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कविता में होली के विविध रंग
– अरविंद मिश्र


भारतीय जीवन विधि-निषेधों और बंधनों का अवश बंदी ही नहीं है, वरन अजस्र पयस्विनी की भाँति वह प्रवहमान भी है। जहाँ व्रत, आश्रम, सेवा जैसे प्रयत्नों से निवृति की उपलब्धि होती है, वहीं पर्वों एवं उत्सवों से धर्म, अर्थ और काम के प्रेरणा-पुंज बने आनंद-उल्लास के निर्झर भी झरते हैं। होली जीवन के उन्मुक्त प्रवाह का पावनतम प्रतीक है। इस अवसर पर छोटे-बड़े, धनिक-निर्धन, सबल-दुर्बल आदि भेदों से ऊपर उठकर व्यक्ति-व्यक्ति उत्साहित हो उठता है। रंग, अबीर, गुलाल का प्रयोग मन मयूरों को नर्तित करने लगता है। वयोवृद्ध 'देवर' बन जाते हैं और वृद्धाएँ- मुग्धा नायिकाएँ! होली सुप्त जीवन के जागरण का पर्व है, चेतनाओं को शक्ति देने वाला साधन है और आंतरिक भावनाओं के चित्रांकन का प्रफुल्लित फलक। जिस दिन पारस्परिक सम्मेलन और विजया का अलमस्त वातावरण सुख-संतोष की कम सृष्टि नहीं करता।

श्री भारतेंदु हरिश्चंद्र होली के माध्यम से आत्मा-परमात्मा एवं संसार की नश्वरता का स्पष्ट चित्रण करते हुए कहते हैं-
फागुन के दिन चार, री गोरी खेल लौ होरी।
फिर कित तू, कहाँ ये अवसर, क्यों ठानत यह।।
जीवन-रूप-नदी बहती सम, यह जिय माँझ-विचार।
'हरिचंद' गर लगु पीतम के, करु होरी त्योहार।।

'हरिऔध' जी उस समय का चित्रण कर रहे हैं जब रंग पड़ने से राधा क्रुद्ध हो गई हैं और कृष्ण उनका क्रोध दूर करने के लिए विविध तर्कों के साथ अपनी चालें चल रहे हैं-
डारि दीन्हों रंग तो उमंग कत ऊनो भयो।
विगरयो कहा जो मुख माँहि मली रोरी है?
कुंकुम चलाए कौन हानि भई अंगनि की
मारी पिचकारी कौन करी बरजोरी है?
'हरिऔध' तेरी होती कहा अपकार है जो
बार-बार ग्वालिन की बजय धपोरी है।
रूठन को रार को न रोष को कछू है काम
ऐसी वृषभानु की किशोरी आज होरी है।

श्री जगन्नाथ दास 'रत्नाकर' ने होली खेलने वाली नायिकाओं के साथ चलती हुई राधा का सर्वांग रूप-चित्रण किया है-
थोरी-थोरी बैस की अहीरन की छोरी संग
भोरी-भोरी बातन उचारन गुमान की।
कहैं 'रतनाकर' बजावत मृदंग चंग
अंगन-अंगन भरी जोबन उठान की।।
घाँघरे की घूमनि समेटि के कछौटी किए
कटि-तट फेंटि कोछी कलित विधान की।
झोरी भरैं रोरी, घेरि केसर कमोरी भरैं
होरी चली खेलन किसोरी वृषभानु की।।

कवि-रत्न सत्यनारायण शर्मा होली के वातावरण को गोप-गोपियों के बीच प्रदर्शित नटवर गोपाल के उन्मुक्त सहज स्वभाव के साथ जोड़कर काव्य की ध्वन्मयी मधुरता का रंग बरसा रहे हैं-
सह ग्वालन के मिलि के जुलि के
अति खाय मजूम जो धूम छई।
लखि आवत कौरतिजा मग में
शुभ मूँठि हाथ की गुलाल लई।।
पुनि भाल दई तिनके मुख पै
सतदेव कसैं कटि प्रेम मई।
कहि होरी है, होरी है, होरी है जी
पिचकारी पियारी पै छाँड़ि दई।।

महामना मदन मोहन मालवीय 'मकरंद' रीति कवियों की व्यंजनापूर्ण शैली में ब्रज की उस होली का सहज वैभव प्रदर्शित कर रहे हैं, जो सारे देश की होली का रूप धारण कर लेती है-
धूम मची ब्रज फागु री आजु बजैं डफ झाँझ अबीर उड़ानी।
ताकि चले पिचुका दुहुँ ओर गलीन में रंग की धार बहानी।।
भीजैं भिगोवैं ठढ़े 'मकरंद' दुहुँ लखि सोभा न जात बखानी।
ग्वालन साथ इतै नंदलाल, उते संग ग्वालिन राधारानी।।

श्री मैथिलीशरण गुप्त की निम्नलिखित पंक्तियों में होली के चित्र सजीव हो उठे हैं-
काली-काली कोयल बोली- होली-होली-होली
फूटा यौवन फाड़ प्रकृति की पीली-पीली चोली।
अलस कमलिनी ने कलख सुन उन्मद अँखियाँ खोलीं
मली उषा ने अंबर में दिन के मुख पर रोली।।

होली की रात में किसी घटना की ओर संकेत करते हुए 'निराला' जी ने कलिका का उन्मुक्त वातावरण प्रस्तुत किया है-
मधु-ऋतु-रात मधुर अधरों की
पी मधु सुधबुध खो ली
खुले अलक मुंद गए पलक-दल
श्रम-सुख की हद हो ली-
बनी रति की छवि भोली!

प्रकृति के सुकुमार कवि श्री सुमित्रानंदन पंत होली के अवसर पर शोभा, पवित्रता, प्रीति, विश्वास और सौन्दर्य की नवीनता का रंग सर्वत्र बिखेरते देखना चाहते हैं-
आज रँगो फिर जन-जन का मन
रँगो पुन: भारत का यौवन
नवल होलिके, नव शोभा से
नव पल्लव से रँगो दिगंचल
रंग ज्वाल से फूलों के पल
रंग भरे लोचन आनन से
रँगो सकल गृह के वातायन
रंग प्रीति से घृणा-द्वेष रण
नव प्रतीति से कटुता के क्षण
जीवन सुंदरता के रँग से
पंकित हो जन भू का प्रांगण!

डॉ. हरिवंश राय 'बच्चन' होली के उन्मुक्त, अलमस्त, उल्लासपूर्ण वातावरण को बौद्धिकता के हल्के पुट के साथ अत्यंत प्रांजल रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं-
सब रंगों का मेल कि मेरी, उजली-उजली सारी काली
और नहीं गुन ज्ञात कि जिससे, काली को कर दूँ उजियाली
डर के घर में लापरवाही, निर्भयता का मोल बड़ा है
अब जो तेरे मन को भाए, तू वह रंग चढ़ाए जा, रे!
भीग चुकी अब जब सब सारी, जितना चाह भिगाए जा, रे!

श्री सोहन लाल द्विवेदी होली खेलने वालों से स्वच्छंद, स्पष्ट और भयरहित व्यवहार करने का निवेदन करते हैं-
जगती से आँख चुराना क्या
जो मन में उसे छिपाना क्या
मिल मधुर मिलन का रण खींचें
रंगो के रिमझिम के नीचे!

डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' होली के आधार पर स्वतंत्रता के बाद प्रगतिशील विचारधारा की फिर से स्थापना का स्वप्न सँजोए हुए हैं-
जब सब बंधन कट जाएँगे
परवशता की होली होगी।
अनुराग अबीर बिखेर रही
माँ-बहिनों की झोली होगी।

श्री नरेंद्र शर्मा ने मजूरों की होली के वास्तविक चित्रांकन में सफलता पाई है-
बज रहे कहीं ढप-ढोल-जाँझ, पर बहुत दूर
गा रही संग मदमस्त मजूरों की टोली।
कल काम धाम करना सबको पर नींद कहाँ?
है एक वर्ष में एक बार आती होली।

डॉ. रांगेय राघव नए बिंब विधान के माध्यम से होलिका का रूपकाश्रित सजीव चित्रांकन कर रहे हैं-
पिया चली फगनौटी कसी गंध उमंग भरी
ढप पर बजते नए बोल ज्यों मचकीं नई फरी
चंदा की रुपहली ज्योति है रस से भीग गई
कोयल की मदभरी तान है टीसें सींच गई।

डॉ. जगदीश गुप्त एक ऐसी नायिका का चित्र प्रस्तुत करते हैं, जो कृष्ण के प्रेम में डूबी होने के कारण सब कुछ भूल गई है। साथ ही यह भी ध्यान नहीं है कि रंग खेलने वाली पिचकारी उलटी है-
आप ही अपनी छाँह गहै पुनि बाँह पसारि भुजान सो मेलति।
झाँकति केसरि कै जल मैं, निज रूप पै रीझि रही रसरेलति।
आप ही आपनों चीर निचोरति आपनी धार कौ आपही झेलति।
प्रानन मैं गिरधारी लिये उलटी पिचकारी लिये रंग खेलति।

होलिका के समस्त रागात्मक पक्षों का मंजुल उद्घाटन हिन्दी के आधुनिक काव्य में बड़ी ही क्षमता से हुआ है।

१ मार्च २०१७

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