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संस्कृति

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  प्रजापति ब्रह्मा की यज्ञस्थली पुष्कर
- प्रो. अभिराज राजेन्द्र मिश्र


तीर्थाटन एवं व्रतोपवास का विधान धर्मचर्या का प्रधान अंग रहा है। वैदिक, सौगत तथ आर्हत- तीनों ही परंपराओं में तीर्थों की महिमा का वर्णन मिलता है। प्रायः इन तीर्थों का निर्माण किसी महातपा ऋषि के लोकोत्तर चरित, उसके यज्ञ-याग अथवा अन्य किसी देवमिथक पर आधारित रहा है। लोककल्याण में निरत तपस्वियों को तो ‘जंगम’ अर्थात् संचरणशील तीर्थ कहा ही गया है। तीर्थों में जिसकी-जैसी आस्था होती है, उसे वैसी ही सिद्धि भी प्राप्त होती है, यह तथ्य प्राचीन आचार्यों ने व्यक्त किया है:

मंत्रे तीर्थे द्विजे देवे भैवज्ये च गुरावपि।
याहशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति ताहशी।।

अनादि सिद्धिक्षेत्र - पुष्करराज

संसार की प्राचीनतम पर्वतश्रृंखला नागपर्वत की मनोरम उपत्यका में, समुद्र से १५८० फुट की ऊँचाई पर विराजमान पुष्करतीर्थ, पुराणवाड्मय में अनादि सिद्धिक्षेत्र माना गया है। यह दिव्यतीर्थ राजस्थान प्रदेश के अजमेर जनपद में, नगर से कुछ दूर नैऋत्य कोण में अवस्थित है। हरीतिमा से ओतप्रोत वनराजियों, नित्यशिशिर वातावरण तथा मधुर जलकूपों से भरा-पुरा पुष्करतीर्थ, पृथ्वी पर उतरा हुआ स्वर्गलोक का एक पावन अंश ही प्रतीत होता है।

ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत, ब्रह्मवैवर्त, स्कंद, पद्म, वायु, वाराह वामन, भविष्य, गुरुड़ तथा नृसिंहादि पुराणों में पुष्करतीर्थ में महिमामय विवरण प्राप्त होते हैं। इतना ही नहीं, आगमग्रंथों, स्मृतियों तथा परवर्ती वाड्मय (पृथ्वी-राजविजय, हम्मीरकाव्य) में भी तीर्थराज पुष्कर की विस्तृत अनुशंसाएँ प्राप्त होती हैं। समस्त तीर्थों में उत्कृष्ट होने के ही कारण पुष्कर को आदितीर्थ, तीर्थराज अथवा पुष्करराज कहा गया है।

पर्वतानां यथा मेरुः पक्षिणां गरुडो यथा।
तद्वत् समस्तीर्थानामाद्यं पुष्करमिष्यते।।

वस्तुतः पुष्कर की तीर्थवेत्ता सर्वोपरि है। यह किसी निमित्तविशेष से तीर्थ नहीं बना है। यह नित्यतीर्थ है। पृथ्वी पर स्थित होने के कारण यह भौमतीर्थ है। अंतरिक्ष तथा पृथ्वी - दोनों में रहने के कारण यह स्थावर-जंगम उभयकोटिक तीर्थ है। पौराणिक मान्यता है कि महाप्रलय में समस्त लोकों के नष्ट हो जाने पर भी पुष्कर का अस्तित्व समाप्त नहीं होता। इसके नित्यतीर्थ होने का यही रहस्य है। प्राचीनता में पुष्कर को साक्षात् नारायण के ही समकक्ष माना गया है:

यथा सुराणां सर्वेषामादिस्तु मधुसूदनः।
तथैव पुष्कराजस्तीर्थानामादिरुच्यते।।

प्रजापतिब्रह्मा की पावन यज्ञस्थली

तीर्थराज पुष्कर मूलतः जगतस्रष्टा ब्रह्मा के ज्योतिष्टोम यज्ञ की स्थली के रूप में प्रसिद्ध है। पद्यपुराण के सृष्टिखंड में पुष्करमाहात्म्य का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है।

आततायी दैत्य वज्रनाथ को मारने के लिए भगवान प्रजापति ने पुष्कर (कमल पुष्प) को आयुध बनाकर फेंका, जिससे पृथ्वी सहित समस्त लोक कंपित हो उठे। दैत्यनाशक यह कमल पुष्प जिस स्थान पर गिरा, वहीं पुष्कर नामक पवित्र सरोवर प्रकट हुआ तथा अनादि सिद्धिक्षेत्र के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। सांसारिक प्राणियों के पापप्रक्षालनार्थ देवी सरस्वती भी ब्रह्मलोक से उतरकर यहाँ आयी तथा सुप्रभा, कनका, चंद्रा, नंदा एवं प्राची सरस्वती के रूप में पंचस्त्रोतस्विनी के रूप में, इसी तीर्थक्षेत्र में प्रतिष्ठित हुई।

इसी पावन तीर्थभूमि में प्रजापति ब्रह्मा ने एक सहस्त्र वर्ष तक कठिन तप किया और अंततः दुस्साध्य ज्योतिष्टोम यज्ञ की दीक्षा ली। प्राचीन सरस्वती के पूर्वभाग में नंदनवन के पास सुरम्य यज्ञवेदिका निर्मित की गयी। देवध्वनि से सारा वातावरण गूँज उठा। यज्ञदर्शनार्थ देव-दानव, यक्ष-राक्षस, किन्नर-गंधर्व, विद्याधर-चारण, नाग एवं पितर, सब एकत्र हो उठे। पृथ्वीलोक के भी समस्त वर्णों के लोग इस दिव्य यज्ञ में उपस्थित हुए।

पौराणिक संदर्भ के अनुसार ब्रह्मा की पत्नी देवी सावित्री ने आने में बहुत विलंब किया। नारी स्वभाववश वह अन्यान्य देवपत्नियों की प्रतीक्षा करती रहीं। अकेले पहुँचने में उन्हें आत्मसम्मान की कमी अनुभव हुई। इधर, अध्वर्युमंडल ने कहा कि यज्ञदीक्षा की शुभ घड़ी बीत जाने पर यह यज्ञ निरर्थक हो जाएगा। फलतः सावित्री के विलंब से ब्रह्मा भी क्रुद्ध हो उठे।

यज्ञ की सार्थकता एवं विश्वकल्याण की कामना से तभी देवराज इंद्र एक सुंदरी गोपकन्या को ले आये। भगवान् विष्णु ने उस यशस्विनी कन्या का नाम रखा - गायत्री। विष्णु के निर्देशानुसार प्रजापति ने इसी कन्या (गायत्री) से गांधर्व विवाह कर, अर्धांगिनी के रूप में अपने साथ यज्ञवेदी पर प्रतिष्ठित किया तथा यज्ञदीक्षा संपन्न की।

विलंब से आयी सावित्री ने जब ब्रह्मा के साथ गायत्री को देखा तो क्रोध से मूर्छित हो उठीं। उन्होंने ब्रह्मा को शाप दिया कि एक पुष्करतीर्थ को छोड़, अन्यत्र कहीं भी आपकी पूजा नहीं होगी। इंद्रादि देवों को भी शाप देकर देवी सावित्री, सरोवर के पश्चिम में स्थित रत्नागिरि के शिखर पर घोर तप में लीन हो गयीं। सावित्री के चले जाने के बाद ब्रह्मा की यज्ञपत्नी देवी गायत्री ने शापपीड़ित देवों तथा याजकों को वरदान देकर संतुष्ट किया तथा सबको ‘ब्रह्मव्रत’ का उपदेश देते हुए कहा कि कार्तिक-पूर्णिमा को इस तीर्थ में ब्रह्मा की पूजा करने वाला धन-धान्य एवं सर्वविध सुख-सौभाग्य का वरण करेगा।

पुष्कर-सरोवर में स्नान कर रत्नागिरि स्थित माता सावित्री का दर्शन करने वाला व्यक्ति ज्योतिष्टोम यज्ञ का ही फल प्राप्त करता है- ऐसा पुराणों में बताया गया है।

पुष्करतीर्थ का परिवेश

कहने को तो पुष्करतीर्थ एक अर्धचंद्राकार निर्मल सरोवर मात्र पर केंद्रित है, जिसके पश्चिम-दक्षिण तटभाग पर पौराणिक ब्रह्माजी का विशाल मंदिर प्रतिष्ठित है। परंतु सच तो यह है कि तीर्थ अनेक लघुतीर्थों, आश्रमों, देवालयों तथा पुण्यसलिला नदियों से संकुल है।

प्रधान ब्रह्मा मंदिर में चतुर्मुख ब्रह्मा की पद्मासनस्थ मूर्ति स्थापित है। सन् १८०९ ई. में दौलतराव सिंधिया के मंत्री श्री गोकुलजी पारिख ने इस पुराण-देवालय का जीर्णोद्धार कराया। मंदिर के गर्भगृह तथा मुख्यमंडप में शुद्ध चाँदी के रुपये जड़े हैं।

अन्य प्राचीनतम देवालयों में श्री विष्णु वराह मंदिर प्रमुख है। दसवीं शती ई. में रुद्रादित्य नामक एक ब्राह्मण ने यह देवालय स्थापित किया था। चौहाननरेश अर्णोराज (सन् १२२३-५० ई.) ने उसी स्थान पर वर्तमान मंदिर को प्रतिष्ठित किया। कालांतर में इसका जीर्णोद्धार सिसोदिया-कुलभूषण महाराणा प्रतापसिंह के भाई सगर ने कराया। प्रमाणानुसार चित्तौड़-नरेश मोकल ने सन् १४२८ ई. में इसी मंदिर में सोने का तुला दान भी किया था।

पुष्कर-क्षेत्र के अन्य उल्लेखनीय स्थलों में अटमटेश्वर महादेव, सावित्री मंदिर, गायत्री शक्तिपीठ (नवीन) श्री रंगनाथ मंदिर, श्री रमा वैकुंठ मंदिर (नवीन) ज्येष्ठ, मध्य, कनिष्ठ पुष्कर, गया वायी, कपिलाश्रम, अगस्त्याश्रम, पंचकुंड, अजगंधेश्वर महादेव तथा प्राची सरस्वती हैं। इन समस्त क्षेत्रों से कोई-न-कोई रोचक पौराणिक आख्यान जुड़ा हुआ है, जिसके श्रवणमात्र से मन पवित्र हो उठता है। प्राची सरस्वती को ही लें-

प्राचीसरस्वतीं प्राप्य योऽन्यतीर्थं हि मार्गते।
स करस्थं समृत्सृज्य ह्यमृतं विषमिच्छति।।

महर्षि पराशर: पुष्कर के तीर्थपुरोहित
भगवान प्रजापति के यज्ञ में समस्त ऋषि-महर्षि उपस्थित थे। इस महान देव यज्ञ में सभी अध्वर्युवों को मनोनुकूल दान दिया गया। प्रसन्नमन ब्रह्मा ने ब्रह्मर्षि वसिष्ठ के पौत्र पराशर को श्री पुष्करतीर्थ का पौरोहित्य प्रदान किया।

इस यज्ञ में अनेक विचित्र घटनाएँ भी घटीं। मंकणक नामक एक ब्राह्मण की अंगुली का पोर कुशाग्रभाग से क्षत-विक्षत हो उठा तो उससे रक्त की बजाय मधुर सोमरस स्पंदित होने लगा। आनंदविभोर होकर वह विप्र नाचने लगा। सभी देवगण भी पुष्कर की इस महिमा से आहूलादित होकर थिरक उठे।

दूसरी रोचक घटना इस प्रकार है। भगवान शिव गले में नरमुंड-माल्य पहन तथा हाथ में भिक्षा-कपाल लेकर एक कापालिक के रूप में जब यज्ञभूमि में पधारे तो अशिव वेष देखकर ऋषियों ने उन्हें भगा दिया। कापालिक भिक्षाकपाल वहीं रखकर पुष्कर में स्नान करने चला गया। इसी बीच किसी व्यक्ति ने उस अपवित्र कपाल को बाहर फेंक दिया। परन्तु यह क्या? उस स्थान पर तत्काल दूसरा कपाल आ गया। फिर तो कपाल फेंके जाते रहे, परंतु उनकी श्रृंखला नहीं टूटी।

इस घटना से विस्मित होकर भगवान ब्रह्मा ने जब योगस्थ होकर देखा तो उन्हें सत्य का ज्ञान हो गया। उन्होंने श्रद्धापूर्वक भूतभावन शिव की स्तुति की। भगवान शिव तत्काल ही कापालिक- शरीर छोड़ अपने दिव्य रूप में प्रकट हो गये तथा यज्ञ की सफलता हेतु वर प्रदान किया।
भगवान प्रजापति ने शिव के ‘अटमट’ रूप को ही आदर देते हुए अटमटेश्वर नामक शिवलिंग की प्रतिष्ठा की तथा घोषणा की कि ज्येष्ठ पुष्कर में स्नान कर इस लिंग की अर्चना करने वाला व्यक्ति निश्चय ही परमगति (मोक्ष) का अधिकारी होगा।

बाष्कलि नामक क्रूर दानव का वृत्त भी पुष्कर से जुड़ा है। ब्रह्मा से अवध्यता का वर प्राप्त कर इस दानव ने अमरावती को भी जीत लिया तथा समस्त लोकों को उत्पीड़ित कर डाला। तब इंद्रादि देवों ने बाष्कलि के वधार्थ भगवान शिव की शरण ली। कृपालु शिव ने अज (बकरे) का रूप धारण किया तथा नृशंस दानव को सींगों के प्रहार से मार डाला। कृतज्ञ देवों ने प्रार्थना की- ‘हे शम्भो! आप पुष्करक्षेत्र में ही स्थायी रूप से रहें।’ देवों की प्रार्थना पर पृथ्वी को फाड़ कर तभी एक दिव्य शिवलिंग वहाँ प्रकट हो गया जो अजगंधेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुआ।

पुष्कर: पुराणोतिहास के झरोखों में

इस प्रकार पुष्कर एक समूहतीर्थ है। वैदिक युग से लेकर अद्यावधि संपन्न इस तीर्थ की जीवन यात्रा औपन्यासिक आनंद देती है। लगभग ५० कि.मी. के क्षेत्रफल में व्याप्त इस पावन तीर्थ की चौबीस कोस की परिक्रमा भक्तजन सावन के महीने में करते हैं।

जनश्रुतियाँ बताती हैं कि मालवनरेश शकारि विक्रमादित्य ने पुष्कर-स्थित विश्वविद्यालय में शिक्षा पायी थी। १२५ वर्ष ई. पूर्व में शकनरेश उषादत्त द्वारा पुष्कर में तीन हजार गायों का दान भी इन्हीं जनश्रुतियों में सुरक्षित है। महाप्रभु वल्लभाचार्य ने प्रयाग (अटैल) की ही तरह पुष्कर में भी श्रीमद्भागवत महापुराण का पारायण किया था। अभी भी वह स्थान ‘बैठक’ के रूप में पुष्कर में प्रतिष्ठित है।

सिखसंप्रदाय के दशमगुरु श्री गोविंदसिंहजी ने भी पुष्कर-सरोवर के गऊघाट पर स्नान कर पवित्र ‘ग्रंथसाहब’ का पाठ सन् १७६२ ई. में किया था। यहाँ के तीर्थपुरोहितों के कुलक्रमागत बहियों में सैकड़ों वर्ष पुराने तीर्थ यात्रियों के विवरण आज भी सुरक्षित हैं। मुगल बादशाहों ने भी इस तीर्थ को भूमिदान देकर सम्मानित किया था।

परंतु इस महिमाशाली तीर्थ को सर्वाधिक गौरव प्राप्त हुआ मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम से। पद्मपुराण के भूमिखंड़ अध्याय २७, २८ के प्रमाणानुसार भगवान राम अपने पिता महाराज दशरथ का श्राद्ध करने हेतु पुष्करतीर्थ में एक मास तक रहे।

वाल्मीकि रामायण (बालकांड, सर्ग ६२-६३) में गायत्री मंत्र के द्रष्टा महर्षि विश्वामित्र की तपःस्थली के रूप में पुष्कर तीर्थ का ही उल्लेख है। अप्सरा मेनका द्वारा तपोभंग के अनंतर विश्वामित्र, उसके साथ पुष्कर में ही दस वर्ष तक विहार-रत रहे। महाराज नृग द्वारा पुष्कर में ही गायों के दान का उल्लेख रामायण में मिलता है।

पुष्करे पुण्यवर्धनम्

पुष्करतीर्थ में सब कुछ रमणीय है। एक बार वहाँ पहुँचकर लौटने का मन नहीं होता। यहाँ घूमना, टहलना, स्नान करना, निवास करना- सब कुछ श्रेयस्कर है। तभी तो हरिवंशपुराण में कहा गया है- पुष्करे पुण्यवर्धनम्।

इस पावन सरोवर पर प्रायः आज से एक सहस्त्र वर्ष पूर्व मंदौर नरेश (मारवाड़) नाहरराव परिहार ने बारह घाट बनवाये थे, जिनकी संख्या अब बावन हो गयी है। इनमें सर्वप्रमुख है उत्तर दिशा में स्थित गऊघाट! प्रातः-सायं इसी घाट पर नित्यप्रति श्री पुष्करराज की आरती संपन्न होती है। ब्रिटेन की महारानी मेरी ने भी इसी घाट पर पुष्कर-स्नान कर स्वयं को धन्य माना था।

पुष्कर सरोवर चारों दिशाओं में ऊँची पर्वतश्रेणियों से परिवेष्टित है, फलतः इसकी जल-निकासी का कोई साधन नहीं। फिर भी इस दिव्य सरोवर का जल अत्यंत निर्मल, स्फूर्तिदायक, औषधीय गुणों से युक्त तथा दाद, खुजली, कुष्ठादि रोगों का विनाशक है। राजयक्ष्मा तक के शमन का गुण एवं सामर्थ्य पुष्कर के जल में है- यह अनुभूत सत्य है। विशेष पर्वों, योगों, नक्षत्रों तथा सक्रांतियों पर तो पुष्करस्नान साक्षात् मोक्षदायी ही माना गया है। विशेषतः कार्तिक का पुष्करस्नान तो अक्षय पुण्य का द्वार बताया गया है-

किं दानैः किं व्रतैर्ह्मेमेः किं यज्ञैर्बहुविस्तरैः।
कार्तिक्यां पुष्करस्नानैः सर्वेषां लभ्यते फलम्।।

इस संदर्भ में एक रोचक कथा का वर्णन पद्मपुराण में उपलब्ध है। पूर्वकाल में जब पुष्कर के स्नानमात्र से सभी मनुष्य पापमुक्त होकर सीधे स्वर्ग जाने लगे तो चिंतित देवगण ब्रह्मा के पास पहुँचे और कहा, ‘प्रभो ! अब तो कोई दान, यज्ञ, धर्माचरण तथा सत्यपालन करेगा ही नहीं। सभी स्नानमात्र से मुक्त हो जाएंगे।’

देवताओं की प्रार्थना स्वीकार कर भगवान प्रजापति ने यह विधान कर दिया कि पुष्करतीर्थ मात्र कार्तिक मास की एकादशी से पूर्णिमा तिथि तक (अर्थात मात्र पाँच दिन) भूतल पर प्रत्यक्ष रहेगा। शेष समय में वह अंतरिक्ष में स्थित रहेगा।
वस्तुतः कार्तिक पूर्णिमा के दिन ‘पद्मक योग’ बनने पर (विशाखा का सूर्य तथा कृत्तिका का चंद्र) पुष्कर में स्नान, दान एवं श्राद्ध कर्म से कोटिगुणाधिक पुण्यलाभ होता है।

जन्मप्रभृति यत्पापं स्त्रियों वा पुरुषस्य वा।
पुष्करस्नानमात्रेण सर्वमेव प्रणश्यति।।

 

 १ जून २०१५

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