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विज्ञान वार्ता

डॉली रे डॉली
डा गुरू दयाल प्रदीप

डॉली और उसकी प्रतिकृति

डाली रे डॉली, तू आई कहाँ से? क्यूँ कर आई? तेरा इरादा क्या है? क्या हश्र है तेरा? ................. .. . . कहीं ऐसा तो नहीं लग रहा है कि मैं आप सब को किसी नई हिंदी फिल्म के गाने का मुखड़ा सुना कर बोर करने जा रहा हूँ? घबराइए नहीं, मेरे पास और भी तरकीबें हैं बोर करने की। मसलन– राम–श्याम, सीता–गीता सरीखे जुड़वाँ भाइयों या बहनों की फिल्मी कहानी या फिर उससे भी आगे बढ़ कर आइ .एस .जौहर वाली तीजे भाइयों की कहानी . . . .। क्या मज़ाक है? भई, हम लोग परिपक्व और गंभीर पाठक हैं।ऐसी घिसी–पिटी बेकार की कहानियाँ सुनाने का मतलब क्या है ? तो जनाब, मैं भी कोई ऐसा–वैसा लेखक नहीं हूँ और डॉली को ले कर तो बिल्कुल नहीं ।

इनके बारे में सबसे पहला गंभीर सवाल यह है कि डॉली मैडम हैं कौन? और क्यों है इनका इतना नाम? तो जनाब़ दिल थाम कर बैठिए, दरअसल ये एक भेड़ की सुपुत्री हैं और इससे भी बड़ी बात उसकी क्लोन हैं!और अब मैं यह कहूँ कि  राम–श्याम, सीता –गीता सरीखे जुड़वाँ भाई या बहनें भी एक दूसरे के क्लोन होते हैं तो कृपया इसे मज़ाक न समझिएगा।इसके आगे चलें तो निम्न श्रेणी के जीव–जन्तु, जैसे बैक्टिरिया, एक कोशीय जीव आदि, एक दूसरे के ही नहीं,अपनी पिछली पीढ़ी के भी प्रायÁ क्लोन्स ही होते हैं। अब तो मानव क्लोनिंग की बातें चल रही हैं।ये भी क्लोन्स, वो भी क्लोन्स, तो फिर नई बात क्या है? क्यों है इतना हल्ला–गुल्ला, डॉली और इव जैसे तथाकथित मानव क्लोन्स को ले कर? आइए, क्लोन्स और क्लोनिंग से जुड़े ऐसे अनेक प्रश्नों का हल ढूँढने का प्रयास किया जाय।

किसी भी जीव की संरचना एवं कार्यकी के मूल में कोशिका होती है। इन कोशिकाओं में स्वतंत्र विभाजन की क्षमता  होती है। प्रजनन, भ्रूणीय विकास, वृद्धि आदि जैविक प्रक्रियाएँ कोशिका विभाजन द्वारा ही संचालित होती हैं। क्लोन्स एवं क्लोनिंग को अच्छी तरह समझने के लिए कोशिका की संरचना तथा विभाजन की प्रक्रिया का थोड़ा– बहुत ज्ञान आवश्यक है।

सामान्यत कोशिकाओं के केंद्र मे छोटे से गेंद के आकार का एक केन्द्रक होता है, जिसके अंदर पतले धागेनुमा ‘गुणसूत्र’(chromosomes) पाये जाते हैं। इन गुणसूत्रों की संख्या प्रत्येक प्रजाति के लिए निश्चित होती है, उदाहरण के लिए मानव की प्रत्येक कोशिका में 46 (23 जोड़े) तो चिम्पैंजी में 48(24 जोड़े)। ये गुणसूत्र मुख्य रूप से एक विशेष रसायन ‘डीऑक्सी राइबोज़ न्युक्लिक एसिड’ ह्यडण्अहृ द्वारा निर्मित होते हैं। डीएनए स्वयं में एक जटिल रसायन है़ जिसके बारे में फिर कभी चर्चा की जाएगी। फिलहाल अभी मोटे तौर पर यही समझिए कि यह रस्सी की एक घुमावदार सीढ़ी के समान होता है,जिसका एक भाग कोशिका के एक गुण के लिए जिम्मेदार होता है तो दूसरा किसी अन्य गुण के लिए। इन भागों को हम ‘जीन्स’ के नाम से पुकार सकते हैं। डीएनए का एक और विशेष गुण है, अपनी प्रतिकृति स्वयं निर्मित कर लेने की क्षमता।

कोशिका विभाजन की प्रक्रिया में सबसे पहले डीएनए की प्रतिकृति का निर्माण होता है। इनके निर्माण का अर्थ है, जीन्स की प्रतिकृतियों का निर्माण जो अन्तत: गुणसूत्रों की प्रतिकृतियों के निर्माण के रूप में दिखाई पड़ता है। कोशिका विभाजन के समय उपरोक्त गुणसूत्रों की एक–एक प्रति दोनों निर्माणाधीन कोशिकाओं को मिलती है। इस प्रकार के कोशिका विभाजन को ‘समसूत्री विभाजन” कहते हैं।जब नवनिर्मित कोशिकाओं में एक ही प्रकार के गुणसूत्र हैं तो उनमें जीन्स भी एक ही प्रकार के होंगे और जब जीन्स एक प्रकार के हैं तो निश्चय ही उनके अनुवांशिक गुण भी एक ही प्रकार के होंगे अर्थात् संरचना एवं कार्यप्रणाली में जनक कोशिका से समानता होगी।

बैक्टिरिया एवं अमीबा जैसे निम्न श्रेणी के एक कोशीय जीवों में प्रजनन की प्रक्रिया सामान्यत: उपरोक्त तरीके से ही होती है। इनकी सामान्य कोशिकाओं में गुणसूत्रों की एक–एक प्रति ही होती है अर्थात् एक अनुवांशिक गुण के लिए एक ही जीन होता है। फलत: इनमें प्रजनन की प्रक्रिया  काफी सरल है। बस, जीन्स और गुणसूत्रों की प्रतिकृति का निर्माण होते ही कोशिकाओं का निर्माण भी हो जाता है और उन्हें गुणसूत्रों की एक–एक प्रति मिल जाती है। प्रजनन की ऐसी प्रक्रिया को ‘अलैंगिक प्रजनन’ कहते हैं । जनक पीढ़ी से अनुवांशिक समानता होने के कारण नई पीढ़ी के सदस्यों को उनकी प्रतिकृति (clones)  कहते हैं।

अलैंगिक विधि से उत्पन्न संतानें पीढ़ी दर पीढ़ी एक समान होती हैं और यही इस विधि की सबसे बड़ी कमी है। विकास के लिए भिन्नता का होना आवश्यक है। विभिन्नताओं के कारण ही जीव–जन्तु पृथ्वी के सतत् परिवर्तनशील वातावरण के अनुरूप स्वयं को ढालने में सक्षम होते हैं एवं खराब से खराब परिस्थिति में भी कुछ सदस्यों के बच जाने की संभावना रहती है, जो क्रमिक विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते रहने में सहायक होते हैं। यदि किसी प्रजाति की एक पीढ़ी के सभी सदस्य एक जैसे हो जाएँ तो विपरीत परिस्थतियों में कोई नहीं बच पाएगा और पूरी प्रजाति का अस्तित्व ही समाप्त हो सकता है।

किसी भी प्रजाति की एक ही पीढ़ी के सदस्यों में भिन्नता बनाए रखने के लिए ही शायद प्रकृति ने ‘लैंगिक प्रजनन’ का प्रावधान किया है। निम्न श्रेणी के जीव भी यदा–कदा इस विधि का सहारा लेते हैं परन्तु उच्च श्रेणी के बहु कोशीय जीवों में लैंगिक प्रजनन की प्रक्रिया ही प्रमुख है। ऐसे जीवों की सामान्य शारीरिक कोशिकाओं में प्रत्येक गुणसूत्र की दो–दो प्रतियाँ होती है अर्थात् प्रत्येक अनुवांशिक गुण के लिए दो–दो जीन्स होते हैं , जिनका प्रभाव एक जैसा भी हो सकता है अथवा भिन्न भी। लैंगिक प्रजनन के लिए कम से कम दो कोशिकाओं की आवश्यकता होती है, जिनमें थोड़ी–बहुत भिन्नता अवश्य हो। ऐसी कोशिकाओं को युग्मक (gametes) कहते हैं,  जिनका निर्माण उच्च श्रेणी के बहुकोशीय जीवों के नर एवं मादा जननांगों में अर्धसूत्रीय कोशिका विभाजन द्वारा होता है। इस प्रकार के कोशिका विभाजन में सर्वप्रथम समान गुणसूत्रों की प्रतियों में कुछ अंशों का आदान –प्रदान होता है। इसके पश्चात् इन गुणसूत्रों की एक–एक प्रति निर्माणाधीन युग्मकों को मिल जाती है। इस प्रकार नवनिर्मित युग्मकों में गुणसूत्रों की संख्या सामान्य शारीरिक कोशिका की तुलना में आधी होती है एवं प्रत्येक जीन की एक–एक प्रति ही होती है। ऐसे दो युग्मक, जिनका निर्माण अलग–अलग नर एवं मादा जनांगों में हुआ हो, आपस में  मिल कर निषेचन (Fertilisation)  द्वारा युग्मनज(Zygote) का निर्माण करते हैं। निषेचन की इस प्रक्रिया द्वारा युग्मनज में गुणसूत्रों की संख्या फिर से शरीर की सामान्य कोशिकाओं के बराबर हो जाती है एवं साथ ही साथ इसमें नर–मादा दोनों के गुणों का समावेश भी हो जाता है।

वास्तव में बहुकोशीय जीवों की शारीरिक संरचना एवं कार्य की काफी जटिल होती है और यह जटिलता इनके क्रमिक विकास के साथ–साथ बढ़ती ही गई है। स्तनधारियों तक पहुँचते–पहुँचते तो यह अत्यंत जटिल हो जाती है। कारण, इनका जीवन कोशिका तक ही सीमित नहीं रहता। लैंगिक प्रजनन द्वारा निर्मित कोशिका ‘युग्मनज’, लगातार विभाजित होना प्रारंभ करती है। यह विभाजन समसूत्रीय होता है अर्थात् नवनिर्मित कोशिकाएँ अनुवांशिक रूप से समान होती हैं। विभाजन की यह प्रक्रिया युग्म को भ्रूणीय विकास की ओर अग्रसित करती है, जो स्वयं में प्रकृति की एक अद्भुत् एवं चमत्कारी घटना है।

विभाजित होती हुई कोशिकाओं में अचानक गतिशीलता आ जाती है और वे भ्रूण के अन्दर विभिन्न स्तरों में संगठित होने लगती हैं। यही नहीं, अनुवांशिक रूप से समानता होते हुए भी वे भ्रूणीय विकास की विभिन्न दिशाओं में अग्रसित होने लगती हैं।यह विभिन्नता, नाना प्रकार के ऊतकों( Tissues) के निर्माण के रूप में परिलक्षित होता है। ये ऊतक,संरचना एवं कार्यकी के आधार पर एक दूसरे से काफी भिन्न होते हैं। उदाहरण के लिए मांसपेशी बनाने वाले ऊतक में फैलने–सिकुड़ने का गुण होता है, तो स्नायु तंत्र का निर्माण करने वाले ऊतक में कम वोल्टेज की विद्युत तरंगों के रूप में सूचनाओं के संप्रेषण का गुण होता है।

भ्रूणीय विकास के अगले क्रम में, इन ऊतकों को संगठित कर विभिन्न अंगों का निर्माण होता है और अंत  में अंग प्रणालियों का। भ्रूणीय विकास की प्रक्रिया पूर्ण होने  के पश्चात् एक शिशु का जन्म होता है, जो अपनी प्रजाति के परिपक्व सदस्य का नन्हा परन्तु अपरिपक्व प्रतिरूप होता है। विकास की प्रक्रिया शिशु के परिपक्व सदस्य का आकार पाने तक  अबाधित रूप से चलती रहती है, जिसे शारीरिक एवं  मानसिक  वृद्धि के रूपमें देखा जा सकता है।

जीवों की इस संपूर्ण विकास यात्रा का संचालन एवं नियंत्रण, इन कोशिकाओं के गुणसूत्रों पर स्थित जीन्स द्वारा ही होता है। वास्तव में, जीवन की किसी भी अवस्था में शरीर की सभी कोशिकाओं के सभी जीन्स एक साथ एवं समान रूप से सक्रिय नहीं रहते। कोशिका की नियमित एवं महत्वपूर्ण जैविक कार्यकलापों का नियंत्रण करने वाले जीन्स के समूह तो सभी कोशिकाओं में जीवन पर्यंन्त सक्रिय रहते हैं परन्तु कोशिकाओं की संरचना एवं कार्यकलापों में विशिष्ट परिवर्तन लाकर इन्हें ऊतक–विशेष में परिवर्तित करने वाले जीन्स के समूह, जीवन की विशेष अवस्था में ही सक्रिय होते हैं। इनकी सक्रियता–निष्क्रियता कोशिका के आंतरिक एवं वाह्य वातावरण, कोशिका की आयु, कोशिका विभाजन की बारंबारता आदि पर निर्भर करती है। यही कारण है कि भ्रूणीय विकास के दौरान विभाजित होती हुई कोशिकाओं के विभिन्न स्तरों में संगठित होने के पश्चात् ही कुछ कोशिकाओं में जीन्स के वे समूह सक्रिय होते हैं जिनके द्वारा इनका परिवर्तन मांसपेशीय ऊतक की कोशिकाओं में होने लगता है तो कुछ अन्य कोशिकाओं में जीन्स के दूसरे समूह सक्रिय हो कर उन्हें स्नायुतन्त्रीय ऊतक की कोशिकाओं में बदलने लगते हैं।

ऊतक कोशिकाओं के निर्माण के पश्चात् , ऊतकीय कोशिकाओं में भी विभाजन की प्रक्रिया चलती रहती है। परन्तु इस विभाजन से उस ऊतक विशेष की कोशिकाओं का ही निर्माण होता है अर्थात् इन कोशिकाओं में जीन्स के वे समूह निष्क्रिय हो जाते हैं जिनसे अन्य प्रकार की ऊतकीय कोशिकाओं का निर्माण संभव है। भ्रूणीय विकास के प्रारंभिक काल में इन ऊतकीय कोशिकाओं से अन्य प्रकार की ऊतकीय कोशिकाओं का निर्माण परिस्थिति विशेष में संभव भी है परन्तु समय के साथ–साथ इन कोशिकाओं की यह क्षमता क्षीण होते–होते लगभग समाप्त हो जाती है। एक पूर्ण विकसित जीव की सामान्य ऊतकीय कोशिका से अन्य प्रकार की ऊतकीय कोशिकाओं का विकास प्राकृतिक रूप से संभव नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि जीव की आयु के साथ–साथ विभिन्न प्रकार के ऊतकों की कोशिकाओं के केन्द्रक भी समयबद्ध योजना के अन्तर्गत वृद्ध होते जाते हैं और धीरे–धीरे उनमें ऐसे जीन–समूहों को सक्रिय करना संभव नहीं होता जिससे अन्य प्रकार की ऊतकीय काीिशकाओं का विकास हो सके। ऐसी कोशिकाओं से नए जीव का विकास तो बिल्कुल असंभव है। जननांगों की कोशिकाएँ अपवाद हैं।

जननांगों की कोशिकाएँ अर्धसूत्री विभाजन द्वारा युग्मकों का निर्माण करती हैं, जिनके निषेचन से युग्मनज का निर्माण संभव है। इन युग्मनजों के केन्द्रकों के जीन्स में पुनÁ यह क्षमता आ जाती है जिससे भ्रूणीय विकास के दौरान विभिन्न प्रकार की ऊतकीय कोशिकाओं का निर्माण होता है और अन्तत:  नए जीव का।

हम मनुष्य खोजी प्रकृति के जीव हैं। प्रकृति में जिसका प्रवधान न हो, उसे कर दिखाने में हमें जो आनंद और संतोष मिलता है, वह अवर्णनीय है। विशेषकर तब, जब उसमें हमारा भला हो। क्या हम अपनी त्वचा अथवा मांसपेशी की कोशिका से सन्तान उत्पन्न कर सकते हैं? इस प्रश्न का उतर पाने की दिशा में रॉबर्ट ब्रिग्स एवं थॉमस किंग द्वारा अफ्रीकन मेढक के अनिषेचित डिंब  (मादा युग्मक) में केन्द्रक प्रतिरोपण का प्रयोग उल्लेखनीय है।

सर्वप्रथम, मेढक के अनिषेचित डिंब से उसके अर्ध गुणसूत्री केन्द्रक को निकाल कर नष्ट कर दिया गया। तत्पश्चात्, मेंढक के ही भ्रूणीय विकास की विभिन्न अवस्थाओं से गुजर रही कोशिकाओं से दि्वगुणसूत्री केन्द्रकों को निकाल कर केन्द्रक रहित अनिषेचित डिंबों में  प्रतिरोपित किया गया। ऐसे प्रतिरोपित केन्द्रक वाले डिंब भी भ्रूणीय विकास की ओर अग्रसित हुए। जिन डिंबों में भ्रूणीय विकास की प्रारंभिक अवस्था की कोशिका का केन्द्रक प्रतिरोपित किया गया था, वे तो विकसित हो कर भ्रूणीय विकास की अगली अवस्था ‘टैडपोल’ तक पहुँच गए परन्तु जिनमें भ्रूणीय विकास की बाद की अवस्थाओं वाली कोशिकाओं के केन्द्रक प्रतिरोपित किए गए थे, उनका भ्रूणीय विकास नहीं हो पाया। एक बात और–इन प्रयोगों एवं उन भ्रूणों ( जिनकी प्रारंभिक अवस्था की कुछ कोशिकाओं से केन्द्रकों को निकाल कर अनिषेचित डिंब में प्रतिरोपित किया गया था) से उत्पन्न ‘टैडपोल’, अनुवांशिक रूप से समान थे अर्थात् एक दूसरे के क्लोन्स। क्लोनिंग की दिशा में संभवत: यह पहला प्रयोग था।

ऐसे प्रयोगों से यह निष्कर्ष निकाला गया कि अर्धसूत्री युग्मकों एवं उनके निषेचन से निर्मित युग्मनजों के अतिरिक्त, सामान्य कोशिका के केन्द्रक को मादा युग्मक ‘डिंब’ में प्रतिरोपित कर, नए जीव का निर्माण संभव है। बशर्ते ये केन्द्रक, उस जीव के भ्रूण की प्रारंभिक अवस्था की कोशिकाओं से ही लिए गए हों, ऊतकीय विकास या उसके बाद की अवस्था से नहीं। एक परिपूर्ण विकसित जीव की  कोशिकाओं के केन्द्रक से यह कार्य लगभग असंभव है।

लेकिन नहीं, इस असंभव को संभव कर दिखाया रोज़लिन रिसर्च इंस्टि्यूट, स्कॉटलैंड में कार्यरत आयन विल्मट और उनके साथियों ने। इन लोगों ने मादा भेड़ के स्तन की कोशिका को अलग कर पोषण– तत्वों रहित ‘कृत्रिम कल्चर माध्यम’ में जीवित रखने में सफालता पाई। पोषण तत्वों के अभाव में इन भूखी कोशिकाओं के समसूत्री विभाजन की प्रक्रिया पूरी तरह रूक गई और इनमें सक्रिय जीन्स निष्क्रिय हो गए। इसी बीच एक अन्य मादा भेड़ के अंडाशय से एक अनिषेचित डिंब को  निकाल कर अलग किया गया। तत्पश्चात्, एक अति सूक्ष्म पिपेट द्वारा इस डिंब के अर्धसूत्री केन्द्रक को चूस कर निकाल दिया गया। अब डिंब के वास्तविक केंन्द्रक के स्थान पर स्तन से प्राप्त  भूखी कोशिका के केन्द्रक को प्रतिरोपित किया गया। प्रतिरोपण की प्रक्रिया को सफलता पूर्वक प्रतिपादित करने के लिए क्षीण विद्युत तरंगों का उपयोग किया गया था। इस प्रकार की प्रतिरोपण प्रक्रिया से प्राप्त डिंबों को लगभग छ: दिनों तक पोषण–तत्वों युक्त कृत्रिम कल्चर माध्यम में रखा गया, जहाँ इनमें भूणीय विकास की क्रिया प्रारंभ हो गई। विकसित हो रहे इन भ्रूणों में से एक को किसी अन्य मादा भेड़ के गर्भाशय में प्रतिस्थापित किया गया, जहाँ इसका विकास सामान्य भ्रूण के समान हुआ और अन्तत: एक मादा शिशु भेड़ ने जन्म लिया। इसका नाम डॉली रखा गया। डॉली अनुवांशिक रूप से उस मादा भेड़ की प्रतिकृति थी, जिसके स्तन की कोशिका के केन्द्रक का प्रतिरोपण डिंब में किया गया था।

इसके पश्चात् तो क्लोनिंग से संबंधित प्रयोगों की होड़ लग गई। जापान के वैज्ञानिकों ने एक अलग विधि द्वारा गाय के एक ही निषेचित डिंब से आठ बछड़ों को जन्म देने में सफलता पाई है। इस विधि में निषेचित डिंब को गाय के गर्भाशय में ही प्रारंभिक भ्रूणीय विकास करने दिया गया। जब यह भ्रूण आठ कोशिकाओं की अवस्था में पहुँचा तब इसे गर्भाशय से निकाल लिया गया एवं एन्ज़ाइम की सहायता से इनकी आठों कोशिकाओं को अलग–अलग कर कृत्रिम कल्चर माध्यम में रखा गया। कुछ समय बाद इन आठों कोशिकाओं को अलग–अलग गायों के गर्भाशय में प्रतिस्थापित कर दिया गया, जहाँ इनका विकास सामान्य भ्रूण के समान हुआ और अन्तत: आठ प्रतिकृति बछड़ों का जन्म संभव हो पाया।अब तो मानव क्लोनिंग की बातें चल रही हैं।

उपरोक्त विधियाँ पढ़ने–सुनने में जितनी सरल प्रतीत हो रही हैं, वास्तव में ये उतनी ही कठिन हैं। इसके अत्यंत जटिल तकनीकीय पक्ष भी हैं, जिनके कारण ऐसे प्रयोगों में प्राय: असफलता ही मिलती है। सफल रूप से उत्पन्न क्लोन्स भी अपनी जीवन यात्रा में अक्सर शारीरिक एवं कार्यकीय विकृति के शिकार हो जा जाते हैं। डॉली असमय ही बूढ़ी होने लगी है। क्लोनिंग की तकनीकि अभी भी शैशव अवस्था में ही है।

आखिर हम क्लोनिंग के पीछे पडे़ ही क्यों है? इससे हमें लाभ क्या है? इन प्रश्नों का उतर विस्तार से फिर कभी खोजा जाएगा। फिलहाल, एक–आध उदाहरण से आशा है काम चल जाएगा। यथा, इस विधि द्वारा प्राकृतिक रूप से संतान उत्पन्न करने में असक्षम दंपति अपने ही शरीर की किसी सामान्य कोशिका से संतान उत्पन्न कर संतति–सुख भोग सकते हैं अथवा विवाह की अनिच्छुक महिलाएँ भी अपना क्लोन उत्पन्न कर संतान–सुख का आनंद उठा सकती हैं। ध्यान रहे , ऐसा केवल महिलाओं के संदर्भ में ही संभव है। अफसोस, पुरूषों को अपना क्लोन उत्पन्न करने के लिए एक अदद महिला की आवश्यकता निश्चय ही होगी। आखिर, पुरूष शरीर की कोशिका से प्राप्त केन्द्रक को महिला के डिंब में ही प्रतिरोपित किया जा सकता है एवं इस प्रतिरोपित डिंब से संतान उत्पति के लिए भी उसे महिला के गर्भाशय में ही प्रतिस्थापित करना पड़ेगा। महिलाओं को भी अभी इतना खुश होने की आवश्यकता नहीं है, क्यों कि प्रमाणिक  रूप से अभी तक मानव क्लोनिंग नहीं हो पाई है और न तो हम अभी इनसे जुड़े तकनीकीय एवं सामाजिक गुत्थियों को सुलझा पाए हैं।

चलते–चलते यह भी बता दिया जाए कि एक समान दीखने वाले जुड़वाँ भाई या बहनें क्लोन्स किस प्रकार हैं? प्राकृतिक रूप से सामान्य परिस्थिति में एक निषेचित डिंब से एक ही भ्रूण का विकास होता है परंतु कभी–कभी अपवाद स्वरूप या दुर्घटनावश निषेचित डिंब से भ्रूणीय विकास के दौरान प्रथम विभाजन द्वारा निर्मित  दोनों कोशिकाएँ एक दूसरे से अलग हो जाती हैं एवं उनका विकास दो अलग–अलग भ्रूणों के रूप में एक साथ होता है। एक ही निषेचित डिंब से निर्मित होने के कारण ये दोनों भ्रूण अनुवांशिक रूप से समान होते हैं। दोनों भ्रूणों का लिंग भी एक ही होता है, फलत: इनका जन्म जुड़वाँ भाइयों या बहनों के रूप में होता है  और ये एक दूसरे की शतप्रतिशत प्रतिकृति  ( Clones) होते हैं।  

टिप्पणी: कुछ दिनों पूर्व डॉली को मौत की नींद सुला दिया गया।वास्तव में वह विगत कुछ समय से फेफड़े की बीमारी से ग्रसित थी। यह बीमारी भेड़ों में सामान्य है। इस बीमारी से हो रही असहनीय पीड़ा के कारण वैज्ञानिक उपरोक्त निर्णय लेने के लिए बाध्य हुए। उपरोक्त आलेख डॉली की मृत्यु के कुछ दिन पूर्व लिखा गया था।

1 मार्च 2003
 
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