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ललित निबंध

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शिल्पी है जल
- डॉ. पुष्पा रानी गर्ग

 


जल अपनी हर लहर में कुछ न कुछ निर्माण करता रहता है। यदि कोई उसकी धारा के साथ ही गतिमान हो जाए तो कहना ही क्या? अब देखिए न, सामान्य-सा शिलाखंड जल की धारा में बहता-बहता न जाने कितनी लंबी यात्रा तय कर लेता है और यह शिल्पी जल भीतर ही भीतर, बिना छेनी-हथौड़ी के अपनी शिल्पकला अनवरत चालू रखता है। हम देखते हैं कि पत्थर का वह टुकड़ा एक आकर्षक शिवलिंग के रूप में ढल चुका है।

दो तटों के बंध में बँधा, कल-कल करता हुआ बहता जल सुमधुर बंशी सा फेनिल लहरें उठाता आगे और आगे बढ़ता जाता है तब उसकी नर्तन गति एक विशिष्ट सौंदर्य का सृजन करती है। आँखें उस रमणीक सौंदर्य को देख जैसे अघाती ही नहीं। जल-गगन, समीर, अनल, जल, धरिणी इन पंचभूतों में चौथा तत्व, आधुनिक विज्ञान जिस को एच.टू.ओ. कहकर परिभाषित करता है। जल, जिसका दूसरा नाम जीवन है, जो समस्त प्राणी जगत का प्राण है, अपने आप में एक विशिष्ट शिल्पी भी है। जी हाँ! आदि से अंत तक, अपनी संपूर्ण यात्रा में एक अद्भुत शिल्पी!

जल अपनी हर लहर में कुछ न कुछ निर्माण करता रहता है। यदि कोई उसकी धारा के साथ ही गतिमान हो जाए तो कहना ही क्या? अब देखिए न, सामान्य-सा शिलाखंड जल की धारा में बहता-बहता न जाने कितनी लंबी यात्रा तय कर लेता है और यह शिल्पी जल भीतर ही भीतर, बिना छेनी-हथौड़ी के अपनी शिल्पकला अनवरत चालू रखता है। हम देखते हैं कि पत्थर का वह टुकड़ा एक आकर्षक शिवलिंग के रूप में ढल चुका है। कैसी अद्भुत कला है, जो कृति और कृतिकार के अनजाने आकार ग्रहण कर लेती है और फिर हमारे बीच आकर कुछ सूक्ष्म सृजन करने लगती है।

इसमें आश्चर्य ही क्या जो नर्मदा के जल ने हर कंकर को शंकर बना दिया है। हम जब 'ॐ नमः शिवाय' कहकर उस शिवलिंग पर जलधार ढारते हैं तो वह हमारी अन्तरात्मा में भी एक विशिष्ट दिव्य लोक की भव्यता का निर्माण करती है। जब हमारी वृत्तियों में कैसा आनंददायी विस्तार आ जाता है! हम श्रद्धा से जितना विनम्र होते हैं, जितना समर्पित होते हैं, हमारी आत्मा उतनी ही उन्नत होने लगती है।

चेतना के नए आयाम प्रकट होने लगते हैं। कैसा शिल्प है यह जल का, जो शिला को मूर्ति बनाता है और मन को मूर्ति की पावनता में ढालता है। शिवलिंग ही क्यों, इस शिल्पी जल ने अपने मृदुल आघातों से कितने ही शिलाखंडों को कोमल बालू बनाकर तटों पर बिखेर दिया है। इस मृदुल बालू में केलि करते-करते अबोध बचपन ने कल्पनाओं के जाने कितने महल खड़े कर दिए होंगे। उसकी कोमल शैया पर लेटकर गगन के तारों को गिनने का प्रयास किया होगा। कल-कल निनाद करती लहरों के साथ ताल मिलाकर नृत्य किया होगा।

यह जल अपनी लहरों में ही संगीत की सृष्टि नहीं करता अपितु छोटे-छोटे चीनी मिट्टी के पात्रों में ढलकर जलतरंग वाद्य भी बन जाता है। तब इसकी स्वरलहरियों के माधुर्य के क्या कहने!

इस अनूठे शिल्पी ने मानव सभ्यताओं का भी निर्माण किया है। जल से भरी झीलों और नदियों के किनारे मनुष्य ने गाँव और शहर बसाकर सामाजिक संस्कृति का विकास किया है। नदियों के निकट हमारे ऋषियों ने तपोवन बसाकर आध्यात्मिक साधना के केन्द्र भी बसाए हैं जहाँ भौतिक उन्नति के साथ आत्मोत्थान के मार्ग का भी अनुसंधान किया है।

सच पूछो तो मनुष्य ही नहीं हमारे देवी-देवताओं को भी स्वर्ग से उतरकर इस जल की मनोहारी क्रीड़ा स्थली में निवास करने की लालसा हो आती है। इस प्रकार कितने-कितने तीर्थों का सर्जक बन गया है यह जल। और तो और यह जल स्वयं हिमखंड के रूप में शिवलिंग का आकार ग्रहण करके बाबा अमरनाथ के रूप में हमारे सामने जब प्रकट हो जाता है तो समय स्वयं विश्वास बनकर युगों को पल समान बना देता है। आस्था का हर नमन 'ॐ नमः शिवाय' का महामंत्र बन जाता है।

जल ने तीर्थों का सृजन कर जंगलों-बीहड़ों को तो आबाद किया ही है, देश की संस्कृति को भी निरंतर पुष्पित-पल्लवित होने के अवसर प्रदान किए हैं। कोई सामान्य-सा पर्व हो या संक्रांति पर्व हो अथवा पूरे बारह वर्ष के अंतराल के पश्चात पड़ने वाला कुंभ पर्व हो, जल तो अपनी महिमा से स्वयं अनजान बहता ही रहता है, लेकिन जब श्रद्धालुओं की भीड़ 'हर गंगेऽऽऽ' या नर्मदेऽऽऽ हर' या 'हरि ॐ...' कहती हुई उसमें गोता लगाती है तो हर लहर नृत्य करती हुई उसके साथ ताल देने लगती है।

सच! यह जल बहुत बड़ा शिल्पी है। इसने जलनिधि को भी रत्नाकर बना दिया है। अपने गर्भ में धीरे-धीरे असंख्य रत्नों का निर्माण किया है इसने। इन अमूल्य रत्नों के आकर्षण से देवताओं और दैत्यों ने मिलकर रत्नाकर का मंथन किया और उससे चौदह रत्न निकले। इन रत्नों से तीनों लोकों की समृद्धि में वृद्धि हुई। इसके बाद भी क्या जलनिधि ने रत्नों का दान बंद किया है। आज के युग की तकनीकी सभ्यता को हाँकने वाला पेट्रोलियम भी तो रत्नाकर के गर्भ से बाहर आता है।

श्रमसीकर बनकर यह जल जब वनपथगामी राजकुमार श्रीराम के साँवले चेहरे पर झलकने लगता है, तब तुलसीदास उस अनुपम सौंदर्य पर स्वयं निछावर होते हुए लिखते हैं-

'श्रमसीकर साँवरि देह लसै,
मनो रासि महा तम तारकमै।'
(कवितावली)

अर्थात्‌ श्रीराम के साँवरे मुख पर चमकती पसीने की बूँदें ऐसी सुशोभित हो रही हैं, मानों काली गहरी रात्रि में तारे चमक रहे हों।

कवि के कोमल हृदय की तो बात ही क्या है। करुणा की एक बूँद उससे महाकाव्य की सृष्टि करवा सकती है। ऐसे ही महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर को संगमरमर की बनी खूबसूरत कब्र ताजमहल के रूप में काल के गाल पर ठहरी शुभ्र जल की बूँद-सी दिखाई देती है और वे कह उठते हैं- 'कालेर कपोल तले, एक बिन्दु अश्रुजल, शुभ्र समुज्ज्वल, एई ताजमहल।'

जल अपनी शिल्प यात्रा में धरती पर धारा बनकर तो सतत लंबी यात्रा करता ही है, वह वाष्प बनकर गगन की यात्रा भी करता है। सूर्य की किरणों के ताप से अपने अंगों को सुखाकर बादल बनकर ऊपर उठता है और समस्त सृष्टि का जीवनदाता बन जाता है 'होहि जलद जग जीवनदाता।' शायद यही उसका समतापूर्ण ब्रह्मत्व है, क्योंकि धारा रूप में तो वह तटों के बंधन में बँधा रहता है, उसका विस्तार सीमित होता है, किंतु बादल बनकर तो वह सारे आकाश में छा जाता है और बूँदों की अमृत वर्षा से सारी धरती को तृप्त करता है। तभी तो धरती 'रसा' बन पाती है। इस रस (जल) के सहयोग से ही वह अगणित वनस्पतियों की सृष्टि करती है। यह रस पृथ्वी के अंक में समाकर विभिन्न प्रकार की गंधों का सृजन कर उसे 'सुगंधा' बनाता है।

निश्चय ही अत्यंत विनम्र शिल्पी है यह जल जो ऊँचाइयों तक ऊपर उठता है और फिर उमड़-घुमड़कर साँवरे मेघों का रूप धारण कर गगन में सर्वत्र छा जाता है। इसके मनोहारी सौंदर्य का दर्शन कर धरती उल्लास से भर उठती है। मयूर मेहा... मेहा... बोलता हुआ पंख खोलकर नाचने लगता है। कोयल कुहू-कुहू की रटन से सबके कानों में अमृतरस घोलने लगती है। पेड़-पौधे झूम-झूमकर उन मेघों की अभ्यर्थना के छंद रचने लगते हैं। जब इन कारे-कजरारे मेघों से जल की बूँदे शीतल फुहार बनकर झरती हैं तो पावस ऋतु छमछम करती आ धमकती है।

और इस जल की विनम्रता तब देखने योग्य होती है कि अपने अवदान-अपनी महत्ता से अनजान, वह अमित ऊँचाइयों से नीचे उतरता है, उतरता ही जाता है। धारा के साथ मिलकर कल-कल-कल करता, उमंग भरा चल पड़ता है, पुनः उसी सागर की ओर जहाँ से वह वाष्प बनकर उठा था। फिर जैसे जीव ब्रह्म से प्रकट होकर संसार की लंबी यात्रा करता हुआ अंत में ब्रह्म ही में समा जाता है, उसी प्रकार सागर का जल सागर में ही समा जाता है।

जल आदि से अंत तक सृजन करता ही रहता है। निर्माण इसका सहज स्वभाव है। किसी सरोवर के बंध में बँधा रहने पर भी उसका निर्माण कार्य बंद नहीं होता। सरोवर में प्रातःकाल दिवाकर की प्रथम रश्मि का स्वागत करने को जल का आत्मज कमल जब अपने पाटल खोलता हुआ आकाशोन्मुख होकर विहँस उठता है तब ऐसा प्रतीत होता है जैसे चेतना अपने ही बंधन से मुक्त होकर उस परम चैतन्य पुरुष के साथ एकाकार हो जाने को तत्पर है।

एक बात और यह महान शिल्पी जल, हम मानवों को शिक्षा-ज्ञान भी दे रहा है। आवश्यकता है उसके संकेतों को समझने की, पहचानने की।

२४ मार्च २०१४

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