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संस्कृति

 

संस्कृति के वाहक गाँव के हाट बाजार
प्राण चड्ढा


जंगल के हाट-बाजार आदिवासियों की जान हैं, बस्तर से सरगुजा तक इन्होंने मुझे अपनी ओर खींचा है। भोले-भाले वनवासियों की इस दुनिया में झाँकने का मैंने वर्षों से प्रयास किया है, पर ये प्यास आज तक नहीं बुझी। तीन दशक में हाट-बाजार की दुनिया से नमक विनिमय की इकाई नहीं रहा और कई हाट बाजार में चबूतरे बना दिए गए हैं, जहाँ संचार के साधन नहीं, और रिश्तों की डोर अभी मजबूत है। वहाँ ये बाजार मेल-मिलाप और संस्कृति के वाहक बने हैं।

बस्तर-

सन १९९३ के आसपास मैं बस्तर गया था, मेरे बड़े भाई समान मित्र बसंत अवस्थी, हरदिल अज़ीज़ इकबाल हम सब नवभारत पत्र समूह के लिए काम करते थे। मुझे फोटोग्राफी का जुनून था। बस्तर की यादों को कैद करने तस्वीर ले रहा था; सिर पर बोझा उठाये आदिवासी महिलाएँ कतारबद्ध सड़क पार कर रहीं थी; मैं फोटो लेने लगा। एक महिला ने कच्चे आमों से भरी टोकरी सिर से उतारी और पानी पीने लगी। बसंतजी ने मुझसे कहा-पूछो आम कितने के होंगे, उसने कहा, बीस रूपये के। फिर कहा- पूछो तीस में दोगी। जवाब मिला नहीं..! मैं हैरत में पड़ गया। बसंत भाई ने मुझे जानकारी दी ये हाट बाजार में जाने निकली है, वहाँ घंटों आम बेचेगी, थकी है, धूप सहेगी, पर इस बीच अपने परिचितों से मिलेगी, उनके दुःख-सुख पूछेगी, मोल-भाव का आनंद लेगी, यदि आम यहीं एक मुश्त बेच देती, तो वो इससे वंचित हो जाती, इसलिए अधिक मोल पर भी आम नही दिए। वाह, ऐसा था, बस्तरिया बसंत भाई का पैना नजरिया।

सल्फी पियो पर जरा सँभल के; सल्फी का नशा दोपहर पीने पर तेज होता है, मुझे ये ध्यान न रहा; दंतेवाड़ा में सल्फी भरा, एक जग रुक-रुक कर मैं पी गया। फिर जगदलपुर वापसी के दौरान सड़क से कुछ दूर हट कर सुंदर बाजार भरा देखा। बाजार की रौनक देख सल्फी के नशे पर फोटोग्राफी का शौक भारी हो गया। कार को बाजार के करीब तक ले जाने के लिए कहा- कैमरा पेंटेक्स का लेटेस्ट था और नशा सिर चढ़ के बोल रहा था। मुझे याद है सारे वनवासी बड़े भद्र थे। मैंने अपनी ओर से गुस्ताखी की हद पार करने में कोई कमी न की, नशीले पदार्थ विक्रय करने वाली को‘साकी’कहता तो किसी को फोटो कैसे लेनी है, ये बताता। वनवासियों को मेरे साथियों ने बता दिया था, "बंदा ये शरीफ है... कुछ ज्यादा सल्फी पी गया है"। वापस जगदलपुर में एक घंटा शावर के नीचे नहाया तब कहीं नशा कम हुआ। फिर तो मैंने सल्फी से तौबा कर ली। बस्तर तो गया पर फिर कभी सल्फी न पी। धन्य हैं ये वनवासी और उनकी समझदारी, उनका धीरज और मेहमाननवाजी; जो उनकी परम्परा और संस्कृति का हिस्सा है। इसलिए मैं महफूज़ रहा।

बैगा चक-
 
बैगाचक में जंगल के बीच गाँव ‘चाडा’; यहाँ के बाजार की शोभा निराली है। ‘वेरियर एल्विन’का ये कार्यक्षेत्र रहा है। बैगा आदिवासी बालाओं की पसंद ‘लाल मूँगे’ की लड़ीदार माला। एक दर्जन पहनने के बाद भी उनका मन नहीं भरता, ये नकली मूँगे की माला लाल परिधान, लकड़ी की कंघी,हाट में उनकी रंगत, उनके गोदना का कोई सानी नहीं। मुझे समझ आ गया कि क्यों बैगाचक में वेरियर एल्विन दिल दे बैठा था और एक बैगा युवती से विवाह रचा लिया। बाजार में कुछ गोरी बैगिन जाँघ भर गोदना कराके जब आती दिखती हैं, तब लगता है कोई बाला जींस पहने हुए हैं। बाजार में वनोपज का विक्रय और तेल नमक, सूखी मछली, झींगा, कपड़े, रूप सज्जा के सामान की खरीदी खूब होती। बाजार के किसी कोने में गोदारिन बालाओं के माथे में v सा गोदना करती है या जाँघ बाँह पर। गोदना वो जेवर है जो मरने के बाद साथ जाता है, दूसरे जेवर नहीं। ये मान्यता सदियों से बनी है।

चाँदो-

सरगुजा की सरहद पर चन्दो अब नक्सल प्रभावित इलाका है, सन १९९३ के आसपास नवभारत के सरगुजा जिला प्रतिनिधि सुधीर पाण्डेय के साथ इस इलाके को करीब से देखने का अवसर मिला। हम सुबह जशवंतपुर में पूर्व केंद्रीय मंत्री लरंग साय के घर पहुँचे तो खेत में नागर चलते मिले। जितना कीचड़ नागर के भैंसों पर लगा था, उतना उन पर। चावल की शराब ‘हडिया’ और सेम बीज का नमकदार चखना, स्वागत में सायजी ने जिद कर हमें दिया तो मैंने भी प्रसाद मान स्वीकारा। हडिया को सुधीर बस्तर की सल्फी के समतुल्य बताता है। ये चावल से बनती है, जबकि सल्फी पेड़ में हाँडी बाँध कर एकत्र की जाती है. हम सब जब चाँदो पहुँचे तो धूप तेज हो गई थी, पर बाजार पूरी रंगत में था। इस इलाके में कंवर और उरांव अधिक हैं। बाजार में कई पुरुष लंगोटी में थे और औरतों ने साड़ी पहनी थी; पर ब्लाउज का प्रचलन कम था। महुआ, चिरौंजी जैसी वनोपज और मुसली, नागरमोथा का विक्रय हो रहा था और नमक, केरोसिन या कपड़े, चूड़ियाँ और नकली चाँदी के गहनों का विक्रय, नमक भी तब विनिमय की इकाई में प्रचलित था। दूर पेड़ों की छाया में बैठे लोग सुख-दुःख की बात करते विश्राम कर रहे थे। चाँदो के इस छोटे से बाजार को मैंने फोटोग्राफी के अनुकूल पाया और धूप में फोटो ले रहा था; तभी एक फारेस्ट गार्ड ने मुझे आ कर कहा- साहब बुला रहे हैं। पल भर के लिए में समझ न सका कौन होगा जो इस सुदूर इलाके में मुझे पहचानता है; फिर देखा बाजार से कुछ दूर एक मकान में वन विभाग के बड़गैया जी थे जो उस समय एसडीओ फारेस्ट थे। बड़ा भला लगा। जो कुछ खाना बना था सबने भोजन कर तृप्ति पाई। दाने-दाने पर जो लिखा है ऊपर ने खाने वाले का नाम; शायद इसको ही कहते हैं।

हाट बाजार के दिन अब सरकारी राशन ..! हाट बाजार में तब कानून व्यवस्था बनी रहती थी; अब तो लाल शोले बस्तर के बाजार में फूट पड़ते हैं। ये दुखद है। इसके बावजूद इसकी मौलिकता में कोई अंतर नहीं आया। जब से सस्ता अनाज योजना प्रभावी हुई, साप्ताहिक बाजार के दिन अनाज भी वनवासियों को मिलने लगा है। मैं सोचता हूँ अगर ये हाट बाजार न होते तो अनाज वितरण व्यवस्था कमजोर ही होती। अब एक साथ वनवासी बाजार के दिन पहुँचते हैं तो उनका दबाव इस वितरण व्यवस्था पर बना रहता है। ये हाट-बाजार, मड़ई आने वाली पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी के रिश्तों से जोड़े रहते हैं। यहाँ नए नाते बनते हैं और सम्यता संस्कृति पनपती एक कदम आगे बढ़ते जा रही है, जिसमें झूठ, वादाखिलाफी, फरेब की कोई जगह नहीं है।

२३ दिसंबर २०१३

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