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फागुन लाग्यो जब से
- कंदर्प


मुम्बई में शीत ऋतु कुछ इस तरह आती है जैसे निम्न मध्यमवर्गीय घरों में वेतन। कब आयी और कब गयी पता ही नही चलता। लेकिन इस वर्ष शिशिर की शीतलता, मात्रा और अवधि दोनो में प्रचुर रही। दोपहर की धूप गुनगुनी और आह्लाददायक लगने लगी है। ऐसे में सायकल उठाये घुमक्कड़ी करना बड़ा ही आनंददायक है। कल घर के पास वाले पोखर से सटे रास्ते पर निकल गया।

निरुद्देश्य पथ भ्रमण कर ही रहा था कि आँखे उलझ कर रह गईं। कचनार और अशोक के पंक्तिबद्ध वृक्ष मोहक फूलो से लद गए थे। मन्त्रमुग्ध सा वहीं रुक गया। कचनार और अशोक दोनो को एक साथ देखना बड़ा ही सम्मोहक अनुभव था। कचनार बर्फ के फाहे सा शीतल और अशोक अंगार सा दहकता हुआ गरम। बस देखता ही रहा। लेकिन इतने मनोहारी पुष्प की तुलना अंगार से मुझे उचित नही लगी। कहीं अन्याय तो नही कर रहा हूँ? लेकिन फिर कुछ याद आता है। राम चरित मानस के पन्ने खुल जाते हैं। विरहाकुल जानकी अशोक वाटिका में कह रही हैं।
नूतन किसलय अनल सामना।
देहि अगिनि जनि करहि निदाना।

थोड़ा संतोष होता है। उपमा सही है। अशोक को निहारने लगता हूँ। इस मनोहारी वृक्ष को देखकर आभास होने लगता है कि बस अब धरित्री पर बसंत अपनी संपूर्ण सैन्यसज्जा के साथ उतरने ही वाला है। फागुन के आने की आहट आने लगी है। फगुनाहट तन और मन दोनों में उल्लास भरने लगी है। किंवदन्तियों के अनुसार फागुन माह में ही चंद्रमा का जन्म भी हुआ था। कदाचित यह सच भी होगा। असंख्य कवियों की कल्पनाओ में उपमान का गौरव प्राप्त शशि का जन्म इस मादक ऋतु में न हुआ होगा तो कब होगा? सोचता हूँ इसे मादक ऋतु न लिख कर मनभावन ऋतु लिखूँ परंतु लेखनी साथ नही देती। साथ देगी भी कैसे? मन के कैनवस पर चित्र उभरता है। वृक्ष नव पल्लवों से भर गए हैं। लताएँ पुष्पों के भार से झुक गयी हैं। तितलियाँ टोलियाँ बना कर सैर को निकल पड़ी हैं। आम रसीली मंजरियों से लद गए हैं और पलाश में आग लग गयी है। ऐसे में इसे मादक लिखना ही सत्य होगा। कुछ और लिखना सरासर झूठ ही होगा। कुछ गलत तो नही कह रहा हूँ। क्या यह ऋतु प्रेमी हृदयों को आकुल नही कर देती है? क्या पुरातन काल से अनगिनत हृदय अनंग के शरों से इसी ऋतु में बींधे न गये होंगे? हाँ, यही सत्य है और कदाचित यही कारण रहा होगा कि बसंत को ही मन्मथ के सहचर होने का गौरव प्राप्त है।

भारतीय परंपरा ने बसंत का आगमन बसंत पंचमी से माना है। प्राचीन भारत में बसंतोत्सव इसी दिन से आरंभ हो कर पूरे माह मनाया जाता था। पहला गुलाल भी इसी दिन उड़ाया जाता है। यहीं से फाल्गुनी या फिर प्रचलित शब्दावली में कहें तो होली का आरंभ भी हो जाता है। लेकिन कभी-कभी कल्पना के पंखों पर उड़ान भरता हूँ। मन आकाश सा विस्तृत हो जाता है। विचार मेघ बन कर तैरने लगते हैं। हो न हो यह रंग उड़ाने की प्रथा हमने प्रकृति से ही सीखी होगी। बसन्त रंगों की बौछार करता हुआ ही तो आता है। चारों ओर रंगों का मेला-सा लग जाता है। खेत के खेत पीली सरसों से भर जाते हैं। कंवल ताल गुलाबी माणिक्यो की तरह छिटक पड़ते हैं। नभ साफ सुथरा नील वर्णीय पुत जाता है और धरा ...हरी कम धानी अधिक दिखाई देती है। विचार और भी आते हैं।

प्राचीन काल में यह उत्सव पूरे माह मनाया जाता था और कुछ मान्यताओ के अनुसार तो दो माह अर्थात चैत्र तक मनाया जाता था। पूरे फाल्गुन और चैत्र तक चलने वाला बसंतोत्सव आजकल के परिदृश्य में देखें तो वस्तुतः फाल्गुन पूर्णिमा पर धूलिवंदन तक ही सिमट कर रह गया है। ऐसा क्यों हुआ होगा? कदाचित इस पर शोध किया जा सकता है। किन्तु फिर सोचने लगता हूँ। सोचता हूँ समय चक्र में परंपराओं और उनसे जुड़े उत्सव भले ही बनते बिगड़ते रहें किन्तु उसमें निहित आत्मा सदैव दैदीप्यमान रहती है। यह मानव मन के उल्लास से जन्मा पर्व है। इसका यही उल्लास, इसकी यही आत्मा कदाचित होली में संरक्षित रह गयी है। होली हँसी ठिठोली का पर्व है। शत्रु को भी मित्र बना लेने का अवसर है। जीवन सबसे सुंदर स्वरूप में शायद स्वयं को इसी पर्व में प्रगट करता है। और रेणु जी के शब्दों में कहूँ तो

सुख से हँसना
जी भर गाना
मस्ती से मन को बहलाना
पर्व हो गया आज-
साजन! होली आई है!

विचारो की रेलगाड़ी रुकने का नाम ही नही ले रही। इंजन जलती हुई होलिका के पास आकर रुक जाता है। बचपन में देखा करता था, माँ होली से पहले ही गोबर के उपले हीरक आकर में बनाकर सुखा लेती थी। उनमें मध्य के छेंद में रस्सी डाल माला की तरह दीवार पर लटका देती। होलिका दहन में गेंहूँ की बालियों के साथ इन्हें भी स्वाहा कर दिया जाता। होलिका दहन की उन गगन चूमती अग्नि शिखाओं को देख कर मन निष्पाप हो जाता है। लोग होलिका पूजन में रम जाते हैं। मेरा बाल मन कौतूहल से भर उठता है। एक राक्षसी की पूजा! उत्तर खोजने का प्रयास करता हूँ लेकिन माँ डाँट देती है। उस समय उत्तर नही मिला। उत्तर आज भी नही है लेकिन उत्तर खोजने का आग्रह मैं अपने प्रबुद्ध पाठको के समक्ष रखता हूँ। वैसे सोचता यह भी हूँ कि वरदान के बावजूद होलिका भस्म कैसे हो गयी।

पुराणों के अनुसार तो वरदान ऐसा कवच है कि जिसे स्वयं देने वाला भी नही काट सकता फिर चाहे वह महादेव ही क्यों न हों। इसका भी कोई समाधानकारक उत्तर तो न पा सका। लेकिन कभी कभी सोचता हूँ कि यदि पौराणिक कथाएँ जीवन और अध्यात्म का सार भर ही है तो होलिका और प्रह्लाद की कथा में कौन-सा तत्व छुपा है? कोई मर्मज्ञ वेद ज्ञाता ही इसकी मीमांसा कर सकता है। हाँ, अपनी छोटी सी बुद्धि और समझ से यदि विवेचना करुँ तो लगता है कि अच्छाई को समाप्त नही किया जा सकता। यदि कोई प्रयास करता भी है तो वह ईश्वरीय संरक्षण से मुक्त होता है। आधा अधूरा ही सही किन्तु लगता है उत्तर मिला तो है। होलिका जल कर समाप्त हो जाती है। प्रह्लाद सुरक्षित रह जाता है। प्रह्लाद जो कि आनंद है। बुराइयाँ जल कर खाक हों रही हैं। बुराइयों के नष्ट होते ही आनंद प्रगट होता है।

मन सतरंगी होने लगता है। सोचता हूँ शीघ्र ही अबीर गुलाल उड़ने लगेंगे। ढोलक और मंजीरे की थाप पर फाग और चैती के राग छिड़ जाएँगे। लोटों और गिलासों में ठंडई नापी जाने लगेगी। मन पुलकित हो रहा है। होली पास आ रही है। रसखान की पंक्तियाँ मानस पटल पर उभरने लगी हैं- फागुन लाग्यो जब से तब ते ब्रजमंडल में धूम मच्यो है। मैं अब भी कचनार और अशोक को निहार रहा हूँ। कचनार इठलाने लगा है। अशोक खिलखिला रहा है। मदनदेव ने प्रत्यंचा खींच ली है। अति शीघ्र धरती पर उत्सव प्रारम्भ होने वाला है।

१ मार्च २०२२

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