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ललित निबंध

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बरगद बाबा
- डॉ. ओम प्रकाश सारस्वत


करारविन्देन पदारविन्दं मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम्।
वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालमुकुन्दं मनसा स्मरामि।।

एक दिन जब मैं भागवत के इस श्लोक की रमणीयता पर विचार कर रहा था। तभी वटपत्र के बहाने अचानक मुझे मेरे गाँव के बरगद बाबा का ध्यान आ गया। मुझे लगा-हो, न हो, यह बरगद भी प्रलयकाल में शेष उस वटवृक्ष का ही कोई वंशज हो। यह भी संभव है कि उसका कोई संबंधी ही यहाँ आकर बस गया हो। आर्य ऐसे ही तो फैले संसार में। बरगद भी वृक्षों में आर्य है। इसकी जातियाँ, प्रजातियाँ, उपजातियाँ दुनिया के प्रायः सभी देशों में हैं। फिर आर्य अर्थात् श्रेष्ठ जनों का फैलना अच्छा ही कहा गया है। सुनते हैं, गुरुनानक देव ने एक गाँव वालों की इसलिए उजड़ जाने की कामना की थी, क्योंकि वे लोग बेहद भले थे। गुरु के मत में ऐसे भले लोग सर्वत्र फैलने चाहिए। मुझे लगता है, बालमुकुंद ने जब देखा कि वटपत्र ने उसे इतने भीषण जलप्रवाह में भी तमाम जलग्राहों के बीच से हथेली पर फूल की तरह सँभाले रखा तो अवश्य चाहा होगा कि ऐसे हितकारी-परोपकारी वृक्षों का परिवार यदि जगह-जगह बस जाए तो विश्व का भला हो जाएगा।

अंग्रेजी में यह वट ‘बैनियन’ कहलाता है तो लोक में लोग इसे ‘बड़’ या ‘बरगद’ बोलते हैं। संस्कृत की पोथियों में यह न्यग्रोध, क्षीरपादप, बहुपाद, एवं सहस्रपाद कहा गया है। ‘पंचतंत्र’ में तो अनेक कथाएँ इस महावृक्ष के इर्द-गिर्द घूमती हैं। वट की शाखाओं से लटकती जड़ें ‘पाद’ या ‘प्ररोह’ कहलाती हैं। ये जड़ें जमीन से जुड़कर एक दूसरे वृक्ष को आकार देती हैं। कोई भी सदंश जब वसुधा से जुड़ता है तो सिद्धि पा जाता है। सारे अवतार इस मिट्टी में खेल, इससे जुड़कर ही लोकप्रसिद्ध हुए हैं। बरगद के सैकड़ों, हजारों प्ररोह क्रमशः अनेक वटपादपों को जनते चलते हैं। लोग इसलिए इसे ‘सहस्रपाद’ अथवा ‘सहस्रभुज’ कहते हैं।

बाबा की सत्ता और प्रतिष्ठा, इसका आकार और पराक्रम एवं इसकी मस्ती और प्रभाव सब अव्वल दरजे के हैं। इसकी छाया और माया दोनों धनी हैं। भयावह उत्तप्त, आग उगलते मौसम में यदि कोई आतपहर है तो यह बरगद। यह गरमी में छाया का वरदान ही नहीं अपितु ताप में शीतल झोकों का प्रसाद है। दुनिया के तमाम कूलरों से ज्यादा ठंडी और स्फूर्तिदायक हवा है इसकी। कहा भी है-
कूपोदकं वटच्छाया तरुणी चेष्टिकागृहम्।
शीतकाले भवेदुष्णां उष्णकाले तु शीतलम्।।

मुझे याद है, गाँव में जेठ की गरमी में ताँबे-सी तपी धरती पर, खलिहान में गेंहूँ के दाने निकालते समय जब खोपड़ी गरम और मुँह लाल हो जाता था, एक-एक नस जब पानी माँगती थी और समूचा अस्तित्व छाया-छाया पुकारता था, उस समय यही बाबा बरगद अंततः शीतल प्राणोदक छाँव से आहत तन-मन को राहत पहुँचाता था। उस कड़ी धूप में अम्मा कहती-जा, बड़ के नीचे बैठ जा। बापू कहते-जा, थोड़ा छाया में विश्राम कर ले और बाबा दोनों को डाँटते हुए कहते-बच्चे को क्यों इतनी धूप में ले आते हो! तभी ममता, दया और सहानुभूति पाकर परम उदार इस बरगद की शरण में चला जाता। बाबा मुझे पास बिठाकर अपने परिवारजनों से कहते-अरे देखो, एक सरल ब्राह्मण बालक आया है। इसे जल पिलाओ, इसका आतिथ्य करो। ऐसे विनीत, संस्कारी, कुलीन बालक रोज-रोज घर नहीं आते। फिर अचानक आया हुआ व्यक्ति तो अतिथि होता है अतिथियों को देवों की तरह सत्कारना चाहिए। हमारे शास्त्रों में ‘अतिथि देवो भव’ की बड़ी महिमा है। बस फिर क्या? बाबा का आदेश पाते ही विनीत बेटा आसन दे जाता, सुशील बहू झट से पंखा ले आती, बाबा की आज्ञाकारिणी पत्नी गुड़ का शरबत लेकर बैठ जाती और प्यारी बेटी ढेर सारे फल। इतना प्रेम-आदक पाकर तन-मन प्रफुल्लित हो उठते। बाबा के परिवार की यह अहैतुकी कृपा रह-रहकर चित्त को द्रवित कर देती। मैं इस उपकार को पाकर सोचता कि दुनिया कितनी भली है। पर आज जब उस दुनिया और इस दुनिया की तुलना करता हूँ तो पाता हूँ कि भिन्न-भिन्न प्रकृति वाले दो लोग एक-दूसरे के विरुद्ध खड़े हैं और दोनों एक-दूसरे को तर्जित कर रहे हैं।

हमारी संस्कृति में पीपल को विष्णु तथा वट को शिव कहा गया है। ‘अश्वत्थरूपी विष्णु स्याद् वटरूपी शिवो यतः।’ गाँवों में पीपल और वट की पूजा साथ-साथ देखी जा सकती है। शैवों और वैष्ण्वों के झगड़े वहाँ नहीं हैं। वहाँ कोई बड़ाई-छोटाई भी नहीं है। धर्म के मतभेदों से भी मुक्ति है। वहाँ दोनों ही वृक्ष लोकोपरक हैं और दोनों ही देवतुल्य।

भारत में आज भी कल्याण-हेतु सौभाग्यवती स्त्रियाँ "वटसावित्री" का आयोजन करती हैं। "रामायण" में वनवास प्रसंग में एक स्थान पर सीता यमुना पार कर देवतरू महान्यग्रोध पादप को प्रणाम करके अपने पति की कामना करती हैं। वनस्पतियों के प्रति मानव के सद्भाव तथा उनसे आत्मीय संबंधों के संदर्भ में ऋषियों की समत्वसंपादिनी दृष्टि अपरिमेय है। वृक्ष, क्षुप और लताएँ हमारे यहाँ फैमिली मेम्बर्स की तरह भी हैं और देवतुल्य भी।

संस्कृत में पाँच वृक्ष क्षीर वृक्षों में गिने जाते हैं जिनमें पीपल, पाकड़, कटह, गूलर और वट सम्मिलित हैं। वट की शिरा-शिरा, पत्र-पत्र से दूध निकलता है, फलतः इसे "क्षीरपादप" भी कहते हैं। भारत में साधु समुदाय वट के दूध से अपनी जटाएँ बढ़ाता है। इस दूध में जोड़ने की अपार सामर्थ्य है। ग्रामीणों का नेचुरल फेविकोल है यह। वन-गमन के समय गंगा पार उतरने से पूर्व राम ने निषादराज से वट का दूध लाने को कहा था, ताकि उससे वे अपनी जटाएँ बना सकें-
जटाः कृत्वा गमिष्यामि न्यग्रोध क्षीरमानय।
तत्क्षीरं राजपुत्राय गुहः क्षिप्रमुपाहरत्।।

वट चूँकि अदृश्य पुष्प है, अतः यह वनस्पतियों में गिना जाता है। वैसे प्रकृति का कमाल अनूठा है। यहाँ बिना फूल (दिखे) ही फल उभर आते हैं। बिना कारण के भी कार्य हो जाता है। कहा भी गया है-
अपमेघोदयं वर्ष अदृष्टकुसुमं फलम्।
अतर्कितोपपन्नंवो दर्शनं प्रतिभाति मे।।

अतर्कित दर्शन निश्चय ही आह्लाद का जनक है। यदि आप किसी भी परम श्रद्धास्पद अथवा अपने प्रिय को अचानक पा लें तो खुशी का कोई ठिाकाना नहीं रहता। मैं समझता हूँ, ऐसी हालत सबकी होती होगी। फिर जब आपकी आँख न फड़कती हो, आपकी बाँह न फुरती हो, आपका हदय न धड़कता हो, आपके घर सुबह-सुबह किसी कौए ने किसी का आगमन न उचारा हो, पानी भरते समय आपके घडे में कोई तिनका न भरा हो- और फिर भी कोई आपके घर आपका आदरणीय, आपका प्रिय, आपका चहेता, आपका प्यारा, आपका आत्मीय आ जाए तो सच मानिए, वह स्थिति असंख्य सुखद चाँदनियों-सी, अतुलनीय सुनहरी प्रभातों-सी, असीम मधुर प्रहरों-सी, प्रसन्नतादायक, आत्मीयता प्रकाशक, उपलब्धिपरक तथा परम नेत्रोत्सवकारिणी होती है। मन अनायास ही गुनगुनाने लग जाता है, दिल खिल-खिल जाता है, आँखें चंचल हो जाती हैं, चाल झूम-झूम उठती है, रोम-रोम हर्षित होता है और पूरे व्यापार में एक अलग प्रकार का अंदाज झलक उठता है।

मई-जून के महीनों में आकाश से जब दाहक-पावक सी उतरती है धूप, हर पोखर-तालाब, बावड़ी-स्रोत के जल को मार्तंड पी जाता है अर्क समझकर, प्राण जब त्राहि-त्राहि करते हैं तब ऐसे बरगद बाबा के रक्ताभ, नवजात, अति कोमल, सुकुमार, अति बाल-चपल, पल्लव ही देते हैं चुनौती उस आग उगतले परिवेश को। तब उन अत्यंत ज्वलनशील रश्मियों का मुकाबला करते हैं बरगद के वे नन्हें-नन्हें "कुसुमादपि मृदूनि किसलय वज्रादपि कठोराणि" बनकर।

वृक्षों के पितामह इस वृक्ष के फल यदि लघु-लघु हैं तो बीज लघु से भी लघुतर-लघुतम। इस बीज बिंदु में इस वृक्ष विशेष की सत्ता परमात्मा के असंख्य अजूबों-सी है। परमाणु में जैसे महत्, विराट् में जैसे अणु और अंड में जैसे ब्रह्मांड है ठीक वैसे ही है वट के लघु बीज में विशाल बरगद का निवास। जानकार वट को पावन मानकर ही नहीं पूजते अपितु इसे घर के वैद्य, फैमिली डाँक्टर अथवा सी.एम.ओ. जैसा आदर देते हैं। यह सलाह ही नहीं, दवाई भी देता है। यह जहाँ अपने ममतालु दूध से दंतशूल, कर्णशूल, कर्णस्राव, व्रण एवं संधिशोथ को मिटाता है वहाँ अपनी जटाओं के लेप से सौंदर्याकांक्षी रमणियों के स्तन-शैथिल्य को काठिन्य में बदलता है। स्तन सर्जरी करानेवाली कामिनियों को इस ओर ध्यान देना चाहिए। फिर यही दूध जब बताशे में डालकर सेवन किया जाता है तो यह प्रमेहहर, शुक्रस्तंभक एवं कफ-पित्तशामक हो जाता है। औढरदानी बाबा जब देने लगता है तो हजारों भुजाओं से लुटाता है और जब चाहने लगता है तो हजारों प्रेममयी नजरों से। "अथर्ववेद" में संभवतः ऐसे ही अतिशय उदार विशालकाय वृक्षों को देखकर लिखा होगा- "शतहस्त समाहर सहस्रहस्त संकिर।" दुनिया में अर्जन और आवंटन का इससे बड़ा लाक्षणिक प्रयोग और क्या हो सकता है?

मैं जब भी इस गुणकार महावृक्ष पर साहित्यिक दृष्टि से विचारता हूँ तो पाता हूँ कि अपने बीज रूप में यह ब्रह्मा के समान, प्रसार में पुराणों की तरह और प्रकार में जटिल संहित ग्रंथों की भाँति है। यह यथार्थ से आदर्श और आदर्श से आदर्शोन्मुख है। सांसारिकता और व्यावहारिकता में इसका जवाब नहीं। आत्मस्थता और निःसंगता में यह अद्वितीय है। निस्पृहता और निर्वैरता इसकी चारित्रिक विशेषताएँ हैं। त्याग और क्षमाशीलता, तितिक्षा और उदारता इसके पर्याय हैं। दुनिया के सारे वृक्ष यदि काव्य हैं तो यह उनमें महाकाव्य।

वट और पीपल गाँव, नदी-तट, देवालय आदि अनेक स्थलों को अपनी उपस्थिति से सौभाग्यवती बनाते हैं। कहते हैं, वट को घर या गाँव की पूर्व दिशा की ओर रोपना चाहिए। पता नहीं आजकल लोग इसका ध्यान रखते हैं या नहीं। शास्त्र-वचन है कि गाँव की पूर्व दिशा की ओर लगा वटवृक्ष शुभ होता है। आज तक कितने ही यायावरों, गड़रियों, तपस्वियों एवं याज्ञिकों ने इसके सान्निध्य में विश्राम, तप, यज्ञ करके अपने मार्ग को निष्कंटक बनाया है। कितने ही पुण्यावसरों पर इसके आँगन में उच्चारे गए स्वरित वचनों को सुन-सुनकर कई पवित्रात्मा हुए होंगे। मैं समझता हूँ, जिसके कोटरों और प्रच्छाया के नीचे कीड़ी से कुंजर तक जीवन पाते हों उस वृक्ष की एक-एक शिरा, उसका एक-एक पत्ता, उसकी एक-एक डाली, उसकी एक-एक जड़ धन्य है। प्ररोह-दर-प्ररोह बनता-फैलता यह परिवार संसार का सबसे बड़ा वृक्ष परिवार कहा जा सकता है, जिसकी कई पीढ़ियाँ एक साथ एक छत के नीचे रह रही हों।

भारत के अनेक स्थानों पर वटवृक्षों से जुड़ी अद्भुत कथाएँ हैं। प्रयागराज के वटवृक्ष से तो कई विश्वास और कथाएँ बँधी हैं। ह्वेनसाँग और फाह्यान जैसे चीनी यात्रियों ने इस अक्षयवट का अपनी यात्राओं में वर्णन किया है। ह्वेनसांग के समय लोग इस वृक्ष से यमुना में छलाँग लगाकर स्वर्ग-प्राप्ति की कामना से प्राण तक त्याग देते थे। शायद इसीलिए यह वृक्ष 'यमप्रिय' के नाम से भी जाना जाता था। वैसे यह वटवृक्ष समस्त भारतवर्ष में कई-कई स्थानों पर, कई-कई शताब्दियों से अपनी सार्थकता बनाए हुए है। 'रामायण' का श्याम न्यग्रोध, 'हरिवंशपुराण' का भांडीर और सुभद्रवट, प्रयाग का अक्षयवट विश्व प्रवीरों की तरह वटवीरों के रूप में चर्चित हैं। इन पुण्यशाली पादपों को महाकाल भी सुबह-शाम नमस्कार करता है।
पर्यावरणवाले आज हवा, पानी, मिट्टी, वनों-उपवनों के प्रदूषण से चिंतित हुए हैं, परंतु हमारे मनीषी तो सृष्टि के आरंभ से ही अपने आस-पास के वातावरण, अपने परिवेश के प्रति चिंतालु थे। उन्होंने जल की शुचिता को सर्वोपरि मानकर उसे अन्यतम महत्व देते हुए विष्णु से जोड़ दिया। विष्णु की एक संज्ञा 'नारायण' है और नारायण का अर्थ है-जल का अधिष्ठातृ देव। शास्त्र-कथन है- 'आपो नारा इति प्रोक्ताः', अर्थात् नारा ही जल है। इस प्रकार नारा से नारायण।

अगर आपने कभी हमारे पवित्र संस्कार अवसरों पर पढ़े जाने वाले कल्याणकारी मंत्र स्वस्ति-वाचन पर ध्यान दिया हो तो पाया होगा कि इस मंत्र में इंद्र (जल का देवता), पूषण (पोषणकर्ता सूर्य-ताप-अग्नि), तार्क्ष्य (पक्षी जगत् का देव), बृहस्पति (ग्रह/नक्षत्रों का देव), पय (जल), पृथिवी (भूमि-मिट्टी), ओषधि (जड़ी-बूटियाँ), द्युलोक, अंतरिक्ष लोक, विष्णुलोक एवं वात वरूणादि समेत इनके विक्षोभकाल में होने वाले उपद्रवों से विश्व-रक्षा एवं शांति की सर्वतोभद्र कामना की गई है। क्या हमारे ऋषियों के समक्ष इस लोक और लोकांतरों में होने वाले प्राकृतिक उपद्रव और उनसे मुक्ति की चिंता विद्यमान नहीं थी। भारतीय संस्कृति को छोड़कर विश्व में कौन सी ऐसी संस्कृति है जहाँ प्रत्येक जीव-जात को किसी-न-किसी रूप में अपना हितैषी मानते हुए उसके श्रेष्ठांश की मान्यता दर्ज की गई है।

मित्रो! बाबा के महिम्न को शब्दबद्ध करना उसके सामर्थ्य को सीमित करना है। बाबा की प्रवृद्ध दाढ़ी, धूसर वर्ण, आशीर्वादी मुद्रा, दानी हाथ, प्रेमिल चक्षु और विश्वासी पाँव सब, सबके लिए आकर्षण और अनुकरण के विषय हैं। महायोगी का पत्र भर प्रयत्न भी बालमुकुंद के बहाने पूरी सृष्टि को बचाने की सामर्थ्य रखता है। बाबा! तुमने न जाने कितने प्रलयकालों में इस मानव जाति को अपनी पत्र-तरणियों पर सँभाला। सृष्टि के महान् उदय! मेरी तुमसे अनंत जिज्ञासाएँ हैं। हे महातरू! हो सकता है, एक दिन मेरी संततियाँ भी, मुझसे भी अधिक, जिज्ञासाएँ लेकर तुम्हारे पास आएँ और तुमसे असंख्य प्रलयवेलाओं समेत अपने पूर्वजों तक की सारी कथाएँ सुनाने की जिद करें। बाबा! मैं जानता हूँ, तुम बच्चों की जिद के आगे लुट-लुट जाते हो।

 २० जुलाई २०१५

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