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						 कैलेंडर शब्द की उत्पत्ति
 - डॉ. हरिकृष्ण देवसरे
 
 चीन 
						यूनानी सभ्यता में 'कैलेंड्स' का अर्थ था-'चिल्लाना'। उन 
						दिनों एक आदमी मुनादी पीटकर बताया करता था कि कल कौन-सी 
						तिथि, त्योहार, व्रत आदि होगा। नील नदी में बाढ़ आएगी या 
						वर्षा होगी। इस 'चिल्लाने' वाले के नाम पर ही- दैट हू 
						कैलेंड्स इज 'कैलेंडर' शब्द बना। वैसे लैटिन भाषा में 
						'कैलेंड्स' का अर्थ हिसाब-किताब करने का दिन माना गया। उसी 
						आधार पर दिनों, महीनों और वर्षों का हिसाब करने को 
						'कैलेंडर' कहा गया है। 
 एक समय था जब कैलेंडर नहीं थे। लोग अनुभव के आधार पर काम 
						करते थे। उनका यह अनुभव प्राकृतिक कार्यों के बारे में था। 
						वर्षा, सर्दी, गर्मी, पतझड़ आदि ही अलग-अलग काम करने के 
						संकेत होते। धार्मिक, सामाजिक उत्सव और खेती के काम भी 
						इन्हीं पर आधारित थे लेकिन इनके आधार पर समय का सही 
						बँटवारा करना मुश्किल हो जाता। लोगों ने अनुभव किया कि 
						दिन-रात का बँटवारा कभी गड़बड़ नहीं होता। इसी तरह रात में 
						चंद्रमा दिखने का भी एक क्रम हैं।
 
 चंद्रमा दिखने का यह क्रम, जिन्हें चंद्रमा की कलाएँ भी 
						कहा गया, निश्चित समय के बाद अवश्य जारी रहता। इस तरह 
						दिन-रात और चंद्रमा की कलाओं के आधार पर दिनों की गिनती की 
						गई। फिर इस अवधि को नाम दिया गया। तारे और चंद्रमा केवल 
						सूर्यास्त के बाद दिखते और सूर्यास्त होने पर अंधेरा हो 
						जाता, इसलिए इस अवधि को 'रात' कहा गया। सूर्योदय होने से 
						लेकर सूर्यास्त तक की अवधि को 'दिन' का नाम दिया गया। यह 
						भी अनुभव किया गया कि मौसम सूर्य के कारण बदलते हैं।
 
 चंद्रमा का चक्र नए चाँद से नए चाँद तक माना गया। सूर्य का 
						चक्र एक मौसम से दूसरे मौसम तक माना गया। चंद्रमा का चक्र 
						साढ़े उनतीस दिन में पूरा होता है। उसे 'महीना' कहा गया। 
						सूर्य के चारों मौसम को मिलाकर 'वर्ष' कहा गया। फिर गणना 
						के लिए 'कैलेंडर' या 'पंचांग' का जन्म हुआ। अलग-अलग देशों 
						ने अपने-अपने ढंग से कैलेंडर बनाए क्योंकि एक ही समय में 
						पृथ्वी के विभिन्न भागों में दिन-रात और मौसमों में 
						भिन्नता होती है।
 
 लोगों का सामाजिक जीवन, खेती, व्यापार आदि इन बातों से 
						विशेष प्रभावित होता था इसलिए हर देश ने अपनी सुविधा के 
						अनुसार कैलेंडर बनाए। वर्ष की शुरुआत कैसे करें इसके लिए 
						किसी महत्वपूर्ण घटना को आधार माना गया। कहीं किसी राजा के 
						गद्दी पर बैठने की घटना से (विक्रम संभव) गिनती शुरू तो 
						कहीं शासकों के नाम से जैसे रोम, यूनान, शक आदि। बाद में 
						तो ईसा के जन्म (ईसवी सन्) या हजरत मोहम्मद साहब द्वारा 
						मक्का छोड़कर जाने की घटनाओं से कैलेंडर बने और प्रचलित 
						हुए।
 
 रोम का सबसे पुराना कैलेंडर वहाँ के राजा न्यूमा पोंपिलियस 
						के समय का माना जाता है। यह राजा ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी 
						में था। आज विश्व भर में जो कैलेंडर प्रयोग में लाया जाता 
						है। उसका आधार रोमन सम्राट जूलियस सीजर का ईसा पूर्व पहली 
						शताब्दी में बनाया कैलेंडर ही है। जूलियस सीजर ने कैलेंडर 
						को सही बनाने में यूनानी ज्योतिषी सोसिजिनीस की सहायता ली 
						थी। इस नए कैलेंडर की शुरुआत जनवरी से मानी गई है। इसे ईसा 
						के जन्म से छियालीस वर्ष पूर्व लागू किया गया था।
 
 जूलियस सीजर के कैलेंडर को ईसाई धर्म मानने वाले सभी देशों 
						ने स्वीकार किया। उन्होंने वर्षों की गिनती ईसा के जन्म से 
						की। जन्म के पूर्व के वर्ष बी.सी. (बीफोर क्राइस्ट) कहलाए 
						और बाद के ए.डी. (आफ्टर डेथ)। जन्म पूर्व के वर्षों की 
						गिनती पीछे को आती है, जन्म के बाद के वर्षों की गिनती आगे 
						को बढ़ती है। सौ वर्षों की एक शताब्दी होती है।
 
 संसार के सभी देश अब एक समय मानते हैं और आपस में तालमेल 
						बिठाकर घड़ियों को शुद्ध रखते हैं। आज समय की पाबंदी बड़ी 
						महत्वपूर्ण हो गई है और लोग उसका मूल्य समझने लगे हैं। 
						 २००४
 
						३ जनवरी 
						२०१० |  | 
						कालांतर से 
						बना है कैलेंडरडॉ. मनोहर भंडारी 
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 यह कथन 
						पूर्णत: सत्य है कि भारतीय काल गणना पद्धति सबसे प्राचीन 
						है और वैज्ञानिक भी। हमारे यहाँ सृष्टि की रचना के साथ ही 
						कालगणना का शुभारंभ माना गया है। ऎसा कहा जाता है कि 
						सृष्टि की रचना का प्रथम दिन चैत्र मास का प्रथम दिवस था। 
						ब्रह्मपुराण के मुताबिक "चैत्रमास के प्रथम दिन ब्रह्माजी 
						ने सृष्टि की रचना की थी।" यथा-
						चैत्रं मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमेहनि।  ज्योतिष 
						शास्त्र में इस बात का उल्लेख है कि जब सृष्टि की रचना हुई 
						और पूर्व क्षितिज पर सूर्यदेव प्रकट हुए तब सूर्य का होरा 
						था, अतएव सृष्टि की रचना का प्रथम दिवस रविवार माना गया 
						है। दरअसल, ज्योतिष मतानुसार एक अहोरात्र (दिन रात) में २४ 
						होरा होते हैं और २५वाँ होरा जिस ग्रह का होता है उससे 
						संबंधित वार होता है। इस पच्चीसवें होरा में सूर्योदय भी 
						होता है। उदाहरणार्थ रविवार की शुरूआत के पश्चात पच्चीसवाँ 
						होरा चंद्रमा का होता है अतएव रविवार के पश्चात सोमवार आता 
						है। इसी क्रमानुसार मंगलवार, बुधवार, गुरूवार, शुक्रवार और 
						शनिवार का नामकरण हुआ है। हमारे राष्ट्रीय ध्वज में 
						अवस्थित अशोक चक्र के २४ खंड भी इस सतत प्रवाहमान होरा 
						चक्र के प्रतीक बताए गए हैं। समूचे विश्व में वारों का यही 
						क्रम है। अंग्रेजी के सैटरडे सैटर्न अथवा शनि, संडे 
						सूर्यवार और मन डे या मून डे चंद्रवार के ही पर्याय हैं।
 इसी तरह भारतीय मासों के नामकरण में तारा विज्ञान का हाथ 
						रहा है। चैत्रमास की पूर्णिमा के दिन चंद्रमा चित्रा 
						नक्षत्र में भ्रमण करता है और वैशाख पूर्णिमा को विशाखा 
						नक्षत्र में। दूरबीन द्वारा तारामंडल को देखकर उक्त कथन की 
						वैज्ञानिक पुष्टि की जा सकती है। अर्थात् भारतीय माहों के 
						नामकरण पूर्णत: तारा विज्ञान के आधार पर किए गए हैं। इस 
						तारतम्य मे यह कहना कतई अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है कि 
						कैलेंडर शब्द पूर्णत: भारतीय है। वास्तव में कैलेंडर शब्द 
						कालान्तर शब्द का बिगड़ा हुआ स्वरूप है। समय को संस्कृत 
						में कालान्तर कहा जाता है। कैलेंडर शब्द की रोमन उत्पत्ति 
						की कथा अविश्वसनीय और अजीब है। भारतीय वर्ष का प्रारंभ 
						चैत्र अर्थात मार्च में होता है। वस्तुत: कैलेंडर शब्द 
						कालांतर का ही अपभ्रंश है।
 
 मार्च अथवा अप्रैल में सायन अथवा निरयन सूर्य आकाश-पथ की 
						प्रथम राशि मेष में प्रवेश करता है, और तभी वर्ष का 
						प्रारंभ होता है और यह खगोल विज्ञान के अनुरूप है। कैलेंडर 
						के प्रचलित इतिहास के अनुसार मार्च, अप्रैल, मई, जून, 
						जुलाई और अगस्त माहों के नाम देवी-देवताओं से संबंधित हैं 
						और सितम्बर, अक्टोबर, नवम्बर और दिसम्बर शब्द लातीनी भाषा 
						के क्रमश: सेप्टेम, आक्टो, नोवज और डेसेज शब्द से बने हैं।
 इस बात 
						का कहीं भी जिक्र नहीं है कि इनके आगे अम्बर शब्द जोड़ने 
						की क्या वजह रही है। कहा जाता है दस माह के कैलेंडर वर्ष 
						में दो माह और जोडे गए और बारह मास का पूर्ण वर्ष उन्होंने 
						नियत किया। अजीब बात यह है कि इन दो माहों को कुछ सालों 
						बाद ग्यारहवें और बारहवें स्थान की बजाय जनवरी और फरवरी 
						नाम देकर पहले और दूसरे स्थान पर स्थापित कर दिया गया। यह 
						भी अज्ञात है कि सदियों बाद किए गए इस दो के गठजोड़ से 
						कालगणना को किस तरह का खामियाजा भुगतना पड़ा होगा। भारतीय 
						खगोलशाçस्त्रयों ने शुरूआत से ही आकाशपथ को बारह राशियों 
						में विभक्त कर सदैव बारह मास के कालान्तर को अपना मानक 
						वर्ष माना। 
 भारतीय ग्रह, तारा और नक्षत्र विज्ञान वैज्ञानिकों का आज 
						भी पथ प्रदर्शन कर रहे हैं। हमारे शास्त्रों में नक्षत्रों 
						और तारों के जिस रूप और आकार का वर्णन है, आधुनिक 
						वैज्ञानिक विशाल उपकरणों के जरिए उनकी पुष्टि कर रहे हैं। 
						अन्य देशों में भारतीय ज्योतिष एवं ज्योतिष गणना विज्ञान 
						प्रचलन में हैं ही, पाकिस्तान भी इसमें पीछे नहीं है।
 यहाँ 
						वर्तमान में १५० जंतरियाँ यानी पंचांग हर साल प्रकाशित 
						होते हैं। भविष्यवाणियों में विश्वास न करने वाले कट्टर 
						इस्लामिक पाकिस्तान में वहाँ के लगभग सभी नेताओं की जन्म 
						कुंडलियाँ भारतीय पंचांगों के अनुसार बनती हैं और 
						पत्र-पत्रिकाओं में भविष्य कथन के साथ प्रकाशित होती हैं। 
						यह हमारी वैज्ञानिकता का ही परिचायक है। हमारे यहाँ वार, 
						नक्षत्र, राशियाँ एवं माहों का नामकरण धार्मिक अथवा 
						सांस्कृतिक आधार पर न होते हुए शुद्धत: वैज्ञानिक आधार पर 
						किया गया है। यही कारण है कि सारी दुनिया प्रत्यक्ष या 
						परोक्ष रूप से हमारे कालान्तर को मानती है। |