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हास्य व्यंग्य

भ्रष्टाचार बिना बिचौलिया
--मनोहर पुरी


नेता जी ने कनछेदी को लाख समझाने का प्रयास किया कि उन्हें भ्रष्टाचार करने के लिए किसी दलाल की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि वह महात्मा गांधी के अनुयायी होने के कारण अपना काम स्वयं करते हैं। परन्तु कनछेदी था कि मानता ही नहीं था। उसका कहना था कि कहीं भ्रष्टाचार भी बिना बिचौलिये के होता है। महात्मा जी ने कभी किया ही नहीं था इसलिए उनके अनुयायियों को इसका कोई अनुभव हो ही नहीं सकता। यह तो वेश्यावृत्ति की भान्ति हमेशा से दबे मुँदे, चोरी छिपे ही होता है। जैसे वेश्याओं को दल्लों की जरूरत होती है वैसे ही भ्रष्टाचारियों को भी बिचौलियों पर निर्भर रहना पड़ता है। रिश्वत संबंधी लेन देने के सारे काम पीठ पीछे, मेज के नीचे अथवा ब्रीफ केस के भीतर से ऑपरेट होते हैं। नेता जी ने समझाया कनछेदी भ्रष्टाचार के मामले में तुम वैसे ही बहुत पिछड़ गए हो जैसे ओलम्पिक में हमारे धावक पिछड़ते हैं। जमाना कहाँ से कहाँ पहुँच गया है हम लोग न्यूकिलर डील्स के सौदे कर रहे है और तुम लगता है बोफर्स से आगे ही नहीं बढ़ पाये।

वैसे भी तुम अठारहवीं उन्नीसवीं शताब्दी के भ्रष्टाचारी फैशन की बात कर रहो, जब फिरंगी हमारे देश में भ्रष्टाचार के बीज ले कर आए थे और पूरे मनोयोग से उन्हें प्रस्फुटित कर रहे थे। भारत आगमन के समय उन्होंने देखा था कि पूरे देश में न तो कोई भिखारी है और न ही अनपढ़। न कोई भूखा सोता था और न ही नंगा रहता था। उन्होंने हमारे देश के एक एक खेत में भ्रष्टाचार के बीज छितरा दिए और उन्हें खाद पानी देने के लिए लोगों को शिक्षा और रोजगार से अलग करना प्रारम्भ कर दिया। धीरे धीरे लोग शिक्षा के बल पर नहीं भ्रष्टाचार के सहारे अपना काम चलाने लगे।

अँग्रेज क्योंकि बहुत ही 'सुसंस्कृत' कौम थी और उसे भारत के 'असभ्य' नागरिकों के सामने भ्रष्टाचार करने में लाज आती थी इसलिए वे सभी काम ढके मुंदे तरीके से करते थे। इसके लिए उन्हें तुम्हारे जैसे दलालों और बिचौलियों की आवश्यकता होती थी। वे किसी से स्वयं विश्वासघात करना नहीं चाहते थे इस कारण वे किसी दूसरे के कंधे का सहारा लेते थे। कभी फूट डाल कर एक दूसरे को लड़वाते थे कभी एक दूसरे को धार्मिक विभिन्नता के नाम पर उकसाते थे। परन्तु याद रहे ये घिनौना काम वे स्वयं नहीं करते थे। ऐसा काम वे भारतवर्ष के 'सभ्य' लोगों से ही करवाते थे। बदले में उन्होंने जो कुछ कमाया होता था उसका एक छोटा सा टुकड़ा दलालों को भी थमाते थे। आज भारत अंतरिक्ष युग में पहुँच गया है। भारत की लड़कियां बिना किसी बिचौलिए के विश्व सुन्दरियों के खिताब पाने की अग्रिम पंक्ति में आसानी से पहुँच जाती हैं। ह
मारी फिल्मों को भी ऑस्कर पाने के लिए अब दलालों की जरूरत नहीं पड़ती सीधे सीधे प्रमोशन के लिए करोड़ों रुपए व्यय करने पड़ते हैं।

अँग्रेजों के आने से पहले भारतवर्ष में दलालों का कहीं कोई अस्तित्व नहीं था। चाणक्य के अर्थशास्त्र का अध्ययन करने पर भी ज्ञात होता है कि दलाल नाम की किसी संस्था का यहाँ कोई नामलेवा नहीं था। लोग विनिमय के आधार पर अर्थतंत्र चलाते थे और सीधा साधा व्यापार करते थे। जुआघर, वेश्यालय और शराब खाने चलाने वाले भी हर प्रकार की बेईमानी से बचते थे। वैसे भी बेईमानी के लिए कठोर दंड की व्यवस्था थी। अँग्रेजों की मजबूरी थी कि उन्हें यहाँ की भाषा,रीति रिवाजों और लोगों के सामाजिक,धार्मिक और नैतिक आचरण की कोई समझ नहीं थी। इसीलिए वे दलालों का सहारा लेने के लिए बाध्य थे बेचारे। आज तो हम भ्रष्टाचार की जड़ तक को जानते हैं, भ्रष्टाचार की एक एक कल को पहचानते हैं। हमें हर एक की पोल पट्टी की जानकारी है इसलिए हमें दलालों की कोई जरूरत नहीं है। जितना हमें दलालों को देना है वह हम स्वयं ही सीधा क्यों न बचा लें इतनी अक्ल हर एक को है।

इतना लंबा भाषण सुन कर कनछेदी की बोलती ठीक वैसे ही बंद हो गई जैसे चुनाव से पहले प्रस्तुत होने वाले बजट भाषण को सुनने के बाद नेता प्रतिपक्ष की हो जाया करती है। प्रतिक्रिया में बजट की कोई कमी निकालने के नाम पर वह
केवल इतना ही कहता है कि यह तो चुनावी बजट है।

कनछेदी को मौन हुआ देख कर नेता जी बोले,'' आप तो सौदों के अर्थशास्त्र को पूरी तरह से समझते हैं। जब मामला सीधा सीधा पट जाये तो तीसरे को हिस्सा कोई क्यों दिया। वैसे भी पाँचवें कान में गई बात पराई हो जाती है। यह बात हम लोग सदियों से जानते हैं। तो हम अपने रहस्य किसी तीसरे आदमी को क्यों बताएँ।

पहले एक समस्या यह भी होती थी समाज में गिने चुने लोग ही भ्रष्ट होते थे। लोग इस बात को जान ही नहीं पाते थे कि कौन भ्रष्ट है। आज की तरह भ्रष्टाचार का लेबल किसी के चेहरे पर तो चिपका नहीं होता था। यदि जानकारी मिल भी जाये तो उन्हें यह पता नहीं होता था कि वह कितना भ्रष्ट है। वह रिश्वत लेता भी है अथवा नहीं। रिश्वत को एक प्यारा सा नाम दे दिया गया था। जैसे किमाम वाले पान को सोने के वर्क में लपेट कर पेश किया जाता है वैसे ही रिश्वत को भी नजराना कह कर आदर से दिया जाता था। बड़े बड़े राजा महाराजा कम्पनी बहादुर को नजराना दे कर अपनी इज्जत बचाने के फिराक में लगे रहते थे। नकद रुपया देना होता था तो भी फलों की टोकरी अथवा मिठाई के डिब्बे के भीतर रख कर दिया जाता था। ताकि जब तक लेने वाले को पता चले, देने वाला वहाँ से खिसक ले। वैसे लेने वाले को भी वास्तविकता का पता होता था परन्तु वह देने वाले के सामने उसे खोल कर, सामने वाले काें लज्जित करना नहीं चाहता था। इसलिए वह डिब्बा तभी खोलता था जब देने वाला उसकी आंखों के सामने से ओझल हो जाए। इसके लिए होली दीवाली और ईद जैसे अवसरों का इंतजार करना पड़ता था। पश्चिमी सभ्यता के 'थैंक्स गिविंग डे' के आधार पर ही हमने दीवाली को रिश्वत
लेने और देने का एक बड़ा दिवस घोषित किया हुआ था। धीरे धीरे होली और नव वर्ष जैसे दिन इसमें जुड़ते गए और अब तो साल के तीन सौ पैंसठ दिन 'थैंक्स गिविंग' के रूप में मनाये जाते हैं।

इसलिए पहले एक दूसरे के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए दलालों की आवश्यकता होती थी। दलाल इस प्रकार से मामला पटाते थे कि देने वाले को यह पता नहीं लगता था कि किसे दिया गया और लेने वाले को यह जानकारी नहीं होती थी कि किस से लिया। दोनों को आम खाने से मतलब होता था, पेड़ गिनने से नहीं। काम हुआ और दोनों गंगा नहाये। समस्या तो तुम्हारे जैसे दलालों के कारण ही पैदा हुई जिन्होंने बीच में से निकाल निकाल कर खाना शुरू कर दिया
और किसी को भनक तक नहीं लगने दी कि किसने किस को कितना दिया और किस ने किसी से कितना लिया।

अब हम समझ गए हैं कि तुम लोग दलाली के नाम पर क्या क्या धांधली करते रहे हो। कभी इसे कमीशन का नाम देते हो और कभी कटौती का। इससे भी तुम सन्तुष्ठ नहीं होते और बीच में कट मार जाते हो। इसलिए हम नेताओं ने यह प्रस्ताव पारित किया है कि भविष्य में कोई काम दलालों के माध्यम से नहीं होगा जो कुछ भी होगा सीधा होगा एक दम डायरेक्ट । देने वाले को यह पता होगा कि कितना देना है और लेने वाले को पूरा भरोसा होगा कि कितना मिलने वाला है। साफ बात है कि जब सब मामला इतना पारदर्शी होगा तो काम भी पूरी तरह से पारदर्शी होगा। और जब कार्यालय में सभी लेने वाले होगें तो न किसी को मेज के नीचे से देने में परेशानी होगी और न ही किसी के माध्यम से देने की जहमत उठानी पड़ेगी। खुला खेल फर्रूखावादी कहीं कोई दुराव छिपाव नहीं। इसलिए कनछेदी महाराज हमें माफ करें और ह
मारे रिश्वत लेने के अधिकार में बिचौलिए बनने की कोशिश करके हमारे रास्ते में कांटे न बिछाएँ।

इतना ही नहीं हम तो इससे भी आगे की योजना बना रहे हैं। अभी तक भ्रष्टाचार के मामले में बहुत सी अनियमितताएँ देखने में आ रही थीं। एक ही काम के अलग अलग दाम, जिसे बोल चाल की भाषा में हम सुविधा शुल्क कहते हैं, वसूला जा रहा था। भ्रष्टाचार को पेट्रोलियम पदार्थों की तरह से बाजार की दया पर छोड़ दिया गया था। जिसका जैसा दाँव लगता था वह वैसा ही लगा लेता था। मानते हैं कि जनता ने इसमें कभी कोई एतराज नहीं किया उन्हें तो काम होने से मतलब होता था परन्तु हम नेताओं की भी तो कोई जिम्मेदारी है कि नहीं। नैतिकता का भी कुछ न कुछ तो तकाजा होता ही है। बाद में हमने भी भगवान को मुँह दिखाना है। भ्रष्टाचार के बाजार में हम ऐसा शोषण कैसे होने देते रह सकते थे। इसलिए भ्रष्टाचार को सूचीबद्ध करने का कार्य बहुत जोर शोर से किया जा रहा है। जोखिम के अनुसार उसके रेट भी निश्चित किए जाने की योजना है। जब हम लोग गेहूँ जैसे अदना पदार्थ के लिए समर्थन मूल्य निश्चित कर देते हैं तो भ्रष्टाचार के लिए क्यों नहीं। इससे जनता को कितनी सहूलियत होगी इसका अनुमान आप स्वयं लगा सकते हैं। और जब बीच में बिचौलिए नहीं होगें तो ग्राहक को कुछ सुविधाएँ भी दी जा सकती हैं। एक ही विभाग में दो तीन काम होने पर उनकी सेल भी लगाई जा सकती है अथवा उन पर कुछ कटौती की घोषणा भी की जा सकती है। सेल का एक लाभ यह भी होगा कि व्यक्ति एक ही बार में अपने कई काम करवा सकेगा। इससे उसे बार बार चक्कर काटने पर खर्च होने वाला पैसा भी बच जायेगा। जो काम भविष्य में करवाना होगा उसे पहले ही करवा कर आदमी चैन की नींद सो सकेगा। अभी तो किसी भी
सरकारी भवन में चक्कर लगाते लगाते उसकी चप्पलें तक घिस जाती थी अब शायद वे बच जाएँगी। साथ ही भवन के रख रखाव पर होने वाला सरकार का बहुत सा पैसा भी बच जायेगा। जल्दी ही हम विभिन्न कामों के रेट सार्वजनिक करके समाचार पत्रों में छपवाने वाले हैं।

मानता हूँ इससे आप जैसे दलालों के पेट पर लात लगेगी परन्तु हमारी तो साख बढ़ेगी। इसी साख के बल पर ही तो हमें वोट मिलते हैं। इसी के बल पर हमारा लोकतंत्र चलता है। इसलिए यदि तुम्हें अपनी रोजी रोटी बिचौलिया बन कर ही चलानी है तो भ्रष्टाचार के लिए कोलम्बस की तरह नई जमीन की खोज करो जिसमें नई नई प्रजाति के भ्रंष्ट पौधों की फसल उगाई जा सके । इस समय तो हमें माफ ही करो कहते हुए नेताजी मुख्य द्वार पर पहुँच कर रूक गए। उन्होंने व्योम बालाओं की तरह कृत्रिम मुस्कान को चेहरे पर लगाया और हाथ जोड़ते हुए कहा आशा है हमारे साथ तुम्हारी यह मुलाकात सुखद रही होगी।

५ जुलाई २०१०

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