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जय बोलो चाय की
- पूर्णिमा वर्मन
 


चाय की चाह को चहास कहते हैं। ऐसी उच्च श्रेणी की तिश्नगी वाली भावना के लिये किसी अन्य भाषा में कोई भी शब्द मिलना मुश्किल है। अंग्रेजी का अर्ज तो इसका पासंग भी नहीं क्योंकि उसका जुड़ाव अंट-संट हर किसी चीज से है पर चहास है कि बस चाय की चाह और आस है शुद्ध सात्विक। हम हिन्दुस्तानी होते भी शुद्ध सात्विक ही हैं। पर जो स्वयं को शुद्ध सात्विक नहीं मानते वे भी किसी बात का बुरा न माने। रहेंगे तो आप भी हिंदुस्तानी ही।  इस ग्लोबल होती दुनिया में तरह-तरह के प्रभावों से मुक्त रह पाना हर किसी के लिये संभव नहीं। सो चलो कोई बात नहीं- आप चाय के स्थान पर जिस भी पेय की कल्पना के साथ रहना चाहें आप पूरी तरह स्वतंत्र हैं।

सिर्फ हिन्दुस्तानी ही नहीं कुछ विदेशियों में भी चाय का प्रेम बदस्तूर पाया है जाता है। सुना जाता है कि अमेरिकी कवयित्री एमिली डिकिंसन चाय के पैकेट पर कविता लिखा करतीं थीं। उनसे प्रभावित होकर नार्वे के कवि ऊलव होकुनसुन हाउगे ने एक कविता में लिखा - एक अच्छी कविता से चाय की सुगंध आनी चाहिये। इस मामले में चीन का भी जवाब नहीं। कहते हैं एक बार सर्दी के दिनों में जब चीन के महाराजा शैन नांग गर्म पानी पी रहे थे, तो उनके प्याले में कुछ चाय की पत्तियाँ गिर गयीं। राजा ने देखा कि पानी का रंग सुनहरा हो गया और उसमें से लाजवाब सुगंध उठने लगी। उन्हों उसे पिया तो स्वाद भी मनभावन लगा। फिर क्या था शैन नांग को इसकी आदत पड़ गयी। कहते हैं कि इसके पहले भी चीन में चाय दवा के रूप में प्रयोग की जाती थी। क्यों न हो चाय से लेकर कोरोना तक के आविष्कार का अधिकार चीन के पास ही तो है।

चाय को भारत में लाने का श्रेय ईस्ट इंडिया कंपनी को जाता है। १८२० में वे इसे भारत लाए और बड़े पैमाने पर इसकी खेती शुरू की। भारत में भी चाय का खूब विज्ञापन किया और धीरे धीरे भारत को इसका आदी बना डाला। भारत ही नहीं लगभग पूरे एशिया में चाय की धूम है। कोरिया, ताइवान और जापान जैसे देशों में चाय उनकी संस्कृति का प्रमुख अंग हैं। ठंडी चाय, गरम चाय, चाय की आइसक्रीम, चाय की चाकलेट और टी हाउस जैसे प्रचलन बहुत से देशों में देखने को मिलते हैं। हालाँकि भारत में पानी, दूध व चीनी के साथ उबाली गयी चाय का प्रचलन ही अधिक है और इसे हर शहर के नुक्कड़ पर पाया जा सकता है। नुक्कड़ वाली चाय समोसे की दूकान और कुल्हड़ वाली चाय का मुकाबला तो दुनिया के बड़े से बड़े रेस्त्रां भी नहीं कर सकते।

चाय शौक से बढ़कर उद्योग कब बन गयी इसकी भी एक कहानी है। जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में चाय उगाने का निर्णय लिया, तब असम में मनीराम बरुआ नाम के एक सज्जन ने पहला भारतीय चाय बगान लगाया। मनीराम बरुआ पुराने रईस और असम की एक रियासत के तालुकेदार थे। उनके पुरखे उत्तर प्रदेश के कनौज शहर से आकर असम में बसे थे। १८३९ में वे असम चाय कंपनी के दीवान बनाए गए। लेकिन अपने क्रांतिकारी विचारों के कारण उन्होंने १८४५ में अंग्रजों की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और स्वयं अपना चाय बगान लगाया, जो बाद में टोकलोई एक्सपेरिमेंटल स्टेशन नाम से रिसर्च सेंटर बना। १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम में उन्होने अंग्रेजों के विरुद्ध भारत की जनता का साथ दिया जिसके कारण १८५८ में २६ फरवरी को अंग्रेजी शासन ने उन्हें फाँसी दे दी। दीवान मनीराम समय से पहले चले गए लेकिन अपने देशप्रेम और भारत में चाय के पुरोधा के रूप में अमर हो गए।

चाय ने आम जन से लेकर साहित्य और फिल्म तक हर चीज को प्रभावित किया है। पहले फिल्मी गानों की बात करते हैं। सौतन फिल्म में लता और किशोर का गीत- शायद मेरी शादी का ख्याल... या फिर हर दिल जो प्यार करेगा में एक गरम चाय की प्याली हो....या फिर दम मारो दम फिल्म का गीत ‘न आए हो, न आओगे. न फोन पे बुलाओगे. न शाम की करारी चाय, लबों से यूँ पिलाओगे... खूब लोकप्रिय हुए थे। क्या आपने यह गीत सुना है?
चलो जिंदगी को फिर से पुकारें
दो लम्हें सुकूँ के मिल के गुजारें
चाय के बहाने चाय के बहाने...
अगर नहीं तो यूट्यूब पर 'चाय के बहाने' सर्च कर के देखियेगा। नायक नायिका को चाय की दूकान पर देखकर आपका मन भी उस चाय के नुक्कड़ पर पहुँच जाएगा। ''श्री ४२०'' का वह कोमल प्रसंग याद है आपको? किसी पुल के कोने पर दुअन्नी वाली चाय की अपनी केतली और सिगड़ी लेकर बैठा हुआ वह, मूछों वाला भैय्या। और उस बरस रही बारिश में नरगिस-राजकपूर के बीच एक छाते की साझेदारी- प्यार हुआ, इकरार हुआ... बिना चाय के ये दृश्य क्या इतने दिलकश बन सकते थे?

साहित्य की बात करें तो असंख्य स्थानों पर चाय का उल्लेख मिलता है-

  • प्रेमचंद के गोदान में एक पात्र गोबर को एक अन्य पात्र अलादीन आय का वैकल्पिक रास्ता सुझा रहा है- “तुम्हारी आय बढ़ जाएगी भैया। जितनी देर में आलू मटर उबालते हो उतनी देर में दो चार प्याले चाय बेच लोगे। अब चाय बारहों मास चलती है।“ इसी उपन्यास में दस पृष्ठों के बाद फिर लखनऊ में चाय का उल्लेख मिलता है- “गोबर ने एक गिलास शर्बत पीकर कहा- तुम तो खाली साँझ सबेरे चाय की दूकान पर बैठ जाओ काका तो एक रुपया कहीं नहीं गया।“

  • चित्रा मुद्गल की कहानी लिफाफा में सुबह की चाय का एक सुंदर रेखांकन है नायक कहता है- “चाय चढ़ती है। मसालेदार चाय। चाहे गर्मी हो या सर्दी। माँ बगैर मसाले की चाय नहीं बनातीं। मसालेदार चाय की महक पूरे घर में फैल जाती है।“

  • ममता कालिया के उपन्यास ‘’अँधेरे का ताला’’ में कालेज की चाय के अनेक रोचक प्रसंग हैं।

  • रामदरश मिश्र की एक कहानी ‘’सड़क’’ में गुंडों द्वारा चाय की गुमटी में चाय पीकर उत्पात मचाने के ही एक दृश्य से शुरू होती है।

  • अभिषेक शर्मा की ‘’एक कटिंग चाय’’ काफी रूमानी कहानी है।

  • अलका सरावगी के उपन्यास शेष कादम्बरी का एक अध्याय चाय और मुक्ति का आरंभ ही चाय से होता है...

  • शिमला की किसी बरसती शाम का, कृष्णा सोबती का संस्मरण है- ‘’और घण्टी बजती रही’’। इस संस्मरण में यह गिनना काफी रोमांचक हो सकता है कि उस शाम लेखिका ने कितनी बार चाय पी। उनकी वह चाय शिमला की उस बरसती शाम को हद दर्ज़े तक रूमानी बनाती है, लेकिन अंत में उस संस्मरण ने रूमान को उदासी में अकेला छोड़ दिया है। अंतहीन उल्लेख हैं हिंदी साहित्य में चाय के। शायद इस पर एक पूरी किताब लिखी जा सकती है।

उद्योग की बात करें तो चाय से बढ़कर कोई धंधा नहीं है। चाय बगान लगाना तो दीवान मनीराम बरुआ जैसे रईसों का शगल है लेकिन चाय की दूकान तो हर कोई खोल सकता है। बारहों मास सातों दिन चौबीसों घंटे चाय की दूकान पर रौनक देखी जा सकती है। चाय बेचकर आप प्रधानमंत्री बन सकते हैं। साहित्यकार बन सकते हैं और विश्व पर्यटक भी बन सकते हैं।

अगर मेरी बात पर विश्वास नहीं तो अपने प्रधानमंत्री को तो आप जानते ही हैं पर क्या आपने लक्ष्मण राव का नाम सुना है? महाराष्ट्र के अमरावती ज़िले के एक गाँव में जन्मे लक्ष्मण राव दसवीं पास करने के बाद ही नौकरी की तलाश में दिल्ली तक चले आए। मज़दूरी और घरेलू सहायता के काम करते हुए उन्होंने अपनी पढ़ाई को जारी रखा। इसी बीच उनका एक मित्र रामदास नदी में डूबकर मर गया जिसके बाद उन्होंने एक उपन्यास लिखा जिसका नाम रामदास है। १९८४ में उनकी मुलाक़ात तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से हुई, तो लक्ष्मण राव ने उन पर एक नाटक लिखा- प्रधानमंत्री। लक्ष्मण राव अब तक नौ उपन्यास, तीन नाटक और सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषण की चार किताबें लिख चुके हैं।

चाय बेचकर विश्व-पर्यटक बने विजयन और मोहना की कहानी भी बहुत से लोग जानते होंगे। ६९ वर्षीय विजयन और उनकी ६७ वर्षीय पत्नी मोहना कोच्चि में रहकर श्री बालाजी के नाम से चाय की दूकान चलाते हैं। वे १२ वर्ष से भी कम समय में २३ देशों की यात्रा कर चुके हैं और वे अपने सालों पुराने इस सपने को चाय की दुकान से होने वाली बचत और बैंकों से लिये गये कर्जे के बूते पूरा करने में सफल रहे हैं। उनके इस कारनामे को ट्विटर पर काफी लोगों ने पसंद भी किया, जिनमें आनंद महिंद्रा समूह के चेयरमैन आनंद महिंद्रा भी शामिल हैं। उन्होंने ट्वीट करते हुए लिखा, 'हो सकता है कि फोर्ब्स की सबसे अमीर लोगों की सूची में शामिल न हों लेकिन मेरी नजरों में यह दंपत्ति देश के सबसे अमीर लोगों में से एक है।'

तो देखा आपने चाय वाला क्या-क्या हो सकता है? प्रधानमंत्री हो सकता है, बड़े बड़े उद्योगपतियों की दृष्टि में सबसे अमीर वयक्ति हो सकता है और प्रधानमंत्री पर पुस्तक लिखने वाला साहित्यकार भी। न केवल इतना बल्कि आधुनिक जीवन में चाय, जीवन के सबसे कठिन समय में, सबसे अधिक राहत देने वाला पेय बन चुकी है। इस कोरोना काल में काढ़े वाली चाय ही अंतिम आश्रय है तो भई, आप भी तुलसी अदरक काली मिर्च आदि आदि वाली चाय पियें स्वस्थ रहें मस्त रहें और दुनिया में नाम कमाएँ। जय बोलो चाय की!

१ जुलाई २०२०

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