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							भारत बोध- 
							डॉ. बद्रीप्रसाद पंचोली
 
 
							जम्बूद्वीप का क्षेत्र विशेष है-भरत-खण्ड अर्थात् 
							भारतवर्ष। पुरातात्विक और इतिहासविद् कहते हैं कि यह 
							भरत की भूमि है। भरत ऋषभ के पुत्र थे। दुष्यन्त के 
							पुत्र सर्वदमन भरत थे-‘जृम्भस्व सिह दन्तास्ते 
							गणयिष्यामि’ कहने वाले। तीसरे भरत दशरथ पुत्र-राम के 
							छोटे भाई। भरत विश्व का भरण पोषण करने वाला होता है-
							विश्व भरण पोषण कर जोई। ता कर नाम भरत अस होई। 
							(तुलसीदास)
 
 इतिहास-पुरुष भरतों का नाम हम भूल भी सकते हैं, पर 
							विश्व के भरण-पोषण का दायित्व निभाने का बोध और 
							तज्जनित पुरुषार्थ का स्वर भारत को भारत बनाता है 
							जिसके विषय में कहा गया है-
 यद्यपि दुर्बल आरत है- पर भारत के सम भारत है।
 
 पूर्व समुद्र (प्रशान्त महासागर) से पश्चिम समुद्र 
							(भूमध्य सागर, कृष्ण सागर, मृत सागर और लाल सागर का 
							एकीकृत रूप) तक फैला हुआ देश भारत है। आम आदमी इसे 
							उदयाचल से अस्ताचल तक मानता है। उदयाचल इण्डोनेशिया 
							में है-प्रशान्त सागर के तट का भाग और अस्ताचल सिनाई 
							प्रायद्वीप को टेरेसां पर्वत। इसी के लिए विष्णु पुराण 
							में कहा गया है कि देवता इसके गीत गाते हैं और इसमें 
							जन्म लेने को लालायित रहते हैं-
 गायन्ति देवाः किल गीतिकानि, धन्योऽयं भारतभूमिभागः।
 स्वर्गापवर्गास्पद मार्गभूते भूयन्ति भूयः पुरुषाः 
							सुरत्वाद्।।
 
 यह देश है- दिश्-अतिसर्जने धातु से विकसित देश जिसका 
							अर्थ है नवनिर्माण के लिए सर्वथा उपयुक्त। यह देवभूमि 
							है, योगभूमि है, त्यागभूमि है, कर्मभूमि है, धर्मभूमि 
							है, यज्ञभूमि है। पुराणों के अनुसार ‘‘वर्षोऽयं भारतं 
							ज्ञेयं भारती यस्य सन्ततिः।’’ यह आर्यावर्त है- 
							आर्यभूमि- श्रेष्ठ पुरुषों की भूमि। इसे आर्यावर्त 
							इसलिए कहा जाता है कि इसमें आर्यों का बार-बार 
							प्रादुर्भाव होता है- आर्याः आवर्तन्ते अस्मिन् पुनः 
							पुनः इति। श्रेष्ठ कर्म करने वाला आर्य कहलाता है। 
							आर्य बनने की ललक तो मनुष्य मात्र में होती है। 
							भारतीयों में विशेष रूप से प्राप्त है।
 यों तो अथर्ववेद के अनुसार सभी धरती माता की सन्तान 
							हैं-
 माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः। भारतीय भारतमाता की 
							सन्तान कहलाकर गर्व अनुभव करते हैं। भारत में आर्यत्व 
							की ललक जी, अजी (आर्य*अज्ज*अज्जी*अजी) शब्द का सम्बोधन 
							में प्रयोग किए जाने से प्रकट होती है। इस प्रकार के 
							प्रयोग सारा भारतीय समाज करता है। स्त्री और पुरुष 
							दोनों इस प्रिय सम्बोधन का प्रयोग करके गर्व अनुभव 
							करते हैं।
 
 वेद का वचन है कि परमेश्वर ने यह भूमि आर्यों के लिए 
							प्रदान की है। वेद मानवता का संविधान है। वेद माता है। 
							वेदमाता की लोरियों सुनकर जातक मनुष्य बनता है। वह 
							व्यक्ति इसलिए है कि उसमें वेद-पुरुष व्यक्त होता है। 
							मनुष्य व्यक्त होता है। वेद में जितने मंत्रद्रष्टा 
							ऋषि हैं उनकी मनुष्य बनने की पृथक-पृथक दृष्टियाँ हैं।
 
 वेद की दृष्टि से पैदा होने वाला प्रत्येक व्यक्ति ऋण 
							होता है- ऋणं ह वै जायमानः। मानवी माता से पैदा होना 
							ऋण मनुष्य होता है। उसे जीवन भर साधना करके ऋण से धन 
							मनुष्य बनना होता है। ब्राह्मणी से ऋण ब्राह्मण पैदा 
							होता है। उसे ऋण से धन ब्राह्मण बनना होगा। क्षत्राणी 
							से पैदा हुए ऋण क्षत्रिय को क्षात्र धर्म का पालन करके 
							धन क्षत्रिय बनना होता है। वैश्य माता से ऋण वैश्य 
							पैदा होता है उसे अपना धर्म निभाते हुए धन वैश्य बनना 
							होगा। इसी तरह शूद्रा माता से ऋण शूद्र पैदा होता है। 
							उसे सेवाधर्म का पालन करते हुए धन शूद्र बनना होगा। 
							तभी मानव समाज बनता है।
 
 भारती भा-रत (प्रकाश में लीन है। इसलिए भारतीयों को 
							प्रकाशमय जीवन अपनाना होता है। भारत में दो राष्ट्र 
							शब्द प्रचलित हैं। पहला राष्ट्र शब्द राज् धातु से 
							बनता है इससे त्र प्रत्यय पूर्वक राष्ट्र शब्द बनता है 
							जिसका अर्थ है-महत्तम प्रकाशयुक्त, राजमान्, 
							द्युतिमान्, दीप्तिमान्। श्रेष्ठ कर्म करने से सत्त्व 
							गुण उत्पन्न होता है। सत्त्वं लघु प्रकाशकम्। सत्त्व 
							गुण सम्पन्न मनुष्य राष्ट्र है। वह जहाँ रहे वह भूखण्ड 
							भी राष्ट्र कहलाता है। दूसरा राष्ट्र शब्द रा धातु से 
							ष्ट्रन् प्रत्यय पूर्वक बनता है। इसका अर्थ है-अतिशय 
							त्याग। भारत को त्यागभूमि इसी कारण कहा जाता है।
 
 भारत की जीवन-शैली यज्ञ-योगमयी है। दूसरी भोगभूमि के 
							लोगों की जीवन शैली भोगमयी होती है। अहिंसा भारतीय 
							जीवन शैली का नाम है जिसका अर्थ है-आत्म प्रकाशन की 
							चाह-अह्-प्रकाशने से विकसति अ-हिंसा शब्द से भिन्न 
							अहिंसा शब्द। भारतीय जीवन शैली की संज्ञा हिन्धु भी 
							है- हिमं धुनोति इति-अपनी आन्तरिक जडता को कँपाने 
							वाला। विप्र शब्द का अर्थ भी कँपाने वाला है-वेयते। 
							कहा गया है-
 जन्मना जायते विप्रः संस्काराद् द्विज उच्यते।
 संस्कार माता से मिलते हैं। पिता पालनकर्ता होता है। 
							आचार्य सदाचार की शिक्षा देता है। इसीलिए कहा गया 
							है-मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव। इसके 
							साथ अतिथि देवो भव भी कहा गया है। अपरिचित व्यक्ति भी 
							आ जाय तो उसे देवता की तरह सम्मान करने वाले बनो।
 
 भारत अपनी ‘परिवार’ भावना के कारण विश्व में अपने 
							विशेष पहचान बना पाया है। घर और परिवार पर्यायवाची 
							शब्द है। वेद के अनुसार परिवार का निर्माण कुलवधू करती 
							है- जायेदस्तम्-जाया इत् अस्तम्-जाया ही घर है। मनु ने 
							इसी आधार पर कहा-गृहिणी गृहम् उच्यते। परिवार वह है 
							जिसमें प्रत्येक सदस्य को अपने दोषों को दूर भगाने का 
							अवसर मिलता है। परितः वारयति स्वदोषान् यत्र सः 
							परिवारः।
 
 परिवार संसार का सबसे बडा विश्वविद्यालय है। सबसे बडा 
							चिकित्सालय है। सबसे बडी प्रशिक्षणशाला है। सबसे बडा 
							साधना केन्द्र भी है। परिवार में प्रशिक्षित व्यक्ति 
							ही उदारचरित बनता है। अपने पराये का भेद भूल जाता है। 
							उसके लिए सम्पूर्ण वसुधा एक कुटुम्ब की तरह से हो
 जाती है-
 अयं निजः परोवेति, गणना लघुचेतसाम्।
 उदारचरितानां तु वसुधैव कुटम्बकम्।। (मनुस्मृति)
 
 भारतवासी भौम ब्रह्म की उपासना करते हैं क्योंकि भूमि 
							ही राष्ट्र प्रेम का आधार है। महर्षि वाल्मिीकि ने कहा 
							है।
 जननी जन्मभूमिष्च स्वर्गादपि गरीयसी।
 तुलसी के राम भी कहते हैं- जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। 
							उत्तरदिसि बह सरयू पावनि।
 राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने गाया है- हे मातृभूमि 
							तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की।
 सब मातृभूमि तू सन्तान है इसलिए सारा भारत आत्मीय जनों 
							का एक परिवार है। उनमें काई छोटा-बडा नहीं है। वेद में 
							कहा गया है- मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि समीक्षा मेह 
							अर्थात हम संसार के सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि 
							से देखें।
 हम सभ्य देश के निवासी हैं। हमने युगानुरूप संविधान 
							बनाया है जिसके अनुसार भारतवर्ष की सीमा में रहने वाला 
							प्रत्येक व्यक्ति भारत-नागरिक है। बंटे हुए स्वर उनको 
							बांट न सकें-यह व्यवस्था हमको करनी है।
 
 हमारी भाषा संस्कृत भाषा है जिसे हम देववाणी कहते हैं। 
							उसक शब्दों को हिन्दी और सभी प्रान्तीय/जनपदीय भाषा 
							में देखा जा सकता है। उसमें आवश्यकता के अनुसार यथेष्ट 
							शब्द बनाने की क्षमता है। हम यह भी मानते हैं कि वाणी 
							मनुष्य का सबसे बडा आभूषण है-
 वाण्येका सभलंकरोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते।
 क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्।।
 नामकरण के अवसर पर बालक की जिह्वा पर ‘ओउम्’ लिखकर 
							उससे पूछा जाता है-कोऽसि? किं नामधेयोऽसि, बालक बोल 
							नहीं सकता इसलिए कुल पुरोहित ही उत्तर देता है- 
							वेदोऽस्मि वेद नामधेयोऽस्मि। कुल पुरोहित किसी का 
							नामकरण संस्कार करवाये या न करवाये, पर हमारी जीवन 
							दृष्टि है कि पृथ्वी पर सब व्यक्ति का नाम वेद है। 
							सारी मानव जाति एक है-वेद स्वरूपा है। विश्व एकता का 
							यह सबसे बडा प्रमाण है।
 
 हम पुरुषार्थ में विश्वास करते हैं। धर्म, अर्थ, काम, 
							मोक्ष को अपनी दृष्टि से अंगीकार करते हैं। मानकर चलते 
							हैं ‘वेदात् सर्वं प्रसिद्धयति’ तथा यह भी कि 
							‘वेदोऽखिलो धर्म मूलम्’-वेद अखिल धर्म का मूल है।
 हमारी पहचान चरित्र से होती है-हम संसार भर को चरित्र 
							की शिक्षा देते रहे हैं-
 एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मना।
 स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा।। ?
 
          १ जनवरी २०१८ |