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मुट्ठी का महत्व
मोहन टंडन


मुट्ठी का अपना ही महत्व है। बँधी हुई मुट्ठी कई बार बड़े-बड़े फैसले सहज ही करा देती है। कसकर बंद की हुई मुट्ठी और आँखों में उभरते लाल डोरे यदि थोड़ा-सा भी प्रभाव विपक्षी पर डाल सकें, तो उसकी चीं बोलते देर नहीं लगती। वैसे भी यदि किसी को थप्पड़ मारा जाए, तो वह उतना कारगर साबित नहीं होता, जितना कि यह बँधी हुई मुट्ठी। इसका भी एक कारण है। थप्पड़ मारते समय हथेली खुली रहती है।
अंगुलियाँ हलकी-हलकी बेमन से एक-दूसरे के साथ सटी रहती हैं, जबकि मुट्ठी बँध जाने पर वे सब एकजुट हो जाती हैं और उनमें दृढ़ता आ जाती है। और साहब जहाँ एकता है, दृढ़ता है वहाँ ज़ोर होना स्वाभाविक ही है।

रामायण काल में इस मुट्ठी की मार का बहुत जगह उल्लेख आता है। हनुमान जी ने अपने मुष्टिका-प्रहार का करिश्मा कई बार दिखलाया है। युद्ध के दौरान केवल अपनी मुट्ठी के प्रहार से ही विपक्षी राक्षस को उन्होंने ज़मीन चटा दी और दिन में भी तारे दिखा दिए। राक्षसों ने भी समय-समय पर लड़ते हुए मुष्टिका प्रहार का बेधड़क प्रयोग किया।

पुराने ज़माने में वीरों की मुट्ठी हमेशा तलवार की मूठ पर रहती थी। मुट्ठीभर बात पर ही तलवार खिंच जाना मामूली-सी बात समझी जाती थी। छत्रपति शिवाजी और उनके मुट्ठीभर साहसी सहयोगी हमेशा ही औरंगजेब के लिए सिर दर्द बने रहे। इससे यह सिद्ध होता है कि साहस जिसकी मुट्ठी में, उसके लिए विपक्ष को बड़ी-से-बड़ी ताक़त भी नगण्य है।

मुट्ठी बाँधना मानव का आदिगुण

प्राकृतिक रूप से भी देखें, तो हमें मानना पड़ेगा कि मुट्ठी बाँधना मानव का आदिगुण है। ईश्वर जब अपनी सृष्टि में एक नन्हे-मुन्ने बच्चे को पहले-पहल भेजता है, तो उसकी मुट्ठी बँधी रहती है। जन्म लेते ही बालक मुट्ठी बाँधकर चिल्ला-चिल्लाकर यह कहता है कि अब से मैं आनेवाली हर कठिनाई का दृढ़ता से मुकाबला करूँगा। मरते समय तक वह अपने इस संसार से अंतिम विदा लेता है, तब हाथ खोल देता है। अंतिम विदा लेता है, तब हाथ खोल देता है। अंतिम समय इस तरह हाथ पसारकर जाने का भी मतलब है और वह यह कि संसार के दुःखों से अपनी ताकतभर तो खूब लड़ लिया, लेकिन अंत में ईश्वर के आगे ही हाथ पसारना पड़ा। इसी बात को तय करके हमारे संत व महापुरुष कह गए हैं, ''मुट्ठी बाँधे आया जग में, हाथ पसारे जाएगा।''

मुट्ठी से दान की अधिकाधिक महिमा बँधी हुई है। युगपुरुष संत विनोबा जी ने मुट्ठीभर दान को बहुत महत्वपूर्ण बना दिया है। अपने 'अन्नदान' का आंदोलन के अंतर्गत उनका कहना था कि हरेक व्यक्ति को देने के लिए एक मुट्ठी अन्न प्रतिदिन इकट्ठा करना चाहिए। एक वर्ष तक इकट्ठा करने के बाद किसी ज़रूरतमंद व्यक्ति को इसे दे देना चाहिए। इसमें उसका तथा समस्त मानवता का कल्याण निहित है। कभी-कभी ऐसा समय भी आता है जब एक मुट्ठी अन्न ही अमृत बन जाता है। अकाल के विकराल समय में किसी भूखे मनुष्य के लिए एक मुट्ठी अन्न के दाने बहुमूल्य हीरे-मोती से बढ़कर मूल्य रखते हैं। निराला जी की 'अपरा' में भिखारी मुट्ठीभर दाने के लिए दर-दर गिड़गिड़ाता फिरता है।

मुट्ठी गरम तो हर कार्य नरम

देखा जाए तो पैसेवालों की मुट्ठी में सब-कुछ रहता है। लंबे-चौड़े कारोबार, बड़े-बड़े ऐशो-आराम के साधन, ऊँचे-नीचे कारनामे, सभी कुछ पैसेवालों की मुट्ठी में बंद रहते हैं। इन लोगों ने जब-जब भी अपनी यह मुट्ठी कसी है, तब-तब ही असमर्थ लोगों की जान पर बन आई है। आजकल जिस प्रकार का वातावरण पैदा हो गया है, उसमें हर तरफ़ 'मुट्ठी गरम तो हर कार्य नरम' का खूब बोलबाला हो रहा है।

परस्पर अभिवादन के वैसे तो अनेक ढंग प्रचलित हैं। उनमें से ही एक ढंग सीधे हाथ की मुट्ठी बाँधकर, उसे थोड़ा ऊपर उठाकर व हलका-सा झटका देकर अभिवादन करने का है। ऐसा अभिवादन अधिकतर कॉमरेड किस्म के लोगों में देखा जा सकता है। 'इंकलाब ज़िंदाबाद' का नारा जब मुट्ठी बाँधकर तथा हाथ ऊँचा उठाकर लगाया जाता है, तो उसमें अधिक ज़ोर तथा जोश पैदा हो जाता है और यही बात इसी किस्म के अन्य नारों पर भी लागू होती है।

जादूगर की मुट्ठी का करिश्मा तो आपने देखा भी होगा। हाथ खोलकर दिखाया, कुछ भी नहीं। मुट्ठी बंद की, फूंक मारी और कहा, ''बच्चो! ज़रा एक बार ज़ोर से ताली बजाओ।'' लो झट रुपया, मिठाई और न जाने क्या-क्या आ गया। बस इसी तरह मुट्ठी बंद कर-कर के एक के दो, दो के चार बनाता जाता है। भले ही बाद में उन्हें अपनी झोली में सहेजकर रख दे, ताकि अगली बार काम आएँ।

फ़िल्म 'श्री ४२०' में एक गाना मुट्ठी को संबोधित करके बड़ा भावपूर्ण तथा शिक्षाप्रद रखा गया है। उसमें नायिका एक अध्यापिका के रूप में छोटे-छोटे बच्चों से गाकर पूछती है- 'नन्हे-मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है?' बच्चे इसका उत्तर देते हैं- 'मुट्ठी में है तक़दीर हमारी, हमने किस्मत को बस में किया है।' वास्तविकता में बहुत सुंदर व प्रभावशाली प्रश्नोत्तर है।

नारी मुट्ठी में

बिहारी की नायिका जब अपनी रसभरी बाँकी चितवन से किसी की ओर देखकर इठलाती चलती है, तो मानो 'मूठी-सी मारि' जाती है। लेकिन हमारे संतों का कहना है कि नारी से बचकर उसे हमेशा अपनी मुट्ठी में रखना चाहिए क्यों कि, 'काह न अबला कर सके'।

बृज में होली खेलते समय राधा और कृष्ण का झगड़ा बड़ा मनोरंजक रहता था। कृष्ण को छकाने के लिए राधिका जी एक नया ही रास्ता निकाल लेती है। इधर कन्हैया की भरी पिचकारी गिरने को हुई कि उधर से वृषभान किशोरी ने मुट्ठी में भरकर गुलाल फैंकना शुरू किया। अब गुलाल की इस 'मूठी मार' के आगे कृष्ण की पिचकारी बेचारी बेकार साबित हो जाती थी।

'सुदामा चरित' के एक प्रसंग में जब द्वारिका के नाथ श्रीकृष्णचंद जी दीन सुदामा द्वारा छिपाई हुई पोटली को निकालकर उसमें बँधे चावल एक-एक मुट्ठी करके खाने लगे और उसके बदले में अपने पास की सभी सुविधाएँ एक-एक करके देने लगे, तब उनकी पत्नी रुक्मनी ने उनका हाथ पकड़ लिया। दो मुट्ठी खा लेने के बाद वह तीसरी मुट्ठी खा नहीं सके। 'मूठी तीसरि लेत ही रुकमिन पकरी बाँह, तुम्हें कहा ऐसी भई संपति सों अनचाह।' श्रीकृष्णचंद जी की तीसरी मुट्ठी पकड़कर रुक्मिनी जी ने उस समय कृष्ण को सुदामा और सुदामा को कृष्ण होने से रोक लिया, वरना आज इतिहास कुछ और ही होता।

हिंदू विवाह पद्धति में मुट्ठी खोलने की रस्म बड़ी मनोरंजक होती है। इसमें वर और वधू एक-दूसरे की बँधी मुट्ठी खोलते हैं।

गुत्थम-गुत्था और हा-हा, ही-ही तो काफी होती है, किंतु प्रायः यही देखने में आता है कि पुरुष वर्ग को स्त्री वर्ग की अपेक्षा मुट्ठी खोलने में कम मेहनत करनी पड़ती है लेकिन इसका संबंध ताक़त से इतना नहीं होता, जितना भावना से होता हे और यहीं पर यह बात तय हो जाती है कि स्त्री पुरुष की मुट्ठी में है या नहीं।

मुट्ठी में चाहे जो भी करिश्में हों, किंतु समझदार आदमी को समय पहचानकर ही मुट्ठी बंद करना या खोलना चाहिए। नहीं तो उसकी हालत ठीक उस बंदर की भाँति हो जाती है, जो कि सकरे मुँह की हड़िया में अन्न के दाने देखकर बड़े मज़े से अपना हाथ उसमें डाल देता है। अनाज भरकर मुट्ठी बंद कर लेता है, लेकिन जब वह हाथ बाहर निकालने चलता है तो बँधी मुट्ठी हड़िया के मुँह पर आकर फँस जाती है और वह यह सोच भी नहीं पाता कि मुट्ठी खोल दे या केवल चुटकीभर ले, ताकि हाथ बाहर आ जाए।

ख़ैर, वह तो ठहरा बंदर, और अपने दायरे के अंदर वह जो भी करे ठीक है, किंतु मनुष्य तो बंदर युग से अब काफी आगे आ गया है। अतः उसे मुट्ठी बंद करने या खोलने से पहले उसके हर पहलू पर ग़ौर कर लेना निहायत ज़रूरी है।

२० जुलाई २००९

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