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ललित निबंध

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लाल चंपा का पेड़
- डॉ. विद्युल्लता


उस मोड़ पर जाकर छोड़ दो... मरे जिए की गाथा...एक दोहराव, एक तिहराव में सिमटता है और उस मोड़ से आगे मुड़कर दस कदम की दूरी पर चलकर एक छोटी सी पुलिया के किनारे आलीशान बने घर के रोड साइड बनी बाउंड्रीवाल में लहराता लाल चंपा का अधेड़ सा पेड़ देखकर लगता तो है घर मालिक से उपेक्षित है, टहनियाँ दीवार से टकरा कर जमीन की ओर बेतरतीब सी फैली दिखाई देती हैं। लगभग हर दिन सुबह-सुबह गुजरना होता है चंपा के उस पेड़ के करीब से... बीच बीच में समय के अंतराल को भेदकर ढेर सी हँसी लाल चंपा की हर शाखा पर अलग-अलग गुच्छों में खिले फूलों पर हरदम खिलखिलाती सी नजर आती है।

रात में झड़ चुके जमीन पर पसरे फूलों को चुनना और सुबह को खिले ताजे फूलों की डालियों को आहिस्ता से अपनी ओर झुकाना, फिर पैरों को थोड़ा ऊपर की ओर उठाकर हाथों से उन्हें तोड़ना, तभी चम्पा के नन्हें फूल शरारत से बेतहाशा खिलखिलाते अपनी पंखुड़ियों की सतह पर ठहरी ढेर सी ओस की बूँदों को चेहरे पर बिखेर देते हैं। वो ठंडक एक सुकून देती है, उन्हें यों तोड़ना, दुःख तो होता है लेकिन फिर भी जमीन पर गिर कर मिटटी में मिल जाने से बेहतर है कि वो मेरे साथ रहें और इस तरह उन्हें चुनकर साथ घर ले आना सुबह की सैर से लौटने के क्रम में निश्चित है।

हर दिन वो साथ आते हैं। ड्राइंगरूम में चीनी मिटटी के गुलदान में उन्हें बड़ी तरतीब से सहेज लेना फिर दिन भर आते जाते उन्हें निहारते उनकी खुशबू को आत्मसात कर लेना भी जीवन क्रम में शामिल है। ड्राइंगरूम की खिडकियों के शीशों पर काई रंग के पर्दों से इस बारिशी मौसम में भी छनकर आती धूप में चंपा के फूल उन्मत्त हो उठते हैं। साल भर उदास रहने वाले चम्पा फूल बारिश में जीवंत हो उठते हैं, एक मौसम घर में पसर जाता है मानो सुरमई पहाड़ों से उतरती-इतराती शाम हलकी धूप संग घर लौटने की ख़ुशी में हो, पर शाश्वत का सुख कुछ नहीं और अनंत भी कहाँ?...लौट जाओ उस तक, जिद्द ना करो, प्रतीक्षारत हो जो तुम्हारे लिए उसका प्रेम बनाएगा तुम्हें एक पूरा मनुष्य... और लौटना ही होता है उस तक...

चम्पा कान में गुनगुनाती है- मेरा भरोसा हासिल करो और देखो मेरी ओर! बेहद निस्संग और उदास दिनों को छोड़ दो पीछे... जैसे फेंक देते हो तुम सूखे मुरझाये चंपा के फूलों को बागीचे के किसी गमले में या कचरे के ढेर पर और देखते हो उसमें अपना कल... उम्मीद से ज्यादा उम्मीद सच बुरी आदत है। चंपा के ढेर से फूल सन्नाटे के स्वर में घुलते हें एक बंसी की टेर में वो...लेकिन वो चीजों को समझता ही नहीं, मुखातिब हो जाती हूँ अक्सर यों ही चंपा से... तुम समझ जाओ शायद जुड़ाव का धागा बीच-बीच में टूटता है फिर जुड़ता है, पूर्णता के पहले टूटे हुए आलाप की तरह... देखो ना सुबह तक तुम्हारा साथ भी छूट जाएगा अब कोई ऐसा मुकाम नहीं जहाँ तसल्ली मिले। बोलो क्या एक कतरा सुख हासिल करना इस ब्रह्मांड में इतना मुश्किल है? कैसे इतना खिलखिलाते हो चम्पा... थोड़ा रुकना होता है शायद जवाब मिले... जाओ सफेद चम्पा के पास तुम्हें वहाँ चम्पई शांति मिलेगी और संतोष भी...। एक मन्त्र मुग्ध स्थिति और आँखें मुंद जाती हैं। इस खालीपन में कितनी कोमल प्रतिध्वनित है तुम्हारी खुशबू...

उसे याद आता है एकांत पार्क में खड़ा एक कम शाखा वाला लोहे की बेंच के पीछे खड़ा इतराता सा सफेद चम्पा... नानी की रसोई के बाड़े में खड़ा अनगढ़ चम्पा, एक छोटे बोन्साई पॉट में मजबूती से खड़ा मेरा पंद्रह साला सुगठित चम्पा, डा॰ सुनीता शर्मा के लान में उदास खड़ा चम्पा, माँ के कमरे की खिड़की से लगा खुशनुमा चम्पा, यूनीसेफ़ की कार पार्किंग में खड़ा बूढ़ा, छोटे छोटे फूलों वाला चंपा पेड़, अपने सलोनेपन के साथ अपनी खुशबू बिखेरने और संजोये रखने में माहिर, लेकिन पिता के हाथों सौ बिलपत्र के साथ शिवलिंग पर रखा हायब्रीड चम्पा का वो दुधिया फूल आँखों में टंका रह जाता है। कहीं खुश तो कहीं उदास अपनी अपनी नियति में एक तटस्थ भाव लिए गहरे हरे और लम्बे नुकीले चुस्त-दुरुस्त पत्तों में अन्दर के रिश्तों को बखूबी जीवित रखे हुए है।

एक निरपेक्ष भाव से स्थितियों में सापेक्ष हो चम्पा खिलता ही रहता है। भूल जाना और याद रखना अलस्सुबह लाल-सफेद चम्पा के फूलों को समेटना और नए दिन की शुरूआत करना कितना सुखद है और अपनी अंश भर डाली से पुनः एक भरा पूरा वृक्ष बन जाना, अपने जीवट लेक्टोजन (दूध) से किसी भी मिटटी में आसानी से पनप जाना, जहाँ से टूटना (कट जाना) वहीं से फिर जीवन शुरू कर पाना बस तुम्हारे ही बस की बात है। यों अपनी खासियत की वजह से तुम ख़ास हो, मेरे पसंदीदा भी... तुम्हें गूगल सर्च करके तुम्हारे नामों और किस्मों के बारे में तो जाना जा सकता है पर तुम्हारी आत्मा और तासीर तक पहुँचना कठिन है। सिर्फ प्यार और नेक नियति से तय किया जा सकता है कि चम्पा आखिर तुम कैसे हो...

प्यार करते हुए
अपनी आत्मा को गवाह बनाना
और याद रखना
उगती पत्ती तुम्हें और झरती तुम्हारे प्यार को बना रही है (अज्ञात)

१५ सितंबर २०१६

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