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साहित्यिक निबंध

 

अनंत काल में एक वर्ष का अर्थ
डा. सुभाष राय
 


समय की सत्ता अखंड और अनंत है। वही सम्पूर्ण सृष्टि का, सम्पूर्ण ब्रह्मांड का सर्जक है, नियामक भी है। वह न कभी शुरू हुआ, न कभी खत्म होगा। वह न चलता है, न रुकता है, न जाता है, न आता है। वही सर्जक है, पालक है और उसी के भीतर सब कुछ पैदा हो रहा है, लय हो रहा है। इन्ही अर्थों में समय ही ईश्वर है, खुदा है, गाड है। वह रेत में नदी बहा सकता है, नदी के गर्भ से पहाड़ को खड़ा कर सकता है और हर असम्भव को सम्भव कर सकता है। मनुष्य की दृष्टि इस परम विस्तार को पकड़ नहीं सकती। कोई भी जीवन निरपेक्ष सत्ता की तरह स्थित नहीं हो सकता। मनुष्य भी नहीं। अपनी इसी सापेक्ष जीवन गति के कारण मनुष्य को समय के भीतर घटित हो रहीं अनगिनत घटनाओं को समझने और उनकी व्याख्या करने के लिये समय को बाँटकर देखने की जरूरत पड़ती है।

इसी जरूरत ने पहले समय को भूत, वर्तमान और भविष्य के टुकड़ों में देखा और फिर उसकी और छोटी इकाइयां भी बना डालीं। भारतीय पुरा साहित्य में समय के इस विभाजन का विस्तृत विवरण उपलब्ध है। पल से चलकर घंटा, दिन, सप्ताह, माह, वर्ष, दशक, शती और इसी तरह युग-युगाब्द की कल्पना भी की गयी। वर्ष मनुष्य के जीवन को मापने का सबसे महत्वपूर्ण मानक काल-खंड समझा गया। भारत में तो मनुष्य की औसत उम्र शतवर्ष मानकर उसे ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास के २५-२५ वर्षों में विभाजित किया गया। इसीलिये आज भी लोगों को जन्मदिन पर जीवेत शरदः शतम की शुभकामना देने की परम्परा है। इसी अर्थ में हमारे जीवन में एक वर्ष का समय हमारी उपलब्धियों के मूल्यांकन के लिये बहुत महत्व रखता है। हर नया वर्ष हमें, हमारे समाज को, हमारे राष्ट्र को और समूची दुनिया को अपनी पिछले वर्ष की कामयाबियों, नाकामयाबियों के बारे में चिंतन का अवसर देता है और अगले वर्ष के लिये अपने नये लक्ष्य निश्चित करने का मौका देता है।

सम्भवतः इसी नजरिये ने आदमी को नववर्ष मनाने की प्रेरणा दी होगी। यह परम्परा प्रागैतिहासिक काल से चली आ रही है। दुनिया भर के तमाम समाजों, जातियों और समुदायों, सम्प्रदायों में अलग-अलग ढंग से, अलग-अलग तिथियों, महीनों में नववर्ष मनाने की परम्परा है। सांस्कृतिक दृष्टि से पृथक-पृथक समूहों में नववर्ष के महत्व को लेकर अनेक मिथकीय कथायें प्रचलित हैं। सदियों से चले आ रहे कुछ विश्वास भी हैं और कुछ अन्धविश्वास भी। यद्यपि अब दुनिया के बड़े हिस्से में नये साल की शुरुआत एक जनवरी से मानी जाती है और इसे नाते हर साल ३१ दिसम्बर की अर्धरात्रि को जीवन में नववर्ष का प्रवेश होना स्वीकार किया जाता है लेकिन इसके बावजूद अनेक छोटे देशों और जातीय अस्मिताओं वाले समाजों में आज भी वर्ष के अलग-अलग महीनों में नववर्ष मनाने की परम्परा है। स्थानीय किंतु प्राचीन परम्पराओं और विश्वासों में सदियों से बँधे होने के कारण वे ऐसा करते हैं। ईरानी और बहावी नववर्ष २१ मार्च को, नेपाली, सिंहल और थाई १४ अप्रैल को, पारसी २३ अप्रैल को, मोरक्कन ३ अक्टूबर को, वियतनामी १७ जनवरी को, केल्टिक २१ जनवरी को और मिस्र में यह ७ जनवरी को मनाया जाता है। इस्लामी देश इस्लामी कैलेंडर के अनुसार अपना नया साल मुहर्रम माह की पहली तिथि को मनाते हैं। उनकी परम्परा में नववर्ष मनाते समय बहुत हल्ला-हंगामा और उत्सव नहीं किया जाता। बहुत सौम्य तरीके से खुदा की इबादत, गरीबों की मदद और मेल-मुलाकात के साथ नया साल मनाया जाता है। हर साल यह तिथि बदलती रहती है।

इसी तरह हिन्दुओं का नववर्ष चैत्र माह के प्रथम दिन वर्ष प्रतिपदा को पड़ता है। पारम्परिक हिन्दू कैलेंडर विक्रम सम्वत के अनुसार चलता है। यह महाराज विक्रमादित्य की शक साम्राज्य पर विजय का प्रतीक पर्व है। एक पौराणिक कथा के अनुसार राजा गर्दभिला ने जैन संत कालकाचार्य की बहन सरस्वती का अपहरण कर लिया। असहाय संत ने शक शासकों की मदद ली। शकों ने गर्दभिला को पराजित कर बन्धक बना लिया और सरस्वती को मुक्त करा कर कालकाचार्य को सौंप दिया। बाद में गर्दभिला को भी माफी दे दी गयी और वे मुक्ति के बाद सन्यास लेकर जंगल में चले गये, जहाँ उन्हें शेर ने मार डाला। उनके पुत्र विक्रमादित्य ने बाद में अपनी सेना संगठित कर उज्जैन पर धावा बोल दिया और शकों को मार भगाया। इस विजय पर्व पर उन्होंने अपने नाम से विक्रम सम्वत चलाने की घोषणा की। यह समय ईसा से ५७ साल पूर्व का था। इस तरह हिन्दुओं का नववर्ष विजय पर्व की तरह मनाया जाता है। हिन्दुस्तान के अलग-अलग राज्य इसे अपनी परम्पराओं से जोड़कर मनाते हैं। असम में यह पर्व बीहू के नाम से, केरल और तमिलनादु में विशु के नाम से, महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा के नाम से और पंजाब में बैसाखी के नाम से मनाया जाता है। उत्तर भारत में यह नयी फसल के त्योहार के रूप में आता है। गुजरात और पश्चिम बंगाल अक्टूबर में दीवाली से जोड़कर नया साल मनाते हैं। बौद्ध और जैन मतावलम्बी क्रमशः बुद्ध पूर्णिमा और भगवान महावीर की मोक्ष तिथि को इस रूप में मनाते हैं।

नववर्ष को लेकर इन मत-मतांतरों के बावजूद आधुनिक विश्व के विशालतम भाग में अब ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार एक जनवरी को ही नया साल के रूप में धूम-धाम से मनाने की परम्परा प्रचलित है। पहले प्राचीन रोमन युग में एक मार्च को और यूरोप में भी ईसा के जन्म दिन २५ दिसम्बर को नववर्ष के रूप में मनाया जाता था। रोमन माइथोलोजी में जेनुस द्वार का, आरम्भ और अंत का, परिवर्तन का देवता था। उसके दो मुंह थे, दोनों विपरीत दिशा में। शनि ने उसे भूत और भविष्य को देख सकने का वरदान दिया था। जेनुस और जेना युगल की रोमन लोग सूर्य और चांद की तरह पूजा किया करते थे। न्यूमा के शासनकाल में रोमन कैलेंडर के पहले महीने का नाम जेनुस के नाम पर ही जनवरी रखा गया। रोमन लोगों ने ही सबसे पहले ईसा से १५३ वर्ष पूर्व एक जनवरी को नये वर्ष के रूप में मनाना आरम्भ किया। जुलियस सीजर ने ईसा पूर्व ४६ में इसकी आधिकारिक मान्यता की घोषणा की। इसके बाद भी दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग तिथियों, महीनों में नया साल मनाने की परम्परा जारी रही। १५८२ में पोप ग्रेगोरी १२वें ने जुलियन कैलेंडर को खत्म करके नये कैलेंडर को मान्यता दी, जो उन्हीं के नाम पर ग्रेगोरियन कैलेंडर के नाम से जाना गया। कैथलिक देशों ने इसे जल्द स्वीकार कर लिया लेकिन प्रोटेस्टेंट्स को इसे मानने में थोड़ा वक्त लगा। जर्मनी ने १७०० में, ब्रिटेन ने १७५२ में, स्वीडेन ने १७५३ में, जापान ने १८७३ में और चीन ने इसे १९१२ में स्वीकार कर लिया। अब इसे व्यापक मान्यता प्राप्त है और इसी के मुताबिक एक जनवरी को नववर्ष मनाया जाता है।

वैसे तो हर नये वर्ष के साथ जीवन की आयु घट जाती है पर मनुष्य स्वभाव से आशावादी होने के कारण नये सपने बुनता है और भविष्य की ओर देखता है। हर नये साल की पूर्वसन्ध्या पर सभी लोग व्यक्तिगत, सामाजिक और राष्ट्रीय सन्दर्भ में गुजरते हुए साल को अलविदा करने की तैयारियों के साथ पिछले एक वर्ष के दौरान अपनी सफलताओं, असफलताओं, उपलब्धियों और गलतियों की समीक्षा करते हैं और नये साल में पिछली भूलों, त्रुटियों और भटकावों से बचकर सुख, समृद्धि, शांति, वैभव एवं सफलता की नयी मंजिल हासिल करने के लिये संकल्पबद्ध होते हैं। पूरी दुनिया अतिशय उल्लास के साथ नववर्ष का स्वागत करती है। अपने विश्वासों, अपनी परम्पराओं के अनुसार लोग अपने घरों, कार्यालयों को साफ-सुथरा करते हैं, रौशनी करते हैं। नये कपड़े, फूल, पकवान और फल की सुगन्ध से घर महक उठता है।

३१ दिसम्बर की आधी रात ठीक १२ बजे रंग-बिरंगे चमकते बारूदी फूलों की बौछार से आसमान जगमगा उठता है। वेटिकन में पोप दुनिया को शांति, सद्भाव और सहजीवन का सन्देश देते हैं। पूरी दुनिया उत्सवाकार हो उठती है। लोग एक दूसरे को नववर्ष की मंगलकामनाएं देते हैं। एक नयी और प्रगतिशील दुनिया रचने के समवेत संकल्प के साथ कई दिनों तक यह उत्सव चलता रहता है। आइये इस नये वर्ष में हम सब एक सुरक्षित, सम्वेदंनशील, शांतिकामी और प्रगतिकाम विश्व की पुनर्रचना का संकल्प लें, उम्मीद करें कि अपनी धरती के प्रति हम सभी और ज्यादा ममत्व प्रदर्शित करेंगे, जल और पादप जीवन की रक्षा के लिये सतत सन्नद्ध रहेंगे, प्रकृति के साथ सहअस्तित्व की भावना से व्यवहार करेंगे ताकि यह पृथ्वी मनुष्य को अपनी अजस्र ममता सौंप सके।

३ जनवरी २०१०

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