मुखपृष्ठ

पुरालेख-तिथि-अनुसार -पुरालेख-विषयानुसार -हिंदी-लिंक -हमारे-लेखक -लेखकों से


विज्ञान वार्ता


खेल कोरोना का
- संजय खाती


वायरस से हमारी जंग कुदरती है और यह हजारों लाखों वर्षों से चली आ रही है। हम दोनों तयशुदा नियमों के तहत इसे लड़ रहे हैं। विज्ञान की दृष्टि से देखें तो यह एक दिलचस्प मुकाबला है। दुनिया वायरस, बैक्टीरिया और दूसरे माइक्रोब्स से भरी पड़ी है। इस कदर कि अगर आप माइक्रोस्कोप की नजर से देख पाते तो हर सतह पर उनका ढेर नजर आता। किताब 'वायरल स्टॉर्म' में नेथन वुल्फ ने एक दिलचस्प मिसाल दी है- अगर दुनिया के तमाम वायरसों की एक कतार बनाई जाए तो वह २० करोड़ प्रकाश वर्ष दूर तक यानी हमारी आकाश गंगा के पार पहुँच जाएगी।

कितने वायरस कहाँ कहाँ

अपनी पुस्तक 'प्लैनेट ऑफ वायरसेज' में कार्ल जिमर के लिखते हैं- समंदर के १ लीटर पानी में १०० बिलियन (१० अरब) वायरस होते हैं। उनका वजन लगभग साढ़े ७ करोड़ ब्लू व्हेलों के बराबर हो सकता है। धरती पर इतनी भरमार जिन जीवाणुओं की है उनका आकार कैसा है, इस पर भी जिमर की राय सुनिए- अपनी नमकदानी से नमक का एक कण अलग कीजिए। इसकी लंबाई आपके १० बॉडी सेल्स के बराबर होगी। इस लंबाई में १०० बैक्टीरिया आ जाएँगे और १००० वायरस। इतने सारे माइक्रोब्स दरअसल इस ग्रह पर जीवन की जीत के निशान हैं।

वायरस हमारे जीन में भी फंसे पड़े हैं और बैक्टीरिया तो हमारे भीतर २ किलो से भी ज्यादा हैं। वे हमारी तरह ही उस जैविक दुनिया के हिस्से हैं। यह वही जैविक कच्चा माल है जिससे हम जीवित प्राणी विकसित हुए हैं। लिहाजा हम इनसे उलझे बिना रह नहीं सकते। हम और माइक्रोब दोनों एक ही मुकाबले में लगे हैं- मुकाबला खुद को आगे बढ़ाने का, जिसे सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट कहा जाता है। यानी वही बचेगा जो माहौल में फिट होगा। हम दोनों ही खुद को फिट साबित करने की मारामारी में लगे हैं। हर क्षण यह टक्कर होती है और हमें नोटिस में लाए बिना हमारा शरीर इसमें जीतता रहता है। हमें तभी पता चलता है जब लड़ाई विकट हो जाती है या हम हारने लगते हैं, जैसा कि इस वक्त हो रहा है।

खाँसी के पीछे की चाल

'गंस, जर्म्स एंड स्टील: द फेट ऑफ ह्यूमन सोसाइटीज' में जैरेड डायमंड ने सही लिखा है, यह ऐसा मुकाबला है जिसमें नैचुरल सिलेक्शन रेफरी का रोल निभाता है। किसी भी वायरस का कुदरती मकसद है ऐसे मीडियम की तलाश जो उसे बढ़ने और फैलने का मौका दे। कोरोना को ही लीजिए। बाकी तमाम वायरसों की तरह वह भी जंगली प्राणियों से होता हुआ हम तक पहुँचा है। अपने जिंदा रहने के लिए इस जैविक माल को जो माफिक कैरियर मिला, उसका उसने फायदा उठाया। माइक्रोब सबसे पहले अपने होस्ट के बॉडी सेल्स पर कब्जा करते हैं क्योंकि वहाँ से उन्हें अपनी कॉपी तैयार करने की चाबी मिल जाती है। जैसे ही इम्यून सिस्टम को मात देकर यह मोर्चा फतह होता है, खुद को फैलाने की चाल चल दी जाती है।

कुछ रोगाणु हैं जिन्हें मच्छर जैसे मददगारों की दरकार होती है। लेकिन बहुत से हैं जो होस्ट के बर्ताव में बदलाव लाकर अपना रास्ता बनाते हैं। कोरोना ऐसा ही है। वह होस्ट में खाँसी के लक्षण पैदा करता है, ताकि वह ड्रॉपलेट्स के बादल के जरिए आसपास फैले और अगले होस्ट तक पहुँच सके। यही उसका हथियार है और यही उसकी सीमा भी। मसलन अगर माहौल भीड़ का है और लोग यहाँ वहाँ छूते फिरते हैं तो कोरोना के लिए यह स्वर्ग है। यही वजह है कि यह संक्रमण इस कदर फैल सका। सही तरीके और सही माहौल ने इस वायरस की मुराद पूरी कर दी।

लेकिन इस वायरस का जिससे मुकाबला है वह जैविक सिस्टम क्या कर रहा है, यह भी देखें। हमारा यानी होस्ट का पहला कदम होता है अपने इम्यून सिस्टम को एक्टिव करने का। हमारा सिस्टम टेंपरेचर बढ़ाकर वायरस को भूनने की कोशिश करता है जिसे हम बुखार कहते हैं। अगर हम नाकाम रहते हैं तो वायरस हमें अपना गुलाम बना लेता है और हम खाँसने को मजबूर हो जाते हैं। अब यह बात भी है कि इवोल्यूशन और नैचुरल सिलेक्शन ने हमें अक्ल नाम की एक अतिरिक्त ताकत दे दी है जिसका इस्तेमाल कर हम सोशल डिस्टेंस, मास्क और सैनिटाइजेशन के जरिए वायरस की चाल नाकाम करने की जुगत करने लगते हैं। शुक्र है कि वायरस इसकी काट नहीं खोज पा रहा, इसलिए उसे इतने होस्ट नहीं मिले जितने कि उसे चाहिए होते।

मौत तो है साइड इफेक्ट। आगे चलकर होस्ट एक और काम करेगा, वैक्सीन बनाने का, ताकि उसके शरीर में एंटीबॉडीज बन सके जो वायरस का मुकाबला कर सकेंगे। अलबत्ता यह जंग अभी जारी रह सकती है। वायरस जिस तेजी से कॉपी होते हैं उनके जेनेटिक कोड में फर्क आ जाने यानी म्यूटेशन की गुंजाइश बहुत ज्यादा हो जाती है। यानी पहले से थोड़ा अलग एक नया वायरस पैदा हो जाता है जो हमारे इम्यून सिस्टम के लिए अजनबी होता है और पिछली वैक्सीन बेकार चली जाती है। यहाँ हमलावर की दिलचस्पी हमारी जान लेने में नहीं है। उनकी दिलचस्पी सिर्फ अपना वंश बढ़ाने के लिए हमारे इस्तेमाल में है। फिर भी रोगाणुओं से मौतें होती हैं। वायरोलॉजिस्ट इस सवाल पर विचार करते रहे हैं कि कोई माइक्रोब अपने होस्ट को मारकर नुकसान उठाना क्यों चाहेगा? जवाब यह है कि बीमारी और मौत सिर्फ साइड इफेक्ट हैं, जो जैविक वजहों से बस हो जाते हैं।

यह जंग कुदरत के अखाड़े में कैसे लड़ी जाती रही है, इसकी दो मिसाल आपको देना चाहूँगा। पहला है रेबीज का वायरस। वायरसों की दुनिया में इसे बादशाह माना जाता है क्योंकि यह अपने होस्ट का बर्ताव जबरदस्त तरीके से बदल देता है। इसके फैलने का तरीका लार है, लिहाजा होस्ट जानवर पागलों जैसा बर्ताव करता है, सबको काटता फिरता है और पानी के पास नहीं जाता।

दूसरी मिसाल टॉक्सोप्लाजमा गोन्डाइ (Toxoplasma gondii) पैरासाइट की है, जो आपका दिमाग घुमा देगी। यह पैरासाइट गर्म खून वाले सभी प्राणियों को शिकार बनाता है, लेकिन प्रजनन के लिए इसे किसी बिल्ली की आँतों में जगह बनानी होती है।

अब इस पैरासाइट की चाल देखिए। यह किसी चूहे पर हमला करता है, उसके दिमाग तक पहुँचता है और डोपोमाइन रिलीज करने लगता है। ये वह एंजाइम है जो खुशी और हिम्मत पैदा करता है। डोपोमाइन से दीवाना हुआ चूहा इस कदर मस्त हो जाता है कि बिल्ली की तरफ चल पड़ता है। बस पैरासाइट का काम बन जाता है। हम पर इस पैरासाइट का अटैक हो तो हम भी जोश, खुशी और हिम्मत के एहसास से भर उठेंगे। हमें दुनिया अचानक मजेदार लगने लगेगी। अब इससे पैरासाइट को क्या फायदा होगा, जानना बाकी है।

यह तो शाश्वत जंग है और इसमें बहुत कुछ शायद रहस्यमय बना रहेगा। लेकिन सीख यही है कि दुश्मन के पैंतरों को हम फटाफट समझें और जवाबी कार्रवाई में देर न करें। दरअसल हमें डर रोगाणुओं का नहीं, अपनी नासमझी और लापरवाही से होना चाहिए। कोरोना के अनुभव के बाद क्या कोई शक रह गया है इसमें?' 

१ जून २०२०

1

1
मुखपृष्ठ पुरालेख तिथि अनुसार । पुरालेख विषयानुसार । अपनी प्रतिक्रिया  लिखें / पढ़े
1
1

© सर्वाधिका सुरक्षित
"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक
सोमवार को परिवर्धित होती है।