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ललित निबंध

1वसंत का संदेशवाहक कचनार
भुवनेश्वर प्रसाद गुरुमैता

वासंती दुपहरी में कचनार के वृक्ष को जमकर फूलते देखा जा सकता है। मधुऋतु का यह मनहर पुष्प पतझड़ में धरती को सारे पत्ते न्योछावर कर नूतन किसलयों की परवाह किए बगैर वसंतागमन के पूर्व ही खिलखिल हँसने लगता है।

वसंत का इसे सहचर कहें या अग्रसर! वन-उपवन में एकबारगी इसका खिलखिलाना किसी को नागवार भले लगे, किंतु यह मनभावन पुष्प अपने कर्तव्य को निभाकर मन को प्रफुल्लित कर ही देता है। दूसरी ओर, अन्य पुष्पों को भी खिलने को प्रेरित करता है। इस प्रकार, सबको प्रमुदित कर अपना अनुसरण करने को मानो बाध्य कर देता है। वसंत के इस संदेशवाहक को सबसे पहले हुलसित देखकर किस मनहूस का ह्रदय-कमल नहीं खिल उठता! अपने अलौकिक सौंदर्य से अनिर्वचनीय सुखानुभूति उत्पन्न करने में यह पूर्णतः सक्षम है। तभी तो कवियों ने वसंत का अग्रदूत कहकर इसे सार्थक नाम दिया है। वस्तुतः कवि और काव्य की प्रेरणा है कचनार, प्रकृति देवी का अलंकार है कचनार, ऋतुराज का शृंगार है कचनार, उल्लास की झनकार है कचनार, भौरों की उमंग का गुंजार है कचनार। शृंगारकालीन कवियों ने वसंत की श्रीशोभा के संवर्धन करने वाले पुष्प-समूहों में सम्मानपूर्वक इसका स्मरण किया है-
'फूलेंगे अनार कचनार नहसुत आम,
फूलेंगे सिरिस औ' पनस फूल झूलेंगे।'

वसंत ऋतु में फूलों की जो मनोमुग्धकारी बहार देखने को मिलती है, उसमें कचनार का योगदान सबसे अधिक है, क्यों कि सबसे आगे खिलकर यह सबको खिलने को उकसाता है।

लोक-संस्कृति में भी यह कचनार अनेक लोक-विश्वासों और कथानक-रूढ़ियों को समाविष्ट करता है और लोक-काव्य को नानाविध उपमा-उपमानों से मंडित करता रहता है। रीतिबद्ध काव्य के उद्धरण से- कोई बटोही वसंत के दिनों में फूले हुए कचनार की कलियाँ तोड़ते हुए माली से कहता है- 'अरे लोभी माली! कुछ तो ध्यान कर। कचनार (कचनार की कलीः बाला) को क्यों छेड़े जा रहा है? उसे मत छू। इसपर जो ऊपर से नीचे तक खिले हुए फूलों की शोभा लदी है, वह सारी मिट जाएगी।' यह सुनकर वह माली उत्तर देता है, 'अरे अनारी! अर्थात रस न जाननेवाले बटोही! अपना उपदेश अपने पास रख। यहाँ तो वसंत छाया हुआ है।

'जनि परसहु कचनार, लोभी माली चेत धरु।
मिटिहे सकल बहार, लदी सिखर तौं मूल लौं।।
घर राखहु उपदेश, पथिक अनारी रस सहित।
रितु वसंत इहि देस, फूल चुकी कचनार सब।।'

क्या अभिजात्य और क्या लोक-संस्कृति! भारतीय लोकमानस में यह अपने रूप-लावण्य तथा अनुपम छटा के कारण रच-बस गया है। फलरूप लोकगीतों में ही नहीं, साहित्य की विविध विधाओं में भी बहुचर्चित है। कचनार को देववाणी में 'कांचाल' और 'कांचनार' की संक्षा से विभूषित किया गया है। परिष्कृत कन्नड़ में भी यह 'कांचनार' ही है। लेकिन मुझे एक कन्नड़ मित्र ने बताया कि ग्रामीण कन्नड़ में इसे 'नंदी बटलु' कहा जाता है। तदनुसार यह शिव के वाहन नंदी की बटलु यानी स्थाली है। निश्चय ही यह नाम शिवार्चन में इसकी विशेष पूछ के कारण प्रदान किया गया होगा। बंगला में इसे 'कांचन' व गुजराती में 'चंपाकटी' तथा तेलुगु में 'देवकांचनम' जैसे सार्थक नाम दिए गए हैं।

वनस्पतिशास्त्रियों ने इसे 'बाउईनिया वरिएगाता' कहा है। इसका मनहर वृक्ष मध्यम आकार का तथा तना पीली छालयुक्त होता है। पत्ते का अग्रभाग कटा होता है। ऐसा प्रतीत होता है मानो दो अंडाकार पत्ते जुड़े हुए हों। इसलिए इसे 'युग्मपत्र' भी कहते हैं। इसकी सपाट पुष्पकलिका आगे से नुकीली होती है। खिलने पर पुष्पों में गुलाबी, नील, श्वेत और अरुण वर्णों का अपूर्व मिश्रण उद्भासित होता है। उसकी मंद-मंद सुरभि बड़ी भीनी तथा सौम्य प्रतीत होती है। बहुधा देखने में यह बहुवर्णी चित्रित पुषपदल बड़ा ही चित्ताकर्षक लगता है।

विद्वानों ने रंगभेद के आधार पर इसके प्रधानतः दो भेद किए हैं- रंगीन फूल को 'कचनार' तथा श्वेत को 'कोविदार'। निघंटुकारों के मत से ये दोनों नाम भिन्न जातियों के सूचक हैं। वनस्पतिशास्त्रियों ने भी दोनों के भिन्न नामकरण किए हैं। तदनुसार धवल फूलों वाले कोविदार को 'बाउईनिया पुर्पुरेआ' नाम दिया है। 'पातंजल महाभाष्य' में इसे 'स्वर्गिक वृक्ष' कहा है। शुभ्रातुषार पुष्पों से संयुक्त इस कोविदार वृक्ष का प्रथम परिचय मुझे अपने गुरुदेव आचार्य हज़ारी द्विवेदी जी से चंडीगढ़ में मिला था। हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों को भी मैंने इसका परिचय दिया था। तब तक वे इस भारतीय नाम से परिचित नहीं थे। हिसार से बिहार लौटने पर मुझे आनंद का ठिकाना न रहा, जब इस अनुपम वृक्ष ने मुझे राजेंद्र नगर के विजय निकेतन स्थित केशव वाटिका में अपना पुनीत दर्शन देकर कृतार्थ किया। इसका श्रेय श्री नरेंद्र जी को है, जिन्होंने अपने वानस्पतिक प्रेम तथा दातुन की सुविधा के कारण इसे कैमूर की पहाड़ी से लाकर यहाँ प्रत्यारोपित किया।

यह जानकारी प्राप्त कर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि बिहार के वनवासी बंधुओं की लोकभाषा में भी 'कोइलार' अथवा 'कोइनार' नाम से जिस शंकरप्रिय पुष्प की प्रशस्ति है, वह कोविदार का ही अपभ्रंश रूप है। हाँ, पत्तों तथा वृक्षों के रूप-सादृश्य और औषधीय गुणों के कारण आयुर्वेदीय वाङमय में कोवितार से कचनार को पृथक नहीं किया गया। दोनों की ही पुष्प कलिकाओं से पकौड़ी, शाक तथा ज़ायकेदार रायता जैसे व्यंजन बनाते हैं। दोनों के ही पुष्प मधुर, कफ-पित्त-कृमिनाशक, रक्त विकार और अतिसार के शामक हैं।

इसके सुरम्य फूलों की मधुर गंध को टेसू भला कहाँ प्राप्त कर सकते! प्रत्येक फूल बीचोबीच पाँच लंबे पुष्प-केसर होते हैं, जिनके चारों ओर लंबी-नुकीली पंखुड़ियाँ होती हैं। ये पंखुड़ियाँ जड़ पर तंग होती हैं। पंखुड़ियों पर पतली नाड़ी-रेखाएँ होती हैं और जहाँ-तहाँ रंग में गाढ़ापन रहता है। फूल गुच्छों में खिलते हैं, पर दो-तीन से अधिक एक साथ नहीं। पत्ते पर महीन रेखाएँ अंकित होती हैं, जो खुले हुए पंखे की आकृति की होती हैं। कुछ लोग इनको ऊँट के पाँवों के आकार के बताते हैं तो कुछ लोग गाय या बकरी के खुर की तरह।

'वाल्मीकीय रामायण' में उल्लेख है कि पंपा सरोवर के तीर पर अवस्थित पर्वत-शिखरों पर वसंत ऋतु में कचनार के फूल खिल रहे थे। सह्याद्रि पर्वत पर फूले हुए कचनार के पेड़ वानरों से समाकुल हो गए थे। हनुमान जी ने भी लंका में फूले हुए कचनार के घने पेड़ों को देखा था। तांत्रिक लोग इस वृक्ष में विस्मयकारी गुणों का समाश्रय मानते हैं। इसलिए 'मंत्रशास्त्र' में कचनार का वृक्ष 'तरुराज' के रूप में वर्णित है।

प्राचीन काल में राजाओं को कचनार के वृक्ष से विशेष लगाव था। रथ के ध्वजों में कचनार का प्रयोग होता था। आदिकवि के अनुसार भरत का विशेषण 'कोविदार ध्वज' भी था। उसके रथ की ध्वजा का ध्वज-स्तंभ कोविदार का होगा अथवा फहराती हुई पताका पर कोविदार का फूल अंकित होगा। भारत में विलीन की गई रियासतों के रजवाड़ों में यह रिवाज था कि वे विजयादशमी के पावन अवसर पर अपने सामंतों के साथ निकलकर कचनार के पेड़ के पास जाते थे और उसकी एक शाखा ले आते थे। इस चमत्कारी कचनार-शाखा को देखकर उनके शत्रु सिर नहीं उठा सकते थे। विजयी भरत ने कोविदार को 'शत्रु-रूपी भूमि के ह्रदय को विदीर्ण करनेवाला' मानकर अपनी विजय पताका में इसका प्रयोग किया था।

भारतीय नृपतियों का सर्वाधिक प्रिय यह सुंदर फूल रसिक कवियों को भी खूब भाया था। कालिदास ने इन प्यारे रुचिर फूलों की उपमा टेढ़ी चितवन से दी है, जिसके प्रहार से प्रेमियों के ह्रदय पर गहरी चोट पड़ती है। 'ऋतुसंहार' के साक्ष्य से शरद-वर्णन में कवि के कथनानुसार, जिसकी शाखाओं की सुंदर फुनगियों को पवन धीमा-धीमा झुला रहा है, जिसपर बहुत से फूल खिले हुए हैं, जिसकी पत्तियाँ बहुत कोमल हैं और जिसमें से बहते हुए मधु की धार को मस्त-मस्त भौरें धीरे-धीरे चूस रहे हैं, ऐसा कोविदार का वृक्ष किसका ह्रदय टुकड़े-टुकड़े नहीं कर देता-

'मत्तद्विरेफपरिपीतमधु प्रसेकश्चितं विदारयति कस्य न कोविदारः।'

इसी शरद ऋतु में श्रीराम ने भी अपने वनवास के दिनों में पर्वत शिखरों पर खिले हुए कोविदार के फूलों को देखकर प्रसन्नता प्रकट की थी।

आजकल यह वृक्ष भारत के प्रायः समस्त प्रदेशों में और विशेषकर हिमालय की उपत्यकाओं में दृष्टिगोचर होता है। आयुर्वेद की दृष्टि से भी यह एक श्रेष्ठ वनौषधि है।

आकर्षक वर्णों और गुणों से समन्वित ऋतुपति के सेनानायक को नमस्कार! मधुऋतु के अग्रसर को नमस्कार! कामदेव के द्युतिमान सखा को नमस्कार और कवियों के आलंबन, प्रेमियों के उद्दीपन को शत शत नमस्कार!

१६ जून २००८

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