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ललित निबंध

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जन्मभूमि से कर्मभूमि की ओर

- डॉ. महेश परिमल

वे लौट रहे हैं जन्मभूमि से कर्मभूमि की ओर...पिछली बार जब चारों ओर से निराशा के बादल घिर आए थे, तब उन्होंने कर्मभूमि की ओर कूच करना शुरू किया था। तब उन्हें अपने पाँवों पर भरोसा था। इसलिए पूरी गृहस्थी सिर पर उठाए वे अपने हौसलों के साथ निकल पड़े थे। इस बीच कई किस्से-कहानियों ने जन्म लिया। मौतें अखबारों की सुर्खियाँ बनीं। मीडिया ने हाथों-हाथ लिया। पर समाधान कुछ नहीं हो पाया। आश्वासनों की ट्रेनें खूब चलीं। कुछ ट्रेनों से लोग घर पहुँचे भी। सोचा-अब यहीं जीना है, यहीं मरना है। अपनों के बीच रहकर सुख-दु:ख बाँटेंगे। अपनों के बीच अपने बनकर रहेंगे। पर यह एक सपना ही था, जो जल्दी ही टूट गया। सपने को टूटना ही था, क्योंकि इसकी बुनियाद भ्रम के कुहासे में लिपटी थी। भ्रम यह था कि हमारा घर ही सब कुछ है। बाकी सब माया है। बस इसी माया ने ही उन्हें छल लिया।

इस बार वे सभी एक टीस के साथ अपनी कर्मभूमि की ओर जा रहे हैं। ये टीस है अपनों से मिले दर्द की। सच कहा जाए, तो घर उन्हें रास नहीं आया। सभी घर तो पहुँचे थे कि अब हम भूखों मर जाएँगे, पर यहीं रहेंगे। पर कुछ ही दिनों बाद पता चला कि जिन अपनों के लिए वे दिन-रात एक करते रहे, वही अपने उन्हें कुछ हिकारत से देखने लगे थे। घर आकर वे अपने परिवार के साथ माता-पिता, भाई-बहन से मिले, तो उनके व्यवहार में वह गर्माहट नहीं दिखाई दी। पिता को वे भाई अधिक अपने लगे, जो उनके पास थे। दूर होने वाले बेटे का नाता उसके द्वारा भेजी गई राशि से नापा जा रहा था।

पूरा परिवार पिता की शरण में आया, तो वे उन्हें खटकने लगे। गाँव में रोजगार कहाँ था। जो उनके परिवार की जरूरतें पूरी करता। बच्चों पर शहरी जीवन हावी था। उनका नाश्ता ही ब्रेड-बटर से होता था। गाँव में यह चीजें कहाँ सुलभ थीं। फिर इंग्लिश मीडियम में पढ़ने वाले बच्चों को गाँव का जीवन नीरस लगता। उनकी दृष्टि में गाँव में कुछ भी तो नहीं था। शहरों की आपाधापी में माता-पिता इतने व्यस्त हो गए कि बच्चों को यह बताने की फुरसत नहीं मिली कि अपनी जन्मभूमि के बारे में कुछ बता पाएँ। इसलिए गाँव की हवा उन्हें भी रास नहीं आई। कहाँ जाएँ-क्या करें, इस तरह के द्वंद्व के बीच पूरा परिवार कसमसा रहा था। वे जिस काम में कुशल हो गए थे, वह कुशलता गाँव में किसी काम की नहीं थी। उनकी कुशलता ही उन्हें पुकारने लगी थी।

इस बार उनकी यात्रा विपरीत है, वे अब जन्मभूमि से कर्मभूमि की ओर निकल रहे हैं। इस बार वे पाँव का सहारा नहीं ले रहे हैं। उन्हें बुलाया जा रहा है काम के लिए, मजदूरी के लिए। इस बार ढेर सारे वादों की पोटली भी हैं उनके पास। अब उन्हें घर जाने के लिए मजबूर नहीं होना होगा। घर के लिए वे सभी भारी कदमों से निकले थे, पर अब सधे कदमों से वे कर्मभूमि की ओर जा रहे हैं। पिछली बार पाँवों का सहारा था, इस बार वे सवार हैं ट्रेनों, मालिक द्वारा भेजे गए वाहनों पर। कदम सधे हुए हैं। पर मन भारी है। घर छूटने का गम नहीं है, न ही अपनों से अलग होने का दर्द। मलाल इस बात का है कि नाते-रिश्ते दरकिनार हो गए। रिसने लगे थे रिश्ते...।

अब उन्हें समझ में आ रहा है कि वास्तव में अपनी कर्मभूमि को जन्मभूमि से दूर होना ही चाहिए। जन्मभूमि में हमारी पहचान हमारे परिवार के बड़े-बुजुर्गों से होती है। कर्मभूमि में हम खुद ही अपनी पहचान कायम करते हैं। कर्मभूमि में रोज ही नई चुनौतियाँ सामने आती हैं, जिसका मुकाबला हमें अपनी हिम्मत से करना होता है। जन्मभूमि के संस्कार ही कर्मभूमि में काम आते हैं। हमने देखा होगा कि जो अपने पैतृक व्यवसाय को पिता की कर्मभूमि में शुरू करते हैं, वे सफल नहीं हो पाते। पिता की कर्मभूमि हमारी जन्मभूमि होती है। हमारी सफलता वहाँ से दूर हमारा इंतजार कर रही होती है। पर हम अपनी जन्मभूमि में अपनी कामयाबी को तलाशते हैं। हमारे जीवन की पटकथा जन्मस्थान पर नहीं कर्मस्थल पर लिखी जाती है।

अब इन कर्मवीरों को समझ में आ गया होगा कि बचपन की जिन गलियों को हम छोड़ आए हैं, वे हमारी यादों में ही ठीक हैं। अब वहाँ जाकर जीना संभव नहीं है। नए रास्ते हमें अपनी कर्मभूमि में बनाने हैं। जहाँ हमारे रास्तों की हरियाली हमारे पसीने से सिंचित होगी। पग-पग पर समस्याएँ हमारी परीक्षा के लिए खड़ी होंगी। हमें इन्हीं रास्तों से गुजरकर अपने लिए नए रास्ते बनाने होंगे। जहाँ कामयाबी की इबारत लिखने के लिए हमारी मेहनत ही हमारे लिए कलम का काम करेगी। अपनापन तभी पनपता है, जब उसमें दूरी हो। करीबियाँ कई बार संबंधों में दरार डालने का काम करती हैं। पहाड़ को दूर से देखना ही अच्छा लगता है। करीब से वह बहुत ही उबड़-खाबड़ दिखाई देगा।

रिश्तों की परिभाषा में दूरी को अक्सर भुला दिया जाता है। दूर रहकर श्रमिकों को लग रहा था कि हमारा घर हमें बुला रहा है। पहले वे त्योहारों में कुछ दिनों के लिए जाते थे, तो उन्हें बहुत अच्छा लगता था। परिवार वाले भी उन पर जान छिड़कने लगे थे। पर इस बार जब वे वहीं रहने के इरादे से गए, तो सच्चाई का परदा हट गया। अब तक जो था, वह भ्रम ही तो था, सपने की तरह, पर अब जो है, वही है जिंदगी की असलियत। दूर रहकर ही रिश्ते निभाए जाते हैं। करीब रहकर तो केवल दुश्मनी निभाई जा सकती। इसलिए जन्मभूमि को अलविदा कहकर अपनी कर्मभूमि को प्यार करो, यही है जीवन का सच्चा सुख....।

१ जून २०२१

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