ की तहाँ रह जाती है।

कुछेक सवाल जिन पर विचार ज़रूरी है उनमें पहला सवाल यह है कि क्या ऐसा वक्त आ गया है कि भारत से बाहर लिखे हिंदी साहित्य को गंभीरता से लिया जाए और उस पर बात की जाए?  जिस तरह बाहर लिखे जा रहे अंग्रेज़ी लेखन पर बातचीत होती है वैसा हिंदी के साथ नहीं हुआ, बल्कि ज़्यादातर जब हिंदी नव लेखन की चर्चा होती है तो उसमें भारत में रह रहे लेखकों को ही गिना जाता है। अभी हाल ही में ''दस्तावेज़'' में महिला लेखिकाओं पर लेख पढ़ ही थी जिसमें ऐसे लेखकों का भी उल्लेख है जिनकी एकाध किताब ही छपी है पर बाहर लिखने वाले किसी लेखक की चर्चा नहीं है, जबकि बाहर रहने के बाद जो भारत लौट कर फिर से वही जम गए हैं, ऐसे लेखकों का उल्लेख बाकायदा है।

चर्चा न होने के कई कारण हो सकते हैं-
या तो प्रवासियों के हिंदी लेखकों के आस्तित्व से या तो लेखक अनभिज्ञ है या वह उसे महत्त्वपूर्ण नहीं मानता कि उसका उल्लेख किया जाए या फिर वह उसे हिंदी साहित्य का हिस्सा ही नहीं मानता। यों तो मैं हमेशा यह कहती रही हूँ कि लेखन के महत्व से ही लेखक का महत्व होगा पर अगर उसका कोई पाठक ही न हो तो यह भी कैसे साबित होगा कि वह लेखन महत्वपूर्ण है या नहीं? पिछले महीने जब मैं लंदन में थी तो इसी विषय पर एक गोष्ठी में गौतम सचदेव ने एक लेख पढ़ा जिसकी मुख्य स्थापना यही थी कि बाहर लिखा जाने वाला सारा साहित्य हाशिये पर ही है। उसका हिंदी के मुख्यधारा लेखन में कोई स्थान नहीं है। मज़ेदार बात यह थी कि जहाँ मैं खुद उनसे कहीं सहमत-सी ही हो रही थी पर लंदन के बाकी साहित्यकार जो उस गोष्ठी में मौजूद थे सभी ने इसका विरोध किया और यह भी सच है कि आशावाद के अलावा उनके पास इस विरोध को संपुष्ट करने के लिए ठोस तर्क नहीं थे। यह भी कहा गया कि ज़्यादातर लेखक बहुत घिसापिटा लिख रहे है। कुछ नया नहीं दे रहे जिस वजह से बाहर लिखे जा रहे साहित्य को कोई प्रमुखता दी जाए। देखा जाए तो कुछ लोग घिसापिटा ज़रूर लिख रहे है पर ऐसे भी बहुत से है जो नई भावभूमियों को तलाश रहे हैं और अपने स्थान और परिवेश से जुड़े नए संदर्भों के माध्यम से उन्हें वाणी दे रहे है इनमें मुख्य नाम है सत्येंद्र श्रीवास्तव, अचला शर्मा, दिव्या माथुर, शालिग्राम शुक्ल। मैं यहाँ मुख्यतः अमरीका-यूरोप के संदर्भ में ही बात कर रही हूँ जो कि अप्रवासियों की नई भूमियाँ हैं। यहीं से ज़्यादा लिखनेवाले निकल रहे हैं।

यह भी कहा गया कि ज़्यादातर लोग छिटपुट कविता लिखते हैं क्यों कि कविता लिखने में समय नहीं लगता या कविता लिखनी आसान है और कथा साहित्य नहीं लिखा जा रहा जो कि किसी भी साहित्य की ठोस संपत्ति होती है। यह सच है कि ज़्यादा कविताएँ लिखी जा रही हैं पर मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि कविता बैठे ठाले ही लिख ली जाती है अलबत्ता यह सच ज़रूर है कि आपाधापी के जीवन में कविता की फ़ुरसत जहाँ निकाली जा सकती है वहाँ कथा लेखन अधिक समय और नैरंतर्य की माँग करता है। अब सवाल यह है कि कथा साहित्य क्यों नहीं लिखा जा रहा? या अगर लिखा जा रहा है तो इतनी नगण्य मात्रा में क्यों?  इसकी वजह क्या है। आखिर अंग्रेज़ी में तो उपन्यास लिखे गए हैं। हम हिंदी-हिंदी की बात करते रहते हैं पर सचमुच इसका जवाब खोजना चाहिए कि उपन्यास सिवाय एक दो लेखकों के और किसी ने नहीं लिखा? उषा प्रियंवदा का 'शेषयात्रा' या इंग्लैंड की पृष्ठभूमि पर लिखे महेंद्र भल्ला के दो उपन्यास मुझे याद है पर वे दोनों लेखक भी अपने भारतीय कथानक वाले उपन्यासों से ज़्यादा मशहूर हुए।

क्या इसकी वजह यह है कि हिंदी के पाठकों में यहाँ की कहानियाँ पढ़ने में रुचि नहीं? या कथासाहित्य के पाठक ही नहीं? पर यह बात भी मैं सच नहीं मानती क्यों कि एक पाठिका के रुप में सोमवीरा की कहानियाँ को अमरीका आने से बहुत पहले पढ़ चुकी थी। मेरे दुसरे मित्रों ने भी पढ़ा था और इसी तरह जब मेरा पहला उपन्यास 'हवन' धारावाहिक के रूप से भारत की पत्रिका में छपा तो ढेरो पाठकों के पत्र उनकी रुचि का प्रमाण बन मुझ तर पहुँचते रहते थे और आज तक जब कहानियाँ उपन्यास वहाँ की पत्रिकाओं में प्रकाशित होते हैं तो उनके पत्र हमेशा पहुँचते रहते हैं।

एक बात इस विषय में यह भी कही जाती है (और बी.बी.सी. के प्रोड्यूसर अरुण अस्थाना ने गोष्ठी में इस पर ख़ास ज़ोर दिया और बाद में इसी से ज़ुड़ा सवाल भी मुझसे एक इंटरव्यू में पूछा) कि हिंदी उपन्यासों का कोई बाज़ार नहीं है और ज़रूरी है कि यह बाज़ार तैयार किया जाए। ख़ासकर आज के ज़माने में जबकि सारी बिक्री विज्ञापन और प्रचार पर निर्भर करती है। हिंदी में इस तरह एक बहुत साधारण उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' के भारी भरकम आकार के बावजूद प्रचार और चर्चा के माध्यम से बाज़ार बनाया गया था और इसी तरह कुछ और किताबों के साथ भी हो रहा है। हम सब यह भी जानते हैं कि अंग्रेज़ी के ऐसे बहुत से उपन्यासों के लिए बाज़ार तैयार किया जाता है। ज़्यादातर हिंदी लेखन-समाज बाज़ारवाद को बहुत घिनौनी चीज़ मानता है लेकिन यह भी सच है कि आज के समाज में लेखकों की भीड़ इतनी बढ़ गई है कि बिना पहचान के अच्छा लेखक और साहित्य खो सकता है और संभव है कि वह कभी पाठकों के सामने न आ पाए सिर्फ़ इस वजह से कि उसका प्रचार काफी नहीं हुआ। ख़ास तब जबकि फिल्म और टीवी जैसे माध्यम जो कि दर्शक तक अपेक्षाकृत कहीं ज़्यादा आसानी से पहुँचे रहते हैं, साहित्य दूर की वस्तु होता जा रहा है और अंग्रेज़ी के भूमंडलीकरण के बाद हिंदी और दूसरी भाषाओं का साहित्य तो और भी परे होता जा रहा है! तभी यह ज़रूरी है कि जो पाठक है उन्हें खोया न जाए और साथ ही नया पाठक वर्ग भी बनता रहे।

क्या बाज़ार नहीं है इसीलिए अमरीकी भारतीय भी साहित्य कर्म से दूर भाग रहे हैं? क्या अगर हिंदी का भी बाज़ार हो तो बहुत से लेखक और पाठक रातोरात पैदा हो जाएँगे? यह सच है कि अंग्रेज़ी का बाज़ार है तो इस भाषा का लेखक तो धडल्ले से पैदा हो रहे हैं और बहुत से हिंदी भाषी भी अंग्रेज़ी साहित्य से नाता जोड़े रखना चाहते हैं क्यों कि सब तरफ़ उसी को बोलबाला है। विजेता के पीछे-पीछे चल देना बहुत साधारण बात है। बहुत से लोग मुझसे भी यही पूछते हैं कि मैं अंग्रेज़ी में क्यों नहीं लिखती जैसे कि हिंदी में लिखना तो फालतू का काम हो!

ख़ैर, चूँकि मेरा अपना माध्यम उपन्यास ही रहा है इसलिए अपने एक अनुभव की चर्चा यहाँ ज़रूर करना चाहूँगी-
मुझे याद है कि यहाँ आने के कुछ साल बाद जब कि मैं अरसे तक उपन्यास लिखने की बात सोचती रहती थी पर सिवा डायरी में नोटस लिखने के और कुछ नहीं कर पाई थी, यहाँ तक कि एक बार मैंने एक मोटी-सी नोटबुक ख़रीद के उस पर उपन्यास लिखना शुरू भी कर दिया। मैं उन दिनों न्यूयार्क सिटी के एक दफ्तर में काम कर रही थी। खाने की छुट्टी के वक्त मैं कॉपी सामने रखकर सैंडविच कुतरते-कुतरते कुछ लिखना शुरू कर देती। कई बार तो दिमाग़ इतना उत्तेजित होकर दौड़ने लगता कि मन होता लिखती ही रहूँ और तभी लंच की घंटे की पाबंदी सारी रफ़्तार पर ब्रेक लगाती और मुझे सब छोड़छाड़ कर लौटना पड़ा। मैंने यहाँ तक कोशिश की कि जब दफ्तर के प्रोजेक्टस के लिए लिखना होता तो मन में कुछ उभरता और मैं डेस्क कैलेंडर पर ही कुछ हिंदी में घसीट देती। अक्सर सहयोगी मेरे कैलेंडर पर यह नोटस देख कर कुछ टीका भी करते तो मैं कह देती, 'पर्सनल नोटस' है। फिर वीकैंड पर सोचती कि कुछ सिलसिलोवार तरीके से लिखूँ पर वही घर, काम की थकान, वीकैंड पर घूमने-घामने का ब्रेक लेना और उपन्यास वही का वही धरा रह जाता है। पाँच-छह शुरू के सफों के अलावा वह आगे कभी बढ़ ही न पाता। ऐसे सालोंसाल गुज़रने लगे। बच्चे बड़े हो रहे थे। दिनभर स्कूल रहते और मुझे भीतर बहुत बेचैनी होती कि उनके बड़े होने का तो इंतज़ार था और अभी भी मेरा उपन्यास अनलिखा है।

फिर एक दिन मैंने मेरे पति से कहा था कि मुझे अमीर बनने का शौक नहीं, मैं कम पैसे में गुज़ारा कर सकती हूँ पर मैं अपनी नौकरी छोड़ना चाहती हूँ और लग कर लेखन करना चाहती हूँ। ख़ासकर के जब मैंने पैंतीस की उम्र पार कर ली तो यह हड़बड़ी ख़ासी हलचल मचाती रहती थी। अगर मैं कहूँ कि हममें से बहुत से लिखनेवाले या संभावित लेखकों की यहाँ के माहौल में लगभग यही कहानी होती है। किसी में पैशन बहुत ज़बरदस्त होता है और वह इस तरह का असरदार कदम उठा लेता है और कोई अपनी अंदरूनी ज़रूरत को दूसरे सामाजिक, आर्थिक दबावों के तले कुचल जाने देता है।

यह भी सच है कि यह नौकरी छोड़ने का काम भारतीय औरत के लिए पुरुष के बजाय कहीं ज़्यादा आसान है क्यों कि मनोवैज्ञानिक तौर पर कमाई का बोझ उस पर होता भी नहीं। पर अमरीका का संपन्नता जैसा स्वप्न पाल कर लोग रहना चाहते हैं उससे मन को मुक्त करना भी लिखने के लिए बहुत ज़रूरी है! मैं लोगों को नौकरी छोड़ने की बात नहीं कह रही पर कहने का आशय यही है कि लेखन की प्रक्रिया बहुत लंबी है और एक उम्र के सालोंसाल लगभग सारी उम्र उसी में लगानी बहुत ज़रूरी होती है और जो अपनी उम्र दाँव पर न लगा सके उनको सृजनात्मक लेखन में आने का कष्ट नहीं उठाना चाहिए।

यह भी सच है कि दूसरी व्यस्तताओं के साथ भी लोग लिखना चला लेते हैं पर तो उस लेखन में गहराई होती है न ही वह लेखन कोई बहुत दूर ले जाने वाला हो सकता है। जल्दबाज़ी में किया गया पत्रकारिता जैसा काम साहित्य नहीं बनाता। क्या इसकी वजह यहाँ के जीवन की व्यस्तता है कि लोग यहाँ सिर्फ़ कमाने के लिए आए हैं। संपन्नता और दूसरी ऐसी ही महत्त्वाकांक्षाएँ पूरी करने आए है इसलिए उनको साहित्य सेवा की फ़ुरसत नहीं मिलती?
क्या यह जायज़ वजह हो सकती है?

इंग्लैंड में शायद इसी का जवाब देने के लिए एकाध कहानी संग्रह निकाले गए हैं। यहाँ भी धनंजय कुमार, गुलशन मधुर और मधु महेश्वरी ने कथा साहित्य को जुटाने का काम शुरू किया है लेकिन अभी सब बालपन में ही हैं? मैं यह नहीं मानती कि यहाँ लेखन प्रतिभा नहीं, यह ज़रूर सोच सकती हूँ कि जिनमें प्रतिभा है वे उसे हिंदी में लिखने में जाया नहीं करना चाहते और भरसक अंग्रेज़ी में लिखने की कोशिश करते हैं या वे अपनी लेखन प्रतिभा को दूसरी दिशाओं में मोड़ देते हैं... पत्रकारिता, विज्ञापन फ़िल्म, टेलीविजन इत्यादि दूसरे व्यवसायों में... किसी भी भाषा को अगर अनादि काल तक जीवित रहना है तो साहित्य के कंधे पर चढ़ के ही, इसलिए साहित्य सेवियों की इस देश में हमें बहुत ज़रूरत है।

३० जुलाई के न्यूयार्क टाईम्स में छपे एक लेख में अंग्रेज़ी लेखक शशि थरूर ने अंग्रेज़ी के लेखन की पुरज़ोर हिमायत करते हुए कहा कि अंग्रेज़ी भारत के दो प्रतिशत लोगों की भाषा है। इसलिए उसमें लिखना और लिखा हुआ भारतीय और जायज़ है। अब सोचिए कि दो प्रतिशत लोगों का अनुभव तो वाणी पा रहा है और उसका चर्चा भी है और हिंदी जो कम से कम ४० प्रतिशत लोगों की भाषा है उनके जीवन और अनुभवों को भी तो स्वर मिलना चाहिए और उनको वाणी देने वाले हमी हिंदी भाषी है जो कि साहित्य कर्म को जीवन का महत्त्वपूर्ण कर्म न मानकर उसे सबसे पीछे धकेले जा रहे हैं और न तो भारत में रचा साहित्य पढ़ते है न ही यहाँ रचा जाने वाला और न उसके रचना कर्म की ओर प्रवृत्त होते हैं।

बहुत ज़रूरी है कि हम अपने घेरे में छोटे-छोटे साहित्य मंडल बनाए जिनमें हिंदी पढ़ने और लिखने वाले आपस में साहित्य चर्चा करे। इस तरह साहित्य रचना को भी बढ़ावा मिलेगा और हमीं में से बहुत से जिनमें दबी-छिपी रचना-प्रतिभा है वह उभर कर बाहर आएगी। इसी रचना प्रतिभा को बढ़ावा देने के लिए हमने कॉलेजों में एक हिंदी कथा प्रतियोगिता की योजना बनाई है और उस प्रतियोगिता की तैयारी के लिए कहानी कार्यशाला भी नियमित रूप से करने का फैसला किया है। हमारी ऐसी पहली कार्यशाला अक्तूबर में है। यह भी सच है कि हर कोई न तो साहित्य में रुचि ले सकता है न ही साहित्य हर किसी के मर्म को छूता है लेकिन संवेदनशील प्राणी के मन और आत्मा की खुराक साहित्य ही बन सकता है। अगर कोई अपनी स्थिति, अपने हालात से पूरी तरह संतुष्ट हैं तो सचमुच उसे साहित्य की दरकार नहीं लेकिन जहाँ तक मैं समझती हूँ आवासी आत्माएँ तो खोज में तल्लीन हमेशा असंतुष्ट, हमेशा गतिमान है इसलिए साहित्य की समृद्धि हमारे लिए अनिवार्यता हो गई है।

एक बार मैं शिकागो में आयोजित एक गोष्ठी में अपने उपन्यास ''लौटना' से एक अंश पढ़ रही थी जो लौटने के दर्शन और उसके प्रति मेरी मुख्य पात्र मीरा की भावात्मक प्रतिक्रिया के बारे में था। दर्शकों में एक जानेमाने इंजीनियर (सैम पित्रोदा) भी थे जिन्होंने टिप्पणी की कि आज जबकि भारत में आना-जाना इतना सहज हो गया है यह लौटने की बात क्या मात्र भावुकता नहीं है? मैं उनकी साहित्यिक संवेदनशीलता का मज़ाक नहीं बनाना चाहूँगी पर क्या भावना के स्तर पर हम सभी उन अनुभूतियों से नहीं गुज़रते जिनकी हम बात नहीं करना चाहते, या जिन्हें अपने जागृत जीवन में हम कभी छूना नहीं चाहते, भुला देना चाहते हैं, बेमतलब या अत्यधिक पीड़ादायक मान दूर धकेल देते हैं! क्या ऐसी ही भूली हुई, ठुकराई हुई, दबी-छिपी अनुभूतियों से साहित्य हमारा सामना जब कराता है तो उसका आस्वादन, उसकी स्मृति, उसका छूना हमें आपने आपके, अपने आत्म के, अपने भीतरी जगत के कहीं बहुत करीब नहीं ला देता? यह करीब लाना आह्लाद तो देगा ही, न भी दे तो भी हमें बेहतर इंसान ज़रूर बनाएगा। ऐसा इंसान जो अपने साथ-साथ दूसरों के भीतरी जगत का भी पता रखता है और इंसानी हमदर्दी के काबिल है। इस बेहतर इंसान की पहचान और उस तक पहुँचना ही साहित्य का अंतिम लक्ष्य है जो किसी भी भाषा के साहित्य के होने का अर्थ देता है। वह बेहतर इंसान उस बेहतर समाज को रचता है जो उस भाषा और साहित्य को प्रश्रय देते हैं!

किसी भी भूगोलबद्ध समाज में इंसान, समाज, भाषा और साहित्य के ये रिश्ते हमें विरासत में मिलते हैं लेकिन प्रवासियों में ये रिश्ते हमें खुद बुनने हैं। हम पहली-दूसरी पीढ़ी के सदस्यों को ही उस विकासशील प्रवासियों साहित्य समाज की सशक्त नींव रखनी है।

१५ सितंबर २००८

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