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अल्पना क्या है
-प्रभा पंवार

अल्पना के संबंध में पुराणों में कई कथाएँ प्रचलित हैं। चित्रकला पर पहले भारतीय लेख 'चित्र लक्षण' में एक कथा का उल्लेख आता है, वह इस प्रकार है "एक राजा के पुरोहित का बेटा मर गया।'' ब्रह्मा ने राजा से कहा, ''वह लड़के का रेखाचित्र ज़मीन पर बना दे ताकि उस में जान डाली जा सके। राजा ने ज़मीन पर कुछ रेखाएँ खींचीं, यहीं से अल्पना की शुरुआत हुई।

इसी संदर्भ में एक और कथा है कि ब्रह्मा ने सृजन के उन्माद में आम के पेड़ का रस निकाल कर उसी से ज़मीन पर एक स्त्री की आकृति बनाई। उस स्त्री का सौंदर्य अप्सराओं को मात देने वाला था, बाद में वह स्त्री उर्वशी कहलाई। ब्रह्मा द्वारा खींचीं गई यह आकृति अल्पना का प्रथम रूप है। अल्पना के संबंध में और भी पौराणिक संदर्भ मिलते हैं, जैसे - रामायण में सीता के विवाह मंडप की चर्चा जहाँ की गई हैं वहाँ भी अल्पना का ज़िक्र है। दक्षिण में चोला शासकों के युग में अल्पना का सांस्कृतिक विकास हुआ।

मोहन जोदड़ो और हड़प्पा में भी मांडी हुई अल्पना के चिह्न मिलते हैं। अल्पना वात्स्यायन के 'काम-सूत्र' में वर्णित चौसठ कलाओं में से एक है। यह अति प्राचीन लोक कला है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में साधारणतया यह जाना जाता है कि 'अल्पना' शब्द संस्कृत के - 'ओलंपेन' शब्द से निकला है, ओलंपेन का मतलब है - लेप करना। प्राचीन काल में लोगों का विश्वास था कि ये कलात्मक चित्र शहर व गाँवों को धन-धान्य से परिपूर्ण रखने में समर्थ होते है और अपने जादुई प्रभाव से संपत्ति को सुरक्षित रखते हैं। इसी दृष्टिकोण से अल्पना कला का धार्मिक और सामाजिक अवसरों पर प्रचलन हुआ।

बहुत से व्रत या पूजा, जिनमें कि अल्पना दी जाती है, आर्यों के युग से पूर्व की है। आनंद कुमार स्वामी, जो कि भारतीय कला के पंडित कहलाते हैं, का मत है कि बंगाल की आधुनिक लोक कला का सीधा संबंध ५००० वर्ष पूर्व की मोहन जोदड़ो की कला से है। व्रतचारी आँदोलन के जन्मदाता तथा बंगला लोक कला व संस्कृति के विद्वान गुरुसहाय दत्त के अनुसार कमल का फूल जो बंगाली स्त्रियाँ अपनी अल्पनाओं के मध्य बनाती हैं, वह मोहन जोदड़ो के समय के कमल के फूल का प्रतिरूप ही है।

कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि अल्पना हमारी संस्कृति में आस्ट्रिक लोगों, जैसे मुंडा प्रजातियों से आई हैं, जो कि इस देश में आर्यों के आने से अनेक वर्ष पूर्व रह रहे थे। उन के अनुसार प्राचीन व परंपरागत बंगला की लोक कला कृषि युग से चली आ रही है। उस समय के लोगों ने कुछ देवी देवताओँ व कुछ जादुई प्रभावों पर विश्वास कर रक्खा था, जिसके अभ्यास से अच्छी फसल होती थी तथा प्रेतात्माएँ भाग जाती थीं।

लेकिन इससे यह नहीं समझना चाहिए कि अल्पना कला केवल बंगाल में ही प्रचलित है या थी। इसका अलग-अलग नामों से भिन्न-भिन्न रूपों में भारत के अन्य भागों में भी प्रचलन है, गुजरात में इसे सतिया, महाराष्ट्र में रंगोली, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश में चौक पूरना व सांझी, पहाड़ों में चौक पूरण व कहीं-कहीं 'एपण', राजस्थान में मंडने, बिहार में अरिचन, मधुबनी, कहजर, आँध्र प्रदेश में मुग्गुल और दक्षिण भारत में कोलम कहते हैं।

देश के समस्त प्रांतों की अल्पना कला में कुछ बातों में भिन्नता होते हुए भी कई बातों में समानता है -

भिन्न प्रांतों की अल्पना में समानता :

  • साधारणतया इसका स्त्री समाज में अधिक संबंध हैं और स्त्रियाँ ही इसे बनाती हैं। बड़े उत्सवों में स्त्रियों के समूह के समूह इस कार्य को करते हैं। कहते हैं जो आकार इसमें उभरते हैं उनके पीछे बनाने वालों का प्रेम, लगन और उसकी भक्ति होती है। स्त्रियाँ जैसे-जैसे रेखाएँ खींचती हैं, उन रेखाओं में आकृतियाँ बनती जाती हैं, अपने भावों की अभिव्यक्ति वे गीतों की पंक्तियों में भी करती हैं।
  • इस सजावट से बनाने वालों की आंतरिक शुद्धता का पता चलता है। कन्याएँ प्रारंभ से ही पूजा करते समय यह कामना करती है कि हमें ऐसा पति व घर मिले जो धन-धान्य से पूर्ण हो, इसलिए अल्पना में समस्त शृंगार व गृहस्थी की चीज़ें जैसे धान, मछली, कंघी बनाकर पूजा की जाती है। जब नई बहू घर में प्रवेश करती है तो कई जगह उसे दरवाज़ों पर रुक कर अल्पना बनानी पड़ती हैं। इस अल्पना में जो आकृतियाँ उभरती हैं, उनको देख कर बनाने वाले के व्यक्तित्व का बोध होता है। कई परिवारों में बहू को लक्ष्मी का रूप मानते हैं। उसके स्वागत में अल्पना में कमल बनाए जाते हैं, जिन पर उसे चलने को कहा जाता है।
  • अल्पना बहुत तन, मन व श्रद्धा से की जाती है। यह जानते हुए भी कि यह कल धुल जाएगी, जिस प्रयोजन से की जाती है, वह हो जाने की कामना ही सबसे बड़ी है। यह सामाजिक उत्सवों, दुखी अवसरों, त्यौहारों तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बनाई जाती है। कुछ धार्मिक 'प्रतीक' ऐसे पाए जाते हैं, जो पीढ़ियों से उसी रूप में बनाए जाते रहे हैं - और इन प्रतीकों का बनाना आवश्यक होता है। कन्याएँ तथा बहुएँ अपनी माताओं तथा सासों से इस कला को सीखती है और इस प्रकार अपने-अपने परिवार की परंपरा को कायम रखती है।
  • इस कला में प्रयोग आने वाली सामग्री आसानी से हर स्थान पर मिल जाती है। इसलिए यह कला गरीब से गरीब परिवार में भी अंकित की जाती हैं, जैसे - पिसे हुआ चावल का घोल, सुखाए हुए पत्तों के पाउडर से बनाया रंग, चारकोल, जलाई हुई मिट्टी आदि।
  • इस कला का संबंध आस्ट्रिक लोगों से भी बताया जाता है। इस में प्रयोग में आने वाले कई नमूने आस्ट्रिक लोगों के आलेखनों में से लिए गए हैं इसलिए यह निश्चित है कि हमारे देश के बहुत से सामाजिक व धार्मिक रीति रिवाज़ हमने आस्ट्रिक लोगों से पाए हैं।
  • इन्हीं परंपरागत आलेखनों से प्रेरणा लेकर आचार्य अवनींद्रनाथ टैगोर ने शांति निकेतन में कला भवन में अन्य चित्रकला के विषयों के साथ-साथ इस कला को भी एक अनिवार्य विषय बनाया। आज यह कला शांति निकेतन की अल्पना के नाम से जानी जाती हैं। इस कला में गोरी देवी मजा का नाम चिरस्मरणीय रहेगा जो शांति निकेतन अल्पना की जननी मानी जाती हैं।

१६ मार्च २००५

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