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विज्ञान वार्ता

हेलिकोबैक्टर पाइलोरी और नोबेल पुरस्कार
—डा. गुरुदयाल प्रदीप

डा रॉबिन वारेन (बाएँ) और डॉ बैरी मार्शल(दाएँ)

हेलिकोबैक्टर पाइलोरी... पेप्टिक अल्सर... रॉबिन वारेन... बैरी मार्शल... जैसे शब्दों में भला क्या संबंध हो सकता है? देखा जाए तो ये चारों बस नाम मात्र हैं लेकिन यदि इन्हें इस वर्ष के नोबेल प्राइज़ के संदर्भ में देखें तो बड़ा गहरा संबंध है। कम से कम शब्दों में इनके संबंध का वर्णन करना है तो इतना कहना प्रर्याप्त होगा कि आस्ट्रेलियन वैज्ञानिक रॉबिन वारेन एवं बैरी मार्शल ने यह पता लगाया है कि 'गैस्ट्राइटिस' तथा 'पेप्टिक अल्सर' जैसी कष्टकारक बीमारियों की जड़ में 'हेलिकोबैक्टर पाइलोरी' नामक बैक्टिरिया है और ‘फ़िज़ियोलॉजी या मेडिसिन' के क्षेत्र में इस महत्वपूर्ण खोज के लिए इन्हें इस वर्ष के नोबेल प्राइज़ से सम्मानित किया गया है।

इनकी इस खोज के महत्व को अच्छी तरह समझने के लिए आवश्यक है कि पहले हम यह समझ लें कि 'पेप्टिक अल्सर' है क्या। वास्तव में शरीर के किसी भी भाग के सतही ऊतकों के क्षय अथवा विदरीकरण के फलस्वरूप निर्मित होने वाले घाव को अल्सर का नाम दिया जा सकता है। आमाशय के अंतिम भाग 'एँट्रम' अथवा छोटी आंत के अग्रिम भाग 'ड्यिोडिनम' की आंतरिक सतह 'म्युकस मेंब्र्रेन' के विदरण के फलस्वरूप बनने वाले घावों को 'पेप्टिक अल्सर' का नाम दिया गया है। ऐसे रोगियों में मुख्य रूप से पेट–दर्द का लक्षण खाना खाने के एक से तीन घंटे के अंदर उभरता है जो सामान्यतया क्षारिय पदार्थोंं के सेवन से कम हो जाता है। ये घाव प्रारंभ में गोल अथवा अंडाकार दीखते हैं और सतही होते हैं परंतु धीर–धीरे गहरे होते जाते हैं और अंत में आहारनाल की दीवार में आर–पार के छिद्र का रूप ले सकते हैं। इनसे होने वाला रक्त का रिसाव अंततः मृत्यु का कारण भी बन सकता है। इसी भाग के ऊतकों मे आई प्रदाह की स्थिति (inflamation) को 'गैस्ट्राइटिस' के नाम से पुकारा जाता है।

वारेन तथा मार्शल की खोज के पूर्व गैस्ट्राइटिस तथा पेप्टिक अल्सर के बारे में अवधारणा यह थी कि ये दोनों बीमारियां मानसिक तनाव या फिर विशेष जीवन शैली यथा– अत्यधिक मदिरा सेवन, अम्लीय खाद्यपदार्थों का सेवन या फिर लंबे समय तक भूखे रहने आदि का कुपरिणाम है। इन परिस्थितियों में हाइड्रोक्लोरिक एसिड, पेप्सिन जैसे एँज़ाइम आदि से मिल कर बने 'गैस्ट्रिक एसिड्स' का स्राव आवश्यकता से अधिक होने लगता है जो आमाशय अथवा ड्यिोडिनम की दीवार पर ही क्रियाशील हो जाता है जिसके फलस्वरूप पहले तो गैस्ट्राइटिस और फिर अंततः पेप्टिक अल्सर के लक्षण उभरने लगते हैं। पेप्टिक अल्सर प्रायः दीर्घकालिक रोग का रूप ले लेते हैं। गैस्ट्रिक एसिड्स के स्राव को कम करने अथवा रोकने वाली दवाओं के बल यदि ऐसे घाव भर भी जाएँ तो कुछ समय बाद ये फिर उभर सकते हैं। ऐसा क्यों होता है? इसका उत्तर भी वारेन तथा मार्शल के शोध में निहित है।

१९८२ में ऑस्टे्रलियन पैथॉलॉजिस्ट रॉबिन वारेन ने इस रोग से पीड़ित रोगियों के आमाशय तथा ड्युडिनम की 'बॉयोप्सी' के अध्ययन के बाद यह पाया कि ऐसे ५० प्रतिशत रोगियों के आमाशय के निचले हिस्से 'एँट्रम' को छोटे आकार के वक्र्र–रूपी बैक्टिरिया ने अपना डेरा बना रखा है। इन्होंने यह भी पाया कि आमाशय अथवा ड्यडिनम के जिस हिस्से में ये बैक्टिरिया पाए गए उस हिस्से की कोशिकाओं में प्रदाह अवश्य था।

बाद में एक अन्य सहयोगी बैरी मार्शल वारेन भी इस नयी खोज में रुचि लेने लगे। दोनों ने मिलकर पेप्टिक अल्सर से पीड़ित लगभग सौ रोगियों की बॉयोप्सी के अध्ययन का बीड़ा उठाया। कई प्रयासों के बाद मार्शल ने ऐसे कई रोगियों की बॉयोप्सी से इस अनजाने–अनाम बैक्टिरिया (जिसे अब हम हेलिकोबैक्टिरिया पाइलोरी के नाम से जानते हैं) को 'कल्चर' करने में सफलता प्राप्त की। दोनों वैज्ञानिकों के गहन अध्ययन के परिणामस्वरूप यह बात निश्चित रूप से पता चल गई कि चाहे आमाशय के प्रदाह से पीड़ित रोगी हों अथवा आमाशय या फिर ड्यिोडिनल अल्सर से पीड़ित रोगी, यह बैक्टिरिया लगभग सभी में सामान्य रूप से पाया जाता है। अपने शोध के आधार पर इन्होंने पुरानी मान्यताओं को चुनौती देते हुए नई अवधारणा को सबके सामने रखा कि इस बीमारी के मूल में इस बैक्टिरिया का हाथ अवश्य है।

बाद में वारेन एवं मार्शल तथा इनके अन्य सहयोगियों द्वारा इस रोग के निदान के संबंध में किए गए शोध से यह साबित हो गया कि इस रोग से पूरी तरह छुटकारा तभी संभव है जब ऐसे रोगियों के आमाशय से इस बैक्टिरिया का पूरी तरह सफ़ाया किया जा सके। मात्र अम्लीय स्राव को रोकने वाली औषधियों के प्रयोग से पेप्टिक अल्सर के घावों को भरा तो जा सकता है परंतु कुछ समय बाद ये फिर से उभर सकते हैं। आम्लीय स्राव को रोकने वाली औषधियों के साथ–साथ एंटीबॉयोटिक्स के प्रयोग से न केवल घाव ही भर जाते हैं बल्कि इस घुमावदार आकार वाले 'ग्राम–पॉज़िटिव' बैक्टिरिया से भी छुटकारा मिल सकता है, जिसके कारण यह रोग सामान्यतया दुबारा नहीं होता। हाँ, एंटीबॉयोटिक्स के अत्यधिक प्रयोग के फलस्वरूप इन बैक्टिरिया द्वारा प्रतिरोधक–शक्ति उत्पन्न कर लेने का ख़तरा अवश्य हो सकता है।

तमाम अध्ययनों के परिणामस्वरूप आज यह बात निश्चित रूप से साबित हो गई है कि गैस्ट्राइटिस, पेप्टिक अल्सर तथा हेलिकोबैक्टिरिया पाइलोरी में निश्चित संबंध है। ड्यिेडिनल अल्सर के लभग ९० प्रतिशत से अधिक रोगियों तथा ८० प्रतिशत तक गैस्ट्रिक अल्सर के मूल में 'हेलिकोबैक्टिरिया पाइलोरी' ही है और इसका मानसिक तनाव अथवा विशिष्ट जीवन शैली से कुछ ख़ास लेना–देना नहीं है। बल्कि किसी अन्य बैक्टिरिया–जनित रोग के समान यह भी एक संक्रामक रोग है जिसका संबंध किसी समाज या देश–विशेष के आर्थिक–सामाजिक स्तर से गहराई से जुड़ा होता है। विकसित देशों में जहाँ साफ़–सफ़ाई का स्तर ऊँचा है, इसके रोगी कम मिलते हैं। वहीं, विकासशील अथवा अविकसित देशों में, जहाँ साफ़–सफ़ाई का स्तर कम होता है, इसके रोगियों की संख्या अधिक देखी गई है।

वास्तव में यह बैक्टिरिया सामान्यतया बचपन में ही मां से बच्चे में स्थानांतरित हो जाता है। लगभग ५० प्रतिशत मनुष्यों में इसका संक्रमण देखा गया है। जिस भी मनुष्य में यह बैक्टिरिया पाया जाता है उसके आमाशय के आंतरिक स्तर 'म्युकोसा' की कोशिकाओं में प्रदाह अवश्य देखा जा सकता है। मज़े की बात यह है कि ऐसे अधिकांश लोगों में गैस्ट्राइटिस अथवा पेप्टिक अल्सर के लक्षण नहीं दिखते। इनमें ये बैक्टिरिया चुपचाप पड़े रहते हैं तथा कोशिकाओं के प्रदाह का स्तर भी काफ़ी कम होता है। इनमें से मात्र १० से १५ प्रतिशत लोगों में ही इन कोशिकाओं के प्रदाह का स्तर इस सीमा तक बढ़ता है कि पहले तो गैस्ट्राइटिस के लक्षण प्रकट होने लगते हैं और बाद में पेप्टिक अल्सर के भी।

किसी–किसी रोगी में यह बैक्टिरिया आमाशय के ऊपरी हिस्से 'कॉर्पस' को भी संक्रमित कर सकता है जिसका कुपरिणाम इस भाग के काफ़ी बड़े क्षेत्र में प्रदाह तथा बाद में न केवल अल्सर बल्कि कैंसर के रूप में भी सामने आ सकता है। हालांकि पिछली अर्धशताब्दी में आमाशय के कैंसर से मरने वालों की संख्या में काफ़ी कमी आई है, फिर भी कैंसर से मरने वाले रोगियों में इसका स्थान आज भी दूसरे नंबर पर है।

यह बैक्टिरिया क्यों कर कुछ ही लोंगों में गैस्ट्राइटिस या अल्सर का कारण बनता है या फिर किन कारणों से कुछ लोगों में आमाशय के कैंसर की वजह बनता है –इस पर अभी भी शोधकार्य चल रहे हैं। भविष्य में शायद हम इसके रोग उत्पन्न करने की क्रिया–विधि को अच्छी प्रकार समझ सकें तब हम इससे जनित रोगों के निवारण में पूर्णरूपेण सक्षम हो पाएँगे। मुश्किल यह है कि यह बैक्टिरिया अपने पर्यावरण के अनुसार स्वयं को तेज़ी से ढाल सकता है। परिणाम स्वरूप विभिन्न रोगियों में इसके अलग–अलग प्रकार मिल सकते हैं जिनकी म्युकोसा से चिपके रहने तथा प्रदाह उत्पन्न करने की क्षमता अलग–अलग होती है। यही नहीं, एक ही रोगी में भी इनके कई रूप पाए जा सकते हैं जो समय–समय पर आमाशय की परिस्थिति के अनुसार स्वयं को ढाल सकते हैं। यहाँ तक कि संक्रमित व्यक्ति की जेनेटिक संरचना के अनुसार इनका प्रभाव भी अलग–अलग व्यक्तियों पर अलग–अलग हो सकता है।

वारेन एवं मार्शल की खोज का महत्व मात्र गैस्ट्राइटिस तथा पेप्टिक अल्सर जैसे रोगों के निवारण में ही नहीं है बल्कि इसने दीर्घकालिक प्रदाह जनित अन्य रोगों यथा— जोड़ों से संबंधित 'रिम्युट्वॉयडल आर्थाइटिस', वाहिनियों से संबंधित 'आथेरोस्क्लेरॉसिस', बड़ी आंत के कोलोन भाग से संबद्ध 'अल्सरेटिव कोलाइटिस' के कारण एवं निवारण पर भी पुनः दृष्टिपात करने का रास्ता सुझाया है। कहीं इनके मूल में भी बैक्टिरिया या फिर अन्य जीवाणु तो नहीं है? इस दिशा में शोध द्वारा भविष्य में इन बीमारियों के भी बेहतर इलाज की संभावना बढ़ गई है।

 

२४ नवंबर २००५

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