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गोपाल सिंह नेपाली की गीत साधना
- भारतेन्दु मिश्र

बड़ा कवि वही होता है जिसका संघर्ष बड़ा होता है। जिसकी कविताओं में उसके समय की सच्चाई परिलक्षित होती है और जो अपने समय को दिशा दे सकता हो। बीसवीं सदी में दुनिया भर में बहुत तेजी से परिवर्तन हो रहे थे। तमाम देश इसी सदी में स्वतंत्र हुए। जैसे-जैसे देश स्वतंत्र हुए, उनकी संस्कृतियों की झलक दुनिया भर में दिखाई देने लगी। वह आजादी के लिए लगातार एक शाश्वत संकल्प लेने और उसको याद रखने का समय था। अंग्रेजों के पैर चारों तरफ से उखड़ रहे थे। ऐसे समय में सभी कवियों में राष्ट्रीय भावना की हिलोर साफ दिखाई देती है। मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, माखन लाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, आरसी प्रसाद सिंह, बलबीर सिह रंग, दिनकर आदि कवियों की सारस्वत परंपरा में जन कविवर गोपाल सिंह नेपाली का हिन्दी साहित्य में खासकर गीत विधा के कवि के रूप में बड़ा महत्व है।

कहा जाता है कि उनकी काव्यपाठ शैली कमाल की थी। हजारों हजार की भीड़ में नेपाली जी कविता पढ़ते थे। सन १९६० में मुजफ्फरपुर के एक महिला कालेज के हीरक जयन्ती समारोह में तत्कालीन राज्यपाल डाँ.जाकिर हुसैन पधारे थे। दूसरी तरफ वहीं कवि-सम्मेलन का आयोजन था। जिसमें नेपाली जी, त्रिलोचन शास्त्री और बेधड़क बनारसी शामिल थे। डाँ जाकिर हुसैन साहब ने उन्हें सन्देश भेजा और नेपाली जी से कविता सुनाने का आग्रह किया परंतु नेपाली जी ने कहा-आज फिर जनता के आग्रह पर तिलक मैदान में मेरा काव्यपाठ है महामहिम वहाँ पधारें तो आभारी रहूँगा। डाँ.जाकिर हुसैन नेपाली जी को सुनने वहाँ पहुँचे और सचमुच तृप्त होकर लौटे। नेपाली जी के रचनाविधान में छन्द की सहजता और सार्थकता साफ दिखाई देती है और यही उनकी कविताई का खास गुण है। निकट आती स्वतंत्रता के बोध का गीत देखिए-

घोर अंधकार हो
चल रही बयार हो
आज द्वार–द्वार पर यह दिया बुझे नहीं
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है।

उक्त पंक्तियों से आजादी के सूर्य की प्रतीक्षा करने वाले कविवर गोपालसिंह नेपाली का जन्म ११-०८-१९११ को जन्माष्टमी के दिन बेतिया जिला चम्पारण, बिहार में हुआ। कहा जाता है कि यह क्षेत्र वही था जहाँ आदिकवि महर्षि वाल्मीकि ने रामायण की रचना की और जहाँ गाँधीजी के सत्याग्रह आन्दोलनकी धमक हमारे इतिहास में दर्ज है। गाँधी जी ने पूर्वी चम्पारण से ही सत्याग्रह आन्दोलन की शुरुआत की थी। यह सौभाग्य की बात है कि कविवर नेपाली भी उसी क्षेत्र से आते हैं। नेपाली उनका उपनाम था, यद्यपि वो कभी नेपाल में नहीं रहे। हाँ नेपाल के निकटवर्ती क्षेत्र में जन्में होने के कारण उन्होंने यह उपनाम रख लिया होगा । उनका परिवार नेपाल मूल का हो यह भी संभावना है।

बहरहाल नेपाली जी कवि ही नहीं भारतीय संस्कृति के व्याख्याता भी थे। अपनी माटी से जुड़कर जीवन जीने वाले कवियों में नेपाली का नाम सर्वोपरि है। कविता खासकर गीत को ही उन्होंने अपने जीवन का सर्वस्व समर्पित कर दिया। गीत संगीत और कविताई का जो जादू उस समय के आधिकांश कवियों के यहाँ देखने को मिलता है कुछ उसी दिशा में नेपाली भी आगे बढते हैं। उस समय कवि-सम्मेलनों में आज जैसी भड़ैती नहीं होती थी। लोग सच्चे मन से कविता सुनने के लिए आते थे और रात रात भर कवि-सम्मेलन चलते थे। तब मंचो पर सार्थक गीत रचनाएँ ही पढ़ी और सुनी जाती थीं। ये वो दौर था जब अच्छे कवियों की कविताएँ लोगों को याद हो जाया करती थीं।

स्वतंत्रता आन्दोलन को नेपाली जीने खुली आँखो से देखा था। नेपाली जी के पिता फौजी थे और उनका बचपन देहरादून और मसूरी की प्राकृतिक घाटी मेंबीता। यही कारण है कि नेपाली जी को प्रकृति से प्रेम था और अहिंसा से वह बहुत सहमत नहीं थे। गान्धी जी के लन्दन में हुए गोल मेज सम्मेलन के बाद उन्होंने लिखा था-(१९३१)

कितनी टूटे रोज लाठियाँ
निरपराध नंगे सर पर
होती है दिन रात चढ़ाई
भूखों के रीते घर पर
छोड़ो यह रोटी का टुकड़ा
अदना चावल का दाना
आओ मोहन शंख बजाओ
पहने केशरिया बाना।

यह क्रांति का स्वर उनकी कविताई का मूल स्वर है। एक बार इलाहाबाद मेंप्रयाग तट पर कवि-सम्मेलन हो रहा था तो नेपाली जी भी उस कवि सम्मेलन में उपस्थित थे। उस समारोह में मुंशी प्रेमचन्द जी भी उपस्थित थे। सुनते हैं कि प्रेमचन्द जी ने उनके काव्यपाठ से प्रभावित होकर तबकहा था- क्या कविता पेट से ही सीख कर आए हो? तो वह सच्चे प्रगतिशील कवियों का दौर था। बिहार में किसान आन्दोलन खूब चलाए गये। नेपाली जी उस समय के किसान का चित्रण करते हुए लिखते हैं-

लटक रहा है सुख कितनों का
आज खेत के गन्नो में
भूखों के भगवान खडे हैं
दो-दो मुट्ठी अन्नों में
कर जोड़े अपने घर वाले
हमसे भिक्षा माँग रहे
किंतु देखते उनकी किस्मत
हम पोथी के पन्नो में।

क्रांति का आह्वान करते हुए नेपाली की गर्जना सुनें-(१९४४)

बढ़ो तुहारे बलिदानों से
मानव जरा उदार बनेगा
बढ़ो तुम्हारे इन कदमो से
जीवन बारंबार बनेगा
बढ़ो लगा दो आग चिता पर
आज गुलामी को जलना है
बढ़ो गीत विप्लव का गाते
थोड़ी दूर और चलना है।

(देख रहे हैं महल तमाशा-नीलिका)

नेपाली जी छायावादोत्तर कविता में सामाजिक सरोकारों से लैस होकर गीत चेतना के साथ उपस्थित होते हैं और जब जनता को जगने की आवश्यकता थी तब जगाया फिर जब नव-निर्माण का सन्देश देना था तब उन्होंने वह सन्देश दिया। नेपाली ओज और विद्रोह के साथ ही नव-निर्माण का स्वर भी देते हैं। सहज सरल गीतों से हिन्दी कविता के बृहत्तर हिन्दी मानस को गीत की सुदरतम पंक्तियाँ देते हैं। जब पूरे देश में स्वाधीनता के बाद नवता बोध की प्रगतिशील चेतना चल रही थी जहाँ निराला ने –नवगति नवलय ताल छन्द नव- की बात की तो दूसरी ओर नेपाली जी युवकों का नवीन प्रगति की दिशा में आह्वान कर रहे थे-

निज राष्ट्र के शरीर के सिंगार के लिए
तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो
तुम कल्पना करो।

यह नवीन कल्पना हमारे समाज को बदलने के लिए थी। यहाँ कवि का संकेत एक प्रगतिशील समाज की ओर है। हमें अपने राष्ट्र के शरीर का श्रंगार करना है, नित नूतन कल्पनाओं से अपने समाज को सजाना है सँवारना है। इसी गीत में नेपाली जी और आगे कहते हैं-

हम थे अभी-अभी गुलाम, यह न भूलना
करना पड़ा हमें सलाम, यह न भूलना
रोते फिरे उमर तमाम, यह न भूलना
था फूट का मिला इनाम, वह न भूलना

बीती गुलामियाँ, न लौट आएँ फिर कभी
तुम भावना करो, स्वतंत्र भावना करो
तुम कल्पना करो।(-नवीन-१९४९)

कवि को चिंता भी है कि कहीं हम पुन: गुलाम न हो जाएँ। खास बात यहाँ देखने की नेपाली जी कहते हैं कि अपनी भावना को स्वतंत्र करो। जब तक स्वतंत्रता का अनुभव नही होगा हमारी कल्पना में और जीवन की अवधारणाओं में स्वातंत्र्य चेतना का विकास कैसे होगा? नेपाली जी याद दिलाते हुए कहते हैं कि गुलामी के चलते हमें बिला वजह दूसरों को सलाम भी करना पड़ा किंतु उन परिस्थितियों को हमें भूलना नहीं है और कोशिश करनी है कि वो बीती हुई गुलामियाँ कहीं फिर न लौट आएँ। इस लिए स्वतंत्रता का भावन करो और विधिवत आत्मसात करो। अपनी आजादी की सुरक्षा के लिए तलवार भी उठानी पड़े तो हमें तैयार रहना चाहिए।

आज भी कहीं हम और हमारा समाज आर्थिक गुलामी की तरफ जा रहा है। तो आज के समाज पर भी नेपाली जी की ये पंक्तियाँ बहुत प्रासंगिक जान पडती हैं। नेपाली जी देश की रक्षा के लिए गाँधी-दर्शन के विरोध में जाकर भी अपनी बात करते हैं क्योंकि विभाजन के बाद के भारतीय नेतृत्व में जो एक आत्मविश्वास की कमी आयी और अहिंसा के दिखावे का वातावरण सृजित किया जा रहा था, नेपाली जी उसकी विवशता की ओर संकेत करते हैं। वे अपने खास अन्दाज में नेहरू जी को सन्देश में कहते हैं कि शासन तो तलवार से चलता है। वेद कुरान सब तो स्याही से लिखा गया लेकिन आजादी का इतिहास रक्त की धार से लिखा गया है। इस लिए आजादी को अक्षुण्ण रखना हमारे समय की सबसे बडी आवश्यकता है-

सिद्धांत, धर्म कुछ और चीज़, आज़ादी है कुछ और चीज़
सब कुछ है तरु-डाली-पत्ते, आज़ादी है बुनियाद चीज़
इसलिए वेद, गीता, कुरआन, दुनिया ने लिखे स्याही से
लेकिन लिक्खा आज़ादी का इतिहास रुधिर की धार से
ओ राही दिल्ली जाना तो कहना अपनी सरकार से।
चर्खा चलता है हाथों से, शासन चलता तलवार से।

देश की परिस्थितियों का उन्हें ज्ञान था। नेपाली जी का कवि-कर्म बहुत महान था लेकिन वह अधिक दिन नहीं चल पाया और ५२ वर्ष की अल्प आयु में १७ अप्रैल-१९६३ को नेपाली जी का देहावसान हो गया। नेपाली जी ने पराधीनता के दुख से पीड़ित भारत और अंग्रेजों की गुलामी से स्वतंत्र दोनों तरह के भारत देखे थे। बँटवारे के समय के भारतदेश की हम केवल कल्पना कर सकते हैं। जिन लोगों ने खुली आँखों वह समय देखा होगा, सहा होगा, उनकी पीड़ा का अनुमान करना बहुत कठिन है। देश प्रेम भी प्रेम या प्रणय का ही एक रंग है। देश की आर्थिक और सामाजिक दशा को लेकर नेपाली जी के गीतों में देश-प्रेम का विस्तार हुआ है। उनके गीतों पर छायावादी प्रवृत्तियाँ तो झलकती हैं किंतु वे छायावादी भाषा और अपनी जातीय चेतना के अधिक निकट खडे दिखाई देते हैं। यह छयावादोत्तर प्रगीत का दौर था। जब अधिकांश छन्दोबद्ध कवि प्रगतिशील चेतना के या कहें कि समाज और देश के सामने सुधारवादी रचनाएँ प्रस्तुत कर रहे थे। राष्ट्रीय चेतना उस प्रगीत काव्यधारा की एक प्रमुख विशेषता थी। अधिकांश गीतकार सीधे सीधे अभिधा में अपनी जनता के सम्मुख अपनी ओजस्वी शैली में गीत रख रहे थे। नेपाली जी की कविता में जहाँ एक ओर माधुर्य है तो दूसरी ओर व्यंग्य की भी छवि साफ झलकती है-

बदनाम रहे बटमार मगर
घर तो रखवालों ने लूटा
मेरी दुल्हन सी रातों को
नौ लाख सितारों ने लूटा
दो दिन के रैन-बसेरे में
हर चीज़ चुरायी जाती है
दीपक तो जलता रहता है
पर रात पराई होती है
गलियों से नैन चुरा लाई
तस्वींर किसी के मुखड़े की
रह गये खुले भर रात नयन
दिल तो दिलदारों ने लूटा।

प्रेम के कई रंग होते हैं। कवि जब प्रेम करता है तो उसका प्रेम बहु आयामी होता है। नेपाली जी इसी बहु आयामी प्रेम -पथ के पथिक हैं। अपने पड़ोस, अपने समाज, अपनी भाषा और अपनी संस्कृति से उनका बहुत गहरा प्रेम है। अपने रीति रिवाज-अपनी धरती-खेत-बाग-वन-पर्वत-नदियाँ सभी कुछ तो हमारे परिवेश की रचना करते हैं। सच्चा कवि जब प्रेम करता है तो इन सभी चीजों से प्रेम करता है। जब कवि के अनुसार समाज में बदलाव नहीं आता तो वह सत्ता को धिक्कारता है। सत्ता के विरुद्ध संघर्ष का स्वर वही उठाते आये हैं जिन्हें अपनी जनता से प्रेम होता है। अपने समय और सत्ता की आलोचना करते हुए नेपाली कहते हैं-

कर्णधार तू बना तो हाथ में लगाम ले
क्राँति को सफल बना नसीब का न नाम ले
भेद सर उठा रहा मनुष्य को मिटा रहा
गिर रहा समाज आज बाजुओं में थाम ले

त्याग का न दाम ले
दे बदल नसीब तो ग़रीब का सलाम ले

यह स्वतन्त्रता नहीं कि एक तो अमीर हो
दूसरा मनुष्य तो रहे मगर फकीर हो
न्याय हो तो आर-पार एक ही लकीर हो
वर्ग की तनातनी न मानती है चाँदनी
चाँदनी लिए चला तो घूम हर मुकाम ले

त्याग का न दाम ले
दे बदल नसीब तो ग़रीब का सलाम ले

तो नेपाली जी वास्तविक प्रगति और सच्ची प्रगतिशीलता के हामी थे। उनका सपना सच्चे समाजवाद का था, क्रांति का था लेकिन समाजवाद तो तभी सफल होता जब अमीर गरीब की खाई को सही ढंग से भरा जा सकता, वह हो न सका। आज भी हमारे समाज में अमीर गरीब की खाई लगातार गहरी होती जा रही है। अब तो भ्रष्टाचार ही हमारे प्रजातंत्र और जीवन का मूल्य बन गया है। अब भ्रष्टाचार खत्म करने की बात करने वाले ही दण्डित किए जा रहे हैं ।हमारे सामने बडी विकराल परिस्थिति है।

नेपाली जीके सात काव्य संग्रह प्रकाशित हुए जो क्रमश:-उमंग (१९३३), पंछी (१९३४), रागिनी (१९३५), पंचमी (१९४२), नवीन (१९४४), नीलिमा (१९४५), हिमालय ने पुकारा (१९६३) हैं। यद्यपि नेपाली जी पत्रकार के रूप में भी जाने जाते हैं। उन्होंने रतलाम टाइम्स जैसे अखबार में पत्रकारिता की और पटना से योगी जैसी पत्रिका भी निकाली। इसी प्रकार नेपाली जी ने लगभग ३०० के करीब फिल्मी गीत भी लिखे हैं। कोई स्थायी आजीविका न होने पर ऐसा करना स्वाभाविक था। लेकिन नेपाली जी की ओजस्वी कवि गीतकार वाली छवि ही बनी रही। गीतकार तो वे थे ही, बिहार में कृषि चेतना और सामाजिक सरोकारों के साथ राष्ट्रीय चेतना का उभार उस समय जोरों पर था। सामाजिक आन्दोलन और सरोकारों की चेतना से बिहार की धरती हमेशा लैस रही।

देश की आजादी से एक दशक बाद ही लोगों का मोह भंग होने लगा था। क्रांतिकारियों की कुर्बानियाँ व्यर्थ सी प्रतीत होने लगी थीं। तब ऐसे वातावरण में नेपाली जी कैसे चुप रहते। उन्होंने रोटियों का चन्द्रमा शीर्षक कविता लिखी। सन १९५६ में यह कविता धर्मयुग में प्रकाशित हुई थी। नेपाली जी का स्वर देखिए-

जो स्वयं भटक रहे
राह वह दिखा रहे
जो रमे महल-महल
त्याग वह सिखा रहे
जग हुआ शहीद तो
नाम वह लिखा रहे
पंच के प्रपंच की
वंचना गयी नहीं
रोटियाँ गरीब की
प्रार्थना बनी रहीं।

सन १९६२ में नेपाली जी ने जो चीन के आक्रमण के अवसर पर जो गीत लिखे हैं वो लगातार हमें प्रेरणा देते हैं। सम्भवत: उनकी हिमालय कविता इसी समय लिखी गयी थी एक अंश देखिए-
जैसा यह अटल, अडिग-अविचल
वैसे ही हैं भारतवासी।
है अमर हिमालय धरती पर
तो भारतवासी अविनाशी।
कोई क्या हमको ललकारे
हम कभी न हिंसा से हारे
दु:ख देकर हमको क्या मारे
गंगा का जल जो भी पी ले
वह दु:ख में भी मुसकाता है।
गिरिराज हिमालय से भारत का
कुछ ऐसा ही नाता है।

नेपाली जी हिमालय को भारत का प्रहरी के रूप में देखते हैं। उस समय के कवि अपना कवि कर्म और धर्म जानते भी थे और निभाते थे। नेपाली जी ने उस समय की समस्त जनता का आह्वान किया था जब चीन ने आक्रमण किया था। देखिए उनकी भाषा और तेवर-
तिब्बत को अगर चीन के करते न हवाले
पडते न हिमालय के शिखर चोर के पाले
समझा न सितारों ने घटाओं का इशारा
चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।

उस समय की जनसंख्या शायद चालीस करोड़ रही होगी। नेपाली जी ने फिल्मों के लिए भी जो गीत लिखे वो सामाजिक सरोकारों से जुड़े हुए हैं। सन-१९५३ में आयी फिल्म 'नागपंचमी' के एक गीत की पंक्तियाँ देखें
अर्थी नहीं नारी का सुहाग जा रहा है
भगवान तेरे घर का सिंगार जा रहा है।

इसी प्रकार फिल्म 'नरसिंह भगत' में उनका एक गीत बहुत चर्चित रहा था-
दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे।
पानी पी कर प्यास बुझाऊँ, नैनन को कैसे समझाऊँ।
आँख मिचौली छोड़ो अब तो, घट-घट वासी रे।
दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे।

१५ दिसंबर २०१५

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